11.12.22

साइकिल की सवारी-4

बहुत दिनों बाद बैठे हैं पुलिया पर। जब पुलिया पर बैठते हैं, पुलिया सम्राट अनूप शुक्ल जी याद आ जाते हैं। क्या हुआ वो जबलपुर शहर में पुलिया तलाशते थे और हम यहाँ सारनाथ, बनारस से 6 किमी दूर सराय कोटवा और कपिलधारा के बीच एक पुलिया पर बैठे हैं। 


सारनाथ से नमो घाट, राजघाट जाने का एक यह भी मार्ग है। यह पैदल या साइकिल सवारों के लिए खूबसूरत रास्ता है। आम रास्ता जो आशापुर से कज्जाकपुरा होते हुए राजघाट जाता है, इस समय ओवर ब्रिज निर्माण के कारण बहुत खराब है। यह रास्ता थोड़ा दूर पड़ता है लेकिन गाँव का खूबसूरत रास्ता है। सारनाथ से आशापुर, पंचकोशी, कपिलधारा, सराय मुहाना, निषाद राज गेट, वरुणा-गंगा संगमतट पर बने पुल को पार कर आदिकेशव घाट, बसंत कॉलेज और तब जाकर आएगा नमो घाट, राजघाट।


इस रास्ते से आने में अच्छी साइकिलिंग हो जाती है। आज तो कुछ ज्यादा ही अच्छी हो गई, बार-बार चेन निकल जाता, बार-बार हम चढ़ा कर चढ़ते, बच्चे भी देख कर कहने लगे, "चेन ढीली हो गई है अंकल, टाइट करा लीजिए।" हम हाँ/हूँ कहते हुए आगे बढ़ते, यहॉं, इतनी सुबह, कहाँ मिलेगा सायकिल वाला!


बहरहाल जब नमोघाट पहुँचे, सूरज नारायण निकल ही रहे थे। हमको देख कर बोले, "आओ बच्चा! आज खूब मेहनत किए, फोटो खींचो।" हमने जल्दी से प्रणाम किया और बोला, "बस अभी खींचते हैं देव! आप अपनी लालिमा बनाए रखना।" सूर्यदेव मुस्कुरा कर गंगाजी में अपनी आभा बिखेरने लगे और मैं घूम-घूम कर फोटू खींचने लगा। 


थककर जब एक जगह बैठा तो नींबू वाली चाय लेकर अजय बाबू आ गए। बहुत बढ़िया चाय पिलाई। राजघाट के बगल के हैं अजय बाबू। चाय बेचकर परिवार का लालन/पालन करते हैं। इनको भी परिवार छोड़ कर राजनीति में कूदना चाहिए और बड़े होकर अजय घाट बनाना चाहिए लेकिन कौन समझाए! यह कला समझाने से थोड़ी न आती है। हमने चाय पीकर चाय की खूब तारीफ करी। मौके पर इच्छित वस्तु का मिल जाना भाग्य की बात होती है। चाय पीकर, सूर्यदेव को बाई-बाई करते हुए लौट चले। 


अब लौटते समय यह पुलिया मिली तो आराम से बैठकर लिख रहे हैं। एक पंथ दो काज हो गया, थकान भी दूर हो गई, लिखना भी हो गया। इतनी देर से बैठे हैं, आज पुलिया पर न रामचन्दर हैं, न राम नरेश। शायद दिन में धूप लेने आते होंगे। हम भी बहुत दिनों बाद इधर आए हैं तो कुछ नहीं पता। दो देसी कुत्ते सामने वाली पुलिया के बगल से होते हुए दाएं से बाएं गए। मेरी तरफ देखा तक नहीं! कुत्ते भी पहचानते हैं, कौन काम का आदमी है, कौन फालतू में बैठकर मोबाइल चला रहा है। अभी काफी दूर जाना है, कुत्ते किसी पर भौंक रहे हैं, मेरे ऊपर भौंकने लगें इससे पहले यहाँ से चलना पड़ेगा। 


पुलिया से 5 किमी चलकर पंचकोशी पहुँचे, लगा कि अब तो घर आ ही गए कि अचानक मन ने प्रश्न किया, "टोपी कहाँ है"?" याद आया, सेल्फी लेने के चक्कर मे टोपी तो पुलिया पर उतारी थी, वहीं छूट गई होगी। अब क्या करें? अच्छी/ऊनी टोपी थी, अभी वहीं होगी। गाँव के लोग ईमानदार होते हैं, दूसरे की टोपी नहीं लेंगे।


शरीर में जान नहीं बची थी, थकान के मारे बुरा हाल था, औकात से ज्यादा मेहनत हो चुका था लेकिन टोपी का इतना मोह था कि एक साइकिल बनाने वाले से चेन ठीक कराई और वापस चल पड़े। पुलिया में पहुँच कर खुशी का ठिकाना न रहा, कोई अभी तक नहीं आया था लेकिन टोपी वहीं रखी थी। कितने लोग यहाँ से गुजरे होंगे लेकिन किसी ने टोपी नहीं उठाई। झट से टोपी पीछे कैरियर में दबाई और गाँव के लोगों के लिए दिल से दुआ निकली, "ईश्वर इनका भला करे, ईमानदारी कहीं तो बची है!"


वापस लौटे तो भूख के मारे बुरा हाल था, रास्ते में गरम-गरम कचौड़ी जिलेबी छन रही थी लेकिन साइकिल की चेन चढ़ाने के कारण उँगलियाँ इतनी गंदी हो चुकी थी कि बिना हाथ साफ किए कुछ खाने का मन नहीं किया। टोपी मिलने की खुशी में इतनी ताकत आ गई कि सकुशल घर वापस आ गए। आज साइकिलिंग के सभी पिछले रिकार्ड टूट गए। 







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