18.12.22

साइकिल की सवारी 5

आज फिर बैठे हैं पुलिया पर। आज टोपी भूलने वाली गलती न हो इसलिए पहले ही कैरियर में दबा दिए हैं। आज भी कोई नहीं है लेकिन वो आई है, सूरज की राजदुलारी, हम सब की प्यारी, जाड़े की धूप। सड़क के दोनो तरफ पुलिया बनी है, दोनो तरफ लाल रंग से लिखा है, 'बहादुर आदमी पार्टी!' इस पार्टी का नाम पहले नहीं सुना था, यहाँ बैठा तो ज्ञान हुआ, ऐसा भी कोई नाम है। वैसे सही भी लगा, आम आदमी, पार्टी कहाँ बना पाता है! बहादुर आदमी ही पार्टी बनाता है, भले आम को लुभाने के लिए लिख दे, 'आम आदमी पार्टी!'


आज भी अच्छी खासी साइकिलिंग हो गई, बढ़िया बात यह रही कि एक बार भी चेन नहीं उतरी और हम सूर्योदय के समय 10 किमी से अधिक साइकिल चलाकर, सारनाथ से पंचकोशी, कपिलधारा, सरायमुहाना, श्मशानघाट, आदिकेशव घाट, बसंता कॉलेज होते हुए सीधे पहुँच गए, नमो घाट।


आकाश से सूर्य देव गंगा जी की लहरों/घाटों पर अपनी लालिमा बिखेर रहे थे और सभी प्रकार के प्राणी आनंदित हो रहे थे। बकरियाँ स्वेटर पहन कर घूम रही थीं, यादो जी की भैंस कथरी ओढ़े खड़ी थी, कबूतर दाने चुग रहे थे, भक्त स्नान/ध्यान में डूबे थे, पंडे जजमान तलाश रहे थे, बच्चे स्केटिंग कर रहे थे और मेरी तरह फोटो खींचने/ खिंचवाने के शौकीन लगे हुए थे, मतलब सभी अपने-अपने धंधे में भिड़े हुए थे। एक से एक बढ़िया कैमरे, एक से बढ़कर एक फोटोग्राफर और पोज देकर फोटो खिंचवाने वाले एक से एक खूबसूरत जोड़े। 


देखते-देखते मेरा मन मचला और कदम बढ़ गए पँचगंगा घाट की तरफ। घाटों का नजारा काफी खूबसूरत था। तेलियानाला घाट और आगे 2,3 घाटों पर तीर्थ यात्रियों की खूब भीड़ जुटी थी। मैं चकराया!  आज कौन सी स्नान की तिथि है, मुझे तो कुछ नहीं पता! एक आदमी से पूछा तो उसने बताया, "गंगा सागर जाए वालन कs भीड़ हौ, दख्खिन से आयल हउअन, बीच-बीच में जउन घाट मिली, नहात जइहें!" 


वहाँ से आगे बढ़ा तो गाय घाट के पास एक आदमी मढ़ी पर बैठ कर मछलियों को आटे की गोलियाँ खिलाते दिखा, पँचगंगा घाट पहुँचे तो घाटीए ने पहचान कर स्नान करने के लिए बुलाया। मैं भक्ति के नहीं, घूमने के मूड में था, उनको नमस्कार किया और बोला, "बहुत ठंडी हौ महाराज! धूप अउर निकले दा।" आगे बढ़ कर भोसले घाट की एक मढ़ी में धूप लेते हुए मन किया सिंधिया घाट तो पास ही है, आगे बनारस का प्रसिद्ध चौखम्भा/ठठेरी बाजार और कचौड़ी/मलइयो की दुकान है, चलो! चलते हैं, समय भी हो चुका दुकान खुल गई होगी। 


चार गरमा गरम कचौड़ियाँ और 250 ग्राम मलइयो चाभने के बाद तो थकान और बढ़ गई। वापस ऑटो पकड़कर घर जाने का मन किया लेकिन याद आया साइकिल तो नमो घाट पर रखे हैं! वापस जाना ही पड़ेगा। थकान मिटाने के लिए वहीं संकठा जी के मंदिर के पास, सिंधिया घाट के ऊपर चबूतरे पर बैठ गए। दौड़ गुरु याद आए, "जितना कैलोरी जलाए, उससे ज्यादा तो चाभ लिए पण्डित जी! कोलेस्ट्रॉल बढ़ेगा कि घटेगा?" मैने मन ही मन कहा, "आनन्द से बढ़कर कुछ नहीं है, एक दिन तो सभी को जाना है, ज्यादे कैलोरी होगी तो जलने में  एकाध किलो लकड़ी ज्यादा लगेगी और क्या! वो भी मरने के बाद कौन अपने को जुटाना है! मैं कैलोरी जलाने के लिए थोड़ी न घूमता हूँ, आनन्द लेने के लिए घूमता हूँ, आनन्द मिल रहा है और क्या चाहिए?"


जिस चबूतरे पर बैठे थे सामने एक फूल माला बेचने वाले की दुकान थी, वहीं एक टोपी पहने, जोश से लबरेज एक आदमी को दिखा कर फूल बेचने वाले ने पूछा, "बता सकsला, इनकर उमर कितना होई?" मैने कहा, "यही कोई चालीस साल?" मेरा उत्तर सुनकर फूल वाला और आसपास खड़े सभी लोग हँसने लगे! ठहाके लगाते हुए फूलवाला बोला, "अस्सी साल! इनकर उमर अस्सी साल हौ!!! जैतरपुरा कs रहे वाला हउअन, 'सुंदर' नाम हौ।" मैने अब ध्यान से देखा, दुबला-पतला, मुस्कुराता चेहरा, गालों में एक भी शिकन नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है! बहुत होगा साठ साल का होगा। मैने कहा, "हमे त तोहरे बात पर विश्वास नाहीं हौ।" वह फिर हँसने लगा, "हमरे पर विश्वास ना हौ त अउर सबसे पूछा!" सभी ने उसकी बात का समर्थन किया। हमने सुंदर को प्रणाम किया और कहा, "आइए, आपका एक फोटो खींच लें, रोज देखेंगे तो ताकत मिलेगी।" सुंदर हँसते हुए, इनकार करते हुए चले गए,"फोटो का होई?, बेकार कs बात हौ!" फूल वाले ने आगे बताया, "ये तीन भाई हैं, अपना घर है लेकिन इनका अपना कोई लड़का नहीं है, एक लड़का बड़ा होकर मर गया, खाने के लिए घर में रोज चालीस रुपिया देना होता है, उसी के लिए टाली चलाते हैं, इस उमर में भी घाट की सीढ़ी, दस बार ऊपर/नीचे चढ़ते हैं।" मैं आश्चर्य में डूबा, फिर मिलेंगे, बोलता हुआ, सिंधिया घाट की सीढ़ी उतर गया। एक-एक सीढ़ी उतरते हुए सोचता रहा, साठ की उमर में अपना यह हाल है, अस्सी की उमर का वह नौजवान कितना फुर्तीला था! सच बात है, मेहनत करने वाला और सदा खुश रहने वाला, कभी बुड्ढा नहीं होता।


सुबह 6 बजे घर से चले थे और अब दिन के दस बज चुके थे। सूरज नारायण सर पर सवार हो चुके थे, घाटों पर धूप बिखरी पड़ी थी। पतंग उड़ाने वाले और क्रिकेट खेलने वाले बच्चों की फौज घाटों पर जमा हो चुकी थी। हमने जल्दी-जल्दी सभी घाट पार किए, पँचगंगा वाले घाटीए से नजरें चुराता आगे बढ़ गया, कहीं पण्डित जी यह न कहें, "आओ जजमान! चउचक धूप हो चुकी है।" नमो घाट पहुँच कर अपनी साइकिल ली और पैदल-पैदल चढ़ाई चढ़ने लगा।


पता नहीं आपने महसूस किया है या नहीं, जिस रास्ते से साइकिल चलाते हुए जाओ, उसी रास्ते से लौटो तो एक अजीब एहसास होता है! चढ़ाई अखरती है, ढलान मजा देता है!!! जो चढ़ाई अखरती है, वही ढलान होती है जिसने आते समय बिना पैडल मारे साइकिल उतारने में खूब मजा दिया था। ढलान में हम उतने खुश नहीं हो पाते जितने दुखी चढ़ाई चढ़ते समय होते हैं। जीवन मे भी यही होता है। खुशी वाले पल ढलान की तरह जल्दी से सरक जाते हैं, दुखों वाले पल भुलाए नहीं भूलते! हमको इस बेचैनी/नासमझी से मुक्ति कोई बुद्ध ही दिला सकते हैं। 


उतरते/चढ़ते पुलिया पर आकर बैठ गए और खूब धूप ले लिया। तब तक घर से कई बार फोन आ चुका। नहीं, मेरी चिंता से नहीं, इस उलाहना से, "रविवार को भी आप सुबह से गायब रहते हैं! बहुत सामान लाना है, हैं कहाँ?" मैने कहा, " जो लाना है, वाट्सएप कर दो, अभी पुलिया पर बैठकर थकान मिटा रहे हैं।

    कई दिनों बाद, उसी जगह सुंदर मिल गए।



4 comments:

  1. बहादुर आदमी पार्टी ! हाहा

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  2. बिल्कुल सही, कहीं जाते समय रास्ता लंबा लगता है और लौटते समय छोटा

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    1. ये तो दूसरी बात है। कहना यह था कि सुख वाले पल, (ढलान में जैसे साइकिल जल्दी से लुढ़क कर आगे बढ़ जाती है), जल्दी से बीत जाते हैं, दुःख वाले पल, चढ़ाई की तरह जल्दी पार नहीं होते।

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