20.4.19

बनारस की गलियाँ-5

गली में भीड़ देख
ठिठक जाते थे कदम
घुसकर
झाँकते थे हम भी

चबूतरे पर
बिछी होती थी
शतरंज की बाजी
खेलने वाले तो
दो ही होते थे
चाल बताने वाले होते थे
कई।

हर मोहल्ले में थीं
दो/चार
चाय और पान की दुकानें
दुकानों के पास
चबूतरों पर
सजती थीं अड़ियाँ
होती थीं
खेल, फ़िल्म, नाटक, संगीत, साहित्य और..
देश की राजनीति पर
चर्चा।

अब
चबूतरे भले उतने ही हों
कुछ बढ़ ही गई हैं
चाय/पान की दुकानें
अड़ियाँ भी जमती हैं कहीं-कहीं
मगर नहीं दिखती
शतरंज के बाजियाँ,
नहीं होती
खेल, फ़िल्म, नाटक, संगीत या साहित्य पर चर्चा
आम मध्यम वर्गीय
नहीं देख पाते
मॉल में जाकर
फिलिम,
डाउन लोड कर के या मांग कर
देख लेते हैं
मोबाइल में ही।

आज के किसी गायक या संगीत पर
तारीफ या आलोचना के लिए
आम आदमी के पास
कुछ नही है
बहस का विषय
नहीं बन पाती किसी लेखक की नई पुस्तक
बहस होती है तो सिर्फ
राजनीति पर

लोगों के पास
समय का अभाव है
खर्च बढ़ गया है,
कमाने की होड़ है
बताने के लिए तो
आज भी
बहुत कुछ है,
कम है तो
सुनने/सहने की क्षमता
आज भी
वैसी ही हैं
बनारस की गलियाँ
लेकिन
अब वैसा नहीं रहा
गलियों का मिजाज।
......................

3 comments:

  1. banarash ke galiya ko padhke bahut achcha laga, bahut badhiyaa. thanks share karne k liye

    Happy Birthday Wishes

    ReplyDelete
    Replies
    1. पढ़ने और पसंद करने के लिए भी धन्यवाद।

      Delete
  2. सादगी के शब्द और अनूठी रचना

    ReplyDelete