7.1.18

लोहे का घर-35

लोहे के घर में तास खेलने वालों की मंडली में एक सदस्य कम था और तीन साथियों ने मुझे खेल से जोड़ लिया। उधर कलकत्ता जा रहे बंगाली परिवार के बच्चों का झुंड शोर मचा रहा था, इधर मेरे बगल में बैठकर कनाडा से भारत दर्शन के लिए आईं एक गोरी मेम पुस्तक पढ़ रही थीं। मेरा ध्यान कभी बच्चों पर, कभी बगल में बैठी गोरी मेम पर और कभी उसके हाथ की पुस्तक पर जा रहा था। जाहिर है खेल में ध्यान न होने के कारण हम हारे जा रहे थे। यह दून एक्सप्रेस थी।

पार्टनर चीख रहा था..का गुरु ई का चलला?
मैं गोरी से बात कर रहा था... यू केम फ्रॉम देहरादून?
महिला भी मुस्कुरा कर जवाब दे रही थीं.. नो फ्रॉम हरिद्वार।
पार्टनर फिर चीखा..हार गइला! ला, फेंटा।

मैं तास फेंटते हुए महिला को टूटी फूटी अंग्रेजी में खेल के बारे में समझा रहा था.. दिस इज दहला पकड़! दहला मिंस टेन। देयर इज फ़ोर टेंस इन कार्ड। हू कैच मोर देन टू, दे विंस।

गोरी ऐसे चमक के ओ येस! हूं..कर रही थी जैसे सब समझ गई हो। फिर उसने कुछ फ्रेंच नाम गिनाए तास के खेल के। मुझे वे नाम ऊटपटांग लगे। मैंने मुस्कुरा कर कहा..नो नो आई डोंट नो। मैं सोच रहा था कि समीर भाई साहब को फोन लगा कर पूछूं कि क्या कनाडा में फ्रेंच बोली जाती है? या यह महिला फ्रांस से आई है? फिर उसकी पुस्तक के बारे में जानना चाहा। उसने पुस्तक दिखाई। वह एक फ्रेंच भाषा में लिखी महात्मा गांधी जी के दक्षिणी अफ्रीका के संघर्ष के बारे में पहला गिरमिटिया टाइप कोई पुस्तक थी। शायद महिला भारत भ्रमण के दौरान गांधी जी को पढ़कर भारत के बारे में जानने का प्रयास कर रही थी।

हम दूसरा गेम भी हार गए। मेरा पार्टनर मुंह बना रहा था और विरोधी मस्त हो रहे थे।

अकेली महिला बनारस जा रही थी, जहां उसके मित्र उसका इंतज़ार कर रहे थे। मैंने महिला को बनारस के घाटों, सारनाथ के बारे में जानकारी दी और सूर्योदय के समय नाव में घूमने की सलाह भी दी। वह मेरी बात समझ भी रही थी या खाली-पीली मुस्कुरा कर हां हूं कर रही थी यह तो वही जाने लेकिन हम लगातार हारे जा रहे थे। जब अपने ऊपर कोट चढ़ता तो हम प्रसन्न होते कि चलो अब पार्टनर पीसेगा और हमें केवल पत्ते फेंकने पड़ेंगे!

यह बहुत देर नहीं चलना था और नहीं चला। खेल बन्द हुआ और हमने महिला को पुस्तक पढ़ने की सलाह देते हुए अपनी मोबाइल निकाल ही ली। जैसे ही बनारस का आउटर आया कौन, मित्र कौन गोरी! ट्रेन को कोमा में छोड़ हमने घर जाने के लिए ११ नंबर की बस पकड़ ली।

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जाड़े में अदरक का क्रेज भांप कर लोहे के घर में वेंडर आवाज लगाते हैं..चाय बोलिए चाय, अदरक वाली चाय। पता नहीं कैसी होती है लेकिन एक बात तो पक्की है कि दूध, चायपत्ती चाहे जैसी हो, अदरक जरूर होती होगी चाय में।

अपनी फोट्टी की प्रतीक्षा में कोहरे में डूबे कैंट प्लेटफार्म पर खड़े खड़े कुछ मजेदार एनाउंसमेंट सुनाई पड़ रहे थे। फिफ्टी डाउन के प्लेटफॉर्म नंबर ६ पर आने का संकेत हो चुका है, यात्री गण ध्यान दें यह गाड़ी १ जनवरी की है! अब एक बार यह गाड़ी १ जनवरी की बताने के बाद टेप चालू हो गया। फिफ्टी डाउन के आने का संकेत हो चुका है, यह गाड़ी प्लेटफॉर्म नंबर....। अब १ जनवरी नहीं बोल रहा। जिसने सुना उसका भला, जिसने नहीं सुना, उसकी किस्मत। ट्रेन में दोनों नंबर लिखे होते हैं। २०४९ के समय २०५० आ जाए तो हड़बड़ी में लोग बिना इंजन देखे एक के बदले दूसरे में बैठे भी पाए जाते हैं। ऐसे लेट लतीफी के मौसम में एक एनाउंसमेंट यह भी होना चाहिए कि यात्री दिशा का ज्ञान रखें कि उन्हें किधर जाना है और इंजन का रुख किस ओर है! ऐसी एक दो ट्रेनें और आईं जो १ जनवरी की थी। शुक्र है कोई पिछले साल की नहीं थी। हमने यह नहीं सुना कि यह गाड़ी पिछले साल की है।

खैर अपनी फोट्टी आई, सभी यात्री उतर गए, सभी रोज के यात्री इत्मीनान से बैठ गए तब ध्यान आया कि एक भारी सूटकेस तो नीचे पड़ा हुआ है! शोर हुआ..यह किसका है? कौन इतना बड़ा बैग लेकर जौनपुर जा रहा है? पता चला किसी का नहीं है! हम में से एक दौड़ कर बाहर गया और चिल्ला कर पूछने लगा..किसी का बैग छूटा है? ट्रेन छूटने वाली थी तभी एक यात्री भागा भागा आया….मेरा एक सूटकेस छूटा है। सूटकेस उतार कर उसने इतनी बार थैंक्यू बोला कि क्या कहा जाय! अपनी आत्मा भी संतुष्ट हुई।

पटरी पर चल रही है अपनी गाड़ी और दिख रहे हैं कोहरे मे डूबे सरसों के खेत। कथरी ओढ़ कर बैठी एक काली गाय आराम आराम से मुंह चला रही दिखी थी अभी। लोहे के घर में बैठे यात्री भी मुंह चला रहे हैं लेकिन ये बतिया रहे हैं वो खाना पचा रही थी। कड़ाकी ठंड में खिड़की खोल कर फोटू खींचना संभव नहीं है। हम इच्छा भी करें तो दूसरे चीखने लगते हैं... तोहें फोटू खींचे के होय त दरवज्जे पे चल जा! नहीं त बइठ जा लोहे के घर के छत पर!!!

जलालपुर का पुल थरथराया है। कोहरे की चादर ओढ़ इत्मीनान से सोई है सई नदी।
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ठंड के थपेड़े कह रहे हैं..आज तो मैं और मैं ही हूं। स्टेशन के बाहर कुछ लोग सूखी लकड़ियां जलाने का प्रयास कर रहे थे। आग जली तो लपटें ऊपर तक उठने लगीं। आग देख भीड़ जुटने लगी। देखते ही देखते अच्छी खासी भीड़ आग के पास गोलाकार खड़ी हो गई। ऊपर आकाश में पीला चांद और नीचे आग की लपटें। ठंडी हवा दुम दबाकर भाग खड़ी हुई। जब तक #ट्रेन नहीं आ गई हम उसी भीड़ में खड़े कभी आग की लपटों को, कभी चांद को देखते रहे।
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स्टेशन के बाहर अलाव जलाने की व्यवस्था है। सूखी लकड़ियां गिरा कर चली जाती है नगर पालिका। पहले आग तापते हुए लोगों को देखकर लगता था..क्या फालतू वक़्त जाया कर रहे हैं लोग! लेकिन ट्रेन की प्रतीक्षा में आग प्राण दायिनी है। जैसे ही उठती हैं लपटें आग के इर्द गिर्द गोलाकार जमा हो जाती है भीड़। भीड़ में शामिल रहते हैं ट्रेन की प्रतीक्षा में प्लेटफार्म पर जमे यात्री, सवारी की प्रतीक्षा में खड़े ऑटो ड्राइवर, रिक्शे वाले और भी आस पास खाली बैठे गुमटी/ठेले वाले। खड़े खड़े लोग आपस में बतीयाते भी हैं।
कब तक जलती है आग?
पूरी रात!
रात में तो भीड़ नहीं होती होगी?
रात में तो और भीड़ रहती है। कोई प्लेटफार्म पर थोड़ी न बैठता है, सब यहीं जमा हो जाते हैं।

बीच बीच में अपने स्तर का हल्का फुल्का मजाक करते प्रसन्नता से आग तापते हैं सभी। किसी ट्रेन के आने का संकेत होता है, कुछ भीड़ छटती है। थोड़ी ही देर में नई ट्रेन का समय होता है, नई भीड़ जुड़ती है। मरुधर के आने का समय हुआ, हम भी चढ़ गए लोहे के घर में।
ख़ाली ख़ाली है इस ट्रेन की भी बोगियां। जोधपुर से चलकर बनारस जाने वाली ट्रेन है। पीछे से किसी यात्री के बड़बड़ाने की आवाज सुनाई पड़ रही है...१२ घंटे लेट हो गई! अब कर लो बात। इस कोहरे में पहुंच रहे हैं, यही क्या कम है? लेट न होती तो हम क्या करते? इन्हीं लेट ट्रेनों का ही तो सहारा है। शुक्र है भगवान का कि इस जाड़े में अपनी वाली के साथ सभी की लेट चलती है। घर से एक यात्री के भागवान का फोन आ रहा है। कितनी मासूमियत से दिलासा दे रहे हैं कि अब पहुंचने ही वाले हैं! ये सोच रहे हैं कि घर में इनकी चिंता हो रही है। जबकी रजाई में दुबकी महिला की चिंता यह होगी कि मुसीबत कब घर आने वाली है! खैर! जिस भाव से भी हो, चिंता तो है। शुभ शुभ, अच्छा अच्छा सोचना चाहिए। नकारात्मक सोच से तो सफ़र और भी दुश्वार लगने लगता है।
ट्रेन की रफ्तार धीमी है। आराम आराम से रुक रुक कर चल रही है। यात्रियों को चाहे जितनी जल्दी हो, अपनी पटरी नहीं छोड़ती ट्रेन। सिगनल और नियम कानून का पूरा ध्यान रखती है। जरा सी चूक हुई नहीं कि लोहे के घर से भगवान के घर जाने में देर नहीं होगी। बड़ा विशाल और बहुत कठिन लगता है रेलवे का परिचालन। बैठे बैठे हम चाहे जितनी आलोचना कर लें लेकिन इनकी समस्या और इनकी कठिनाइयां तो ये ही बेहतर समझ सकते हैं।
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लोहे के घर में एक गोल मटोल सुमुखी मोहतरमा फोन से बातें कर रही हैं। स्वेटर शाल से पूरा बदन ढका हुआ लेकिन मुखड़ा पूनम के चांद-सा खुला-खुला। बातों से पता चल रहा है कि यह अपने ससुराल जा रही हैं। खूब बातूनी लगती हैं। साथ में एक सहयोगी है। काम करने वाली लगती है जिसे यह बहन बता रही हैं। फोन में किसी को बता रही हैं...अम्मी खाना बनाकर टिफिन में दी है। सास दुष्ट है जो बार बार मायके भगा देती है। कहती है… अपने पति को भी लेकर जा, भाग यहां से!
तब आप फिर भी अकेली ससुराल जा रही हैं! डर नहीं लगता?
नहीं, अब तो कोर्ट से आदेश हो गया है ना। रहने के लिए घर में एक कमरा और दस हजार रुपया हर महीने देने का आदेश हो गया है। अब नहीं भगा सकतीं।
पति तो आप के साथ हैं न! फिर क्या चिंता?
नहींss अभी सास ने भड़का कर अपने साथ मिला लिया है ।
इतने गंभीर विषय पर साथ बैठे एक रोज के यात्री से खूब हंस-हंस कर बातें कर रही हैं!
अब कितने दिनों के लिए बनारस जा रही हैं?
अब अपने मर्जी के मालिक हो चुके हैं, जब चाहे जाओ/आओ। मेरी सास और खाला बहुत परेशान करती थीं। इसीलिए कोर्ट जाना पड़ा।
अब आप क्या चाहती हैं?
हर लड़की सुकून चाहती है। लड़ाई झगड़ा कोई नहीं चाहता। सास और खाला हर वक्त परेशान करती थीं और घर से भगा देती थीं।
मित्र को खूब मज़ा आ रहा है बातें करने में..
तीन तलाक पर आपकी क्या राय है?
अच्छा है। एक जगह से पास हुआ है, एक से नहीं। जब दोनों जगह से पास होगा तब न कानून बनेगा? पास हो जाएगा एक दिन। ऐसे खाविंद को सजा मिलनी ही चाहिए। आखिर लड़की घर मां/बाप छोड़ कर आती है। उसके साथ अन्याय नहीं होना चाहिए।
इतनी परेशानियों के बाद भी आप खूब स्वस्थ हैं!
मोहतरमा खुल कर हंसते हुए बोलीं...अरे! हम मोटी नहीं है। खून कम होने से शरीर फ़ूल गया है।
मुझसे रहा नहीं गया, बोल ही पड़ा..अरे! अापको मोटी किसने कहा?
हंसते और हाथ से इशारा करते हुए..भाई साहब ने। मैं खूब समझती हूं। जो भी मुझे देखता है मोटी समझता है लेकिन मैं मोटी नहीं हूं, खून कम होने से शरीर फ़ूल गया है। शादी से पहले खूब पतली दुबली थी। वैसे आप लोग कहां जा रहे?
मैं फिर बोल पड़ा...हम आपके ससुराल वाले हैं।
मोहतरमा हंसते हुए कहने लगीं...तब आप लोग हमारी किसी बात का बुरा मत मानिएगा। हमको बोलने की आदत है।
नहीं, नहीं बुरा क्या मानना! हम लोगों का आज का सफ़र आपकी बातों से ही कट गया।
शाम का समय, लोहे के घर की खिड़कियों से सुर सुर सुर सुर आती कटीली हवा और अजनबी महिला की रोचक बातें। इस महिला के कारण ससुराल वालों का जीना हराम है या ससुराल वालों ने इसका जीना हराम कर रखा है यह तो ऊपर वाला ही बेहतर जानता होगा मगर एक बात तो तय है कि लड़की को ससुराल में प्यार और सम्मान मिले तो वो बिला वजह मुसीबत क्यों मोल लेगी? सुख से रहना कौन नहीं चाहता? और अकेली महिला के लिए पहले तो गुजारा भत्ता की लड़ाई जीतना कठिन है फिर जीतने के बाद गुजारा भत्ता और उसी घर में एक कमरा लेकर रह पाना हैरतअंगेज करने वाला साहस है। यह सबके वश की बात तो नहीं लगती।
पुराने सामाजिक गठबंधन तेजी से टूटते प्रतीत हो रहे हैैं। कोई किसी की अधीनता स्वीकार करना नहीं चाहता मगर दोनों एक दूसरे को गुलाम बनाए रखना भी चाहते हैं। अब नारी किसी हालत में पराधीनता स्वीकार नहीं करना चाहती, अब पुरुष भी सहमा-सहमा सा दिखता है।
ये वैवाहिक संबंध एक ऐसी अबूझ पहेली है जिसे समझ लेने का दावा हर कोई करता दिखता है मगर समझ कोई नहीं पाता। इसमें कोई एक फार्मूला लागू ही नहीं हो सकता। हर जोड़े के अपने अपने नगमें, अपने अपने पेंच - ओ - खम हैं। कभी- कभी तो शतरंज के खेल से प्रतीत होते हैं वैवाहिक संबंध! जिसमें खेल तो शतरंज का ही चल रहा होता है मगर हर खेल दूसरे से जुदा, हर चाल नई होती है। जैसे शुरुआती चालों के बाद दो खेल कभी एक से नहीं खेले गए वैसे ही सुहागरात तो सबने मनाए लेकिन लिखने वाले ने सभी की कहानियां अलग-अलग लिख दीं! 

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