19.8.23

चार

घूमते-घूमते एक घने नीम के वृक्ष के नीचे पहुँचा। वैसे तो मैं जंगल में ही था और आसपास कई घने वृक्ष थे लेकिन यह थोड़ा अलग था। किसी ने शाखों को काट छांट कर बकायदा सीढ़ी का आकार दिया था, इससे ऊपर चढ़ना बहुत आसान था। मैं भी अपनी मानसिक उलझन में था, चढ़ता चला गया और ऊपर एक चौड़े शाख पर आराम से बैठकर सुस्ताने लगा। सफर कितना भी आसान हो, चढ़ाई तो चढ़ाई होती है।


बैठकर आसपास के दृष्यों का आनंद ले ही रहा था कि एक युवा कुल्हाड़ी लेकर धड़ल्ले से चढ़ता चला आया और सामने की शाख पर खड़े हो मुझे घूरने लगा! मैने भी उसे ध्यान से देखा।  हृष्ट पुष्ट, गेहूआं रंग, स्वस्थ शरीर, अवस्था 25-30 वर्ष। एक और खास बात थी, उसके हाथ, पैर, और सर में भी जगह-जगह गंदे कपड़े लपेटे हुए थे, कपड़ों में खून के धब्बे लगे थे और वह दर्द से कराह भी रहा था!

मैं कौतूहल से एक टक उसी को देखने लगा। उससे बड़ा नमूना मैने जिंदगी में कभी नहीं देखा था। उसे देख लग रहा था जैसे कालीदास का पुनर्जन्म हो गया है। इसने भी डाल के आगे की तरफ खड़े हो कर कुल्हाड़ी चलानी शुरू करी और हर वार पर जोर से चिल्लाता, "चार!" मुझसे रहा न गया, बोल पड़ा, 'पागल हो चुके हो क्या?' शाख कटेगी तो गिरोगे नहीं?

वह मेरी बात सुनकर जोर से ठहाके लगाने लगा, "जानता था, तुमसे बर्दाश्त नहीं होगा और ज्ञान बाँटने चले आओगे। मैं क्या बोल रहा हूँ इस पर भी ध्यान दो और उसने कुल्हाड़ी चलाते हुए चीखा..."चार!"

शाख कटकर गिरने ही वाली थी, इसी रफ्तार से कुल्हाड़ी चलाता रहा तो अगले दो, तीन वार में यह व्यक्ति शाख के साथ जमीन पर होगा! मैने घबड़ाकर कहा, "ठीक है, काट लेना, आत्महत्या करने का मन है तो तुम्हें कौन रोक सकता है? लेकिन मरने से पहले मेरी जिज्ञासा तो शांत कर दो, कृपया मुझे बताओ कि ऐसा क्यों कर रहे हो और यह "चार-चार" क्या बोले जा रहे हो?"

मेरे विनम्र आग्रह से वह थोड़ा प्रभावित हुआ और शाख काटना छोड़, धच्च से उसी डाल पर बैठ गया और ठहाके लगाते हुए बोलना शुरू किया, "चार -चार का मतलब यह चौथी बार है! वह देखो, तीन शाख काट कर पहले ही गिरा चुका हूँ! इन कपड़ों में जो खून लगा है, मेरे ही हैं और तुम मुझी को समझा रहे हो कि गिर जाओगे? मैं जानता हूँ, तुम अब और परेशान हो चुके होगे, पूछोगे, ऐसा क्यों कर रहे हो? हा हा हा हा... तुम भी करो तो तुम्हें भी इसके आनंद का ज्ञान होगा! जिस डाल पर बैठो, उसी को काटो और धड़ाम से गिर जाओ! जितनी चोट लगेगी, जितना दर्द होगा, उतना आनंद आएगा!

क्या बकते हो! इससे तो जान भी जा सकती है!!! तीन बार भाग्यशाली रहे तो जरूरी थोड़ी न है कि चौथी बार भी बच जाओगे?

हा हा हा हा... मर जाएंगे इससे ज्यादा कुछ नहीं न होगा? जब तक जिन्दा रहेंगे दर्द का आनंद लेंगे। होशोहवाश में अपनी डाल काटने का आनंद ही कुछ और है, कम से कम इसमें पता तो रहता है, गिरेंगे और चोट लगेगी। आजकल जिसे देखो वही अपने पैरों में कुल्हाड़ी चला रहा है, जिस डाल में बैठा है उसी को काट रहा है, गिरता है तो चिल्लाता है, धोखा -धोखा! मैं तो पूरे होश में काट रहा हूँ। चोट भी मुझे ही लगेगी, दर्द भी मुझे ही होगा, उनकी तरह शैतान तो नहीं हूँ न जो पूरा जंगल काट रहे हैं? तुम बताओ, क्या अब किसी नदी का जल पी सकते हो? हवा, पानी सब प्रदूषित हो चुका है, क्या यह जिस डाल में बैठे हैं उसे काटना नहीं हुआ? तुम जंगल में क्यों भटक रहे हो? अपने पैरों में कुल्हाड़ी तो तुमने भी मारी है, गिरे तो तुम भी हो, जंगल में नहीं गिरे तो घर में ही गिरे होगे? धोखा तो तुमने भी खाया है, तुम्हारा दर्द तुम्हें जीने नहीं दे रहा इसलिए जंगल में भटक रहे हो। मैं पूरे होश में यह काम कर रहा हूँ, कोई धोखा नहीं, आनंद ही आनंद। मैं मर गया तो यह कुल्हाड़ी तुम उठा लेना, मैं तो चला डाल काटने, "चार!"
....@देवेन्द्र पाण्डेय।

9 comments: