2.9.17

लोहे का घर-28

सुबह (दफ्तर जाते समय)

ट्रेन हवा से बातें कर रही है। इंजन के शोर से फरफरा के उड़ गए धान के खेत में बैठे हुए बकुले। एक काली चिड़िया उम्मीद से है। फुनगी पकड़ मजबूती से बैठी है। गाँव के किशोर, बच्चे सावन में भर आये गढ्ढे/पोखरों के किनारे बंसी डाल मछली मार रहे हैं। क्या बारिश के साथ झरती हैं आकाश से मछलियाँ ?

आज बारिश हुई है। घर से निकलते वक्त यही बारिश खराब लग रही थी, #लोहेकेघर में बैठ बाहर खिड़कियों से झांकते समय मौसम सुहाना लग रहा है। मौसम व्यक्ति की पोजिशन के हिसाब से अच्छा/बुरा होता है। मौसम बदलने के चक्कर में न पड़, पोजिशन बदलने का प्रयास करना चाहिए।

उमड़-घुमड़ बादलों से घिर-घिर, आ रही है बदली। एक टाली वाला खेत के किनारे बनी सड़क पर बोझा लादे टाली खींच रहा है। #रेल पटरी पर जमी घास उखाड़ रहे हैं मजदूर। पता नहीं इनके लिए मौसम कितना सुहाना है!

शाम(घर लौटते समय)

धान कुछ बड़े हो चुके हैं। कास फूल चुके हैं। वर्षा ऋतु बीत रही है। गोधूली बेला है। दिन ढलने वाला है। लोहे के घर की बत्तियाँ जल चुकी हैं। खेत अभी दिख रहे हैं। कहीं-कहीं सुनहरे हैं आकाश में छिटके बादल। बाहर सन्नाटा पसरा है, भीतर शोर है। तनिक और गहरे उतरिये तो बाहर शोर है और भीतर सन्नाटा। मन बेचैन है दृष्टा बनी हैं जिस्म की सभी इन्द्रियाँ।

मस्त है, इंजन के सहारे पटरी पर चलती गाड़ी। निश्चिंत हैं यात्री। यात्री के पास समय ही समय है। देश की चिंता करने के लिए फुरसत के ये लम्हें बड़े काम के हैं। आदमी फालतू न हो तो अपनी भी चिन्ता नहीं कर पाता, देश की क्या करेगा!

वे एक बड़े आदमी थे। शाम के समय अक्सर अपने साथियों के साथ देश की चिंता में डूब जाते। इधर मैं मैं करता अहंकार में डूबा बकरा कटता, कलगी उठाये घूम रहे मुर्गे स्वर्ग जाते, खौलते कड़ाहे में मछलियाँ तैरतीं उधर भुने काजू के साथ शराब के दौर पर दौर चलते। वे और उनके साथी तब तक देश की चिंता करते रहते जब तक कारिंदे आ कर कह नहीं देते..साहेब! खाना तैयार है।

लोहे के घर में आम आदमी देश की चिंता करते-करते बहसियाने और झगड़ने लगते हैं। न काजू मिलती है, न शराब। सभी फोकट में अपने-अपने बड़े आदमियों के लिए आपस में झगड़ते हैं। बड़े आदमी खाना खाने के बाद लेटे-लेटे टीवी में देख लेते हैं आम आदमियों को भी। बाढ़ से परेशान लोगों को देख कोई कहता है..यार! कोई बढ़िया वाला चैनल लगाओ, ये तो हर साल मरते हैं!

हलचल बढ़ रही है लोहे के घर में। आने वाला है कोई बड़ा वाला स्टेशन जहाँ अधिक लोगों को उतरना है। फुरसत के लम्हें खत्म हुआ चाहते हैं। देश की चिंता छोड़ अपनी चिंता करने का समय नजदीक आ चला है।

5 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (03-09-2017) को "वक़्त के साथ दौड़ता..वक़्त" (चर्चा अंक 2716) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. ट्रेन की यात्रा के बहाने दीन-दुनिया की खबरों से रूबरू कराने के लिए शुक्रिया..

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  3. सटीक प्रस्तुति

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  4. नये-नये अनुभवों के साथ सारी दुनिया को अपने में समेट लेता है ये लोहे का घर .

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