20.5.20

बह रही उल्टी नदी.....


तुम नदी की धार के संग हो रहे थे
फेंककर पतवार भी तुम सो रहे थे।

बह रही उल्टी नदी, अब क्या करोगे?
क्या नदी के धार में   तुम फिर बहोगे?

चढ़ नहीं सकती पहाड़ों पर नदी
है   बहुत  लाचार देखो यह सदी।

डूब जाएंगे सभी घर, खेत, आंगन
या तड़प, दम तोड़ देगी खुद अभागन!

किंतु सोचो तुम भला अब क्या करोगे?
बच गए जो भाग्य से क्या फिर बहोगे?

बहना पड़े गर धार में, इतना करो तुम
पतवार भी यूँ भूलकर मत फेंकना तुम

फिर नदी उल्टी बही तो, लड़ सकोगे
जब तलक है प्राण, आगे बढ़ सकोगे।
..............

13 comments:

  1. अब शायद संभल जायेगा मानव, पतवार भी हाथ में रखेगा और नदी की धार पर भी नजर रखेगा। जो अब भी नहीं जागा उसे तो मिटना ही पड़ेगा, समय की मार ऐसी पड़ी है कि युगों तक इसकी गूंज सुनाई देगी

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  2. बहुत सुंदर रचना।

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  3. सच मे पतवार संभाले रखनी होगी। सुंदर कविता सर।

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  4. पढ़ने और सराहने के लिए आभार आप सभी का।

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २२ मई २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  6. बहुत सुन्दर

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  7. This comment has been removed by the author.

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  8. कुछ विरोधाभासी झलक
    कई जगह तुकबंदी भी टूट रही है.
    माफी चाहूंगा.
    लेकिन ध्यानार्थ जरूरी है 🙏

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    1. हाँ, छंदबद्ध नहीं है। तुकबंदी भी नहीं। अतुकांत ही लिखता हूँ। यह अनायास ऐसी बन पड़ी है। प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद।

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    2. आपकी आपत्ति दूर करने का प्रयास किया हूँ।

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