वरिष्ठ साहित्यकार एवं अधिवक्ता श्री प्रसन्न वदन चतुर्वेदी जी के घर एक छोटी मगर यादगार काव्य गोष्ठी का आयोजन हुआ। जिसमें मेरे अलावा सर्वश्री धर्मेन्द्र गुप्त साहिल, केशव शरण, महेन्द्र नाथ अलंकार एवं श्रीमती कंचन लता चतुर्वेदी जी ने प्रतिभाग किया।
वरिष्ठ साहित्यकार एवं अधिवक्ता श्री प्रसन्न वदन चतुर्वेदी जी के घर एक छोटी मगर यादगार काव्य गोष्ठी का आयोजन हुआ। जिसमें मेरे अलावा सर्वश्री धर्मेन्द्र गुप्त साहिल, केशव शरण, महेन्द्र नाथ अलंकार एवं श्रीमती कंचन लता चतुर्वेदी जी ने प्रतिभाग किया।
प्रकाशक हँसने लगे, "मजाक नहीं, ध्यान से सुनिए, कल एक पुस्तक का लोकार्पण है, आपको अध्यक्षता करनी है। गाड़ी आपको ले जाएगी और ले आएगी, चिंता मत कीजिए।"
मैने कहा, "अरे! सभी वरिष्ठ साहित्यकार अत्यधिक व्यस्त हैं क्या? मुझसे बहुत वरिष्ठ साहित्यकार उपलब्ध हैं बनारस में, आपके फोन पर आ भी जाएंगे, मुझे कहाँ फंसाते हैं? कल रविवार है, बच्चों की छुट्टी है, बच्चों का बाहर घूमने का प्रोग्राम है, मुझे बक्श दीजिए।"
प्रकाशक महोदय भी जिद पर अड़े रहे। कहने लगे, "हमने किसी और को फोन नहीं किया है, हम लोगों के लिए आप ही वरिष्ठ हैं। घर में बात करके कन्फर्म कीजिए। आपको आना है।"
अब प्रकाशक मेरे मित्र हैं। उनके पास मेरे व्यंग्य संग्रह की पाण्डुलिपि धरी है। मैं अपनी पुस्तक प्रकाशित कराने की जल्दी में हूँ, नाराज करना भी ठीक नहीं। यही सब सोच रहा था कि फिर उनका फोन आ गया, "मैने आपका नाम फाइनल करके प्रेस में भेज दिया, आ रहे हैं न?" मुझे दबी जुबान से कहना पड़ा, "ठीक है।"
अब मेरी नींद उड़ गई! सोचने लगा, "कहाँ फँस गए! अध्यक्ष से निरीह प्राणी कौन होता है भला! किसी भी आयोजन में संचालक द्वारा सबसे पहले बुलाकर, सबके सामने, आसन के बीच में बिठा दिया जाता है। बिठाने के बाद संचालक की ऑंखें ऐसे चमकती हैं मानो सबसे कह रहा हो, "देख लो! आज का उल्लू यही है! माँ सरस्वती की तस्वीर के आगे दीप जलाना, माला पहनाना और पुष्प अर्पित करना तो अच्छा लगता है लेकिन उसके बाद बैठकर दो घण्टे के आयोजन को 5 घण्टे के बाद भी खतम न होते देखकर मन ही मन खूब कलपता है। बस दस मिनट, दस मिनट कहते घंटों बीत जाते हैं और वह हाथों को मलने के सिवा कुछ नहीं कर सकता। अब किससे कहे कि दस मिनट के लिए तुम अध्यक्ष बन जाओ। आयोजक कहेगा, "अच्छा मजाक है, पूरे कार्यक्रम की अध्यक्षता आपने की अब दस मिनट के लिए दूसरा अध्यक्ष कहाँ से लांय? कौन तैयार होगा? "
मैं सोचने लगा कि आखिर मुझमे क्या योग्यता है कि मुझे अध्यक्ष बनाया गया? मुझसे वरिष्ठ साहित्यकार और कई पुस्तकों के लेखक बनारस में सहज उपलब्ध हैं। सहज इसलिए की उनकी संख्या बहुत है। कोई न कोई तो मिल ही जाता। प्रखर वक्ता भी मैं नहीं हूँ। बैठे-बैठे पुस्तक पलट कर एक घण्टे भाषण दे सकूँ। इतना शाहखर्च भी नहीं हूँ कि संस्था के लिए 100 रुपिए की रसीद काट सकूँ। ऐसी कोई ख्याति भी नहीं कि मेरे आने की खबर सुनकर श्रोता बढ़ जाएंगे। आखिर मुझे अध्यक्ष बनाया क्यों गया? यही सब सोंचते-सोंचते कब आँख लग गई पता ही नहीं चला।
सुबह प्रातः भ्रमण के समय पार्क के अपने उल्लुओं को गरदन घुमाए अकड़ कर बैठे देखा तो अचानक ही मुँह से निकल गया, "इतना अकड़ क्यों दिखा रहे हो? कहीं के अध्यक्ष बना दिए गए हो?" उल्लुओं ने तो कुछ नहीं कहा लेकिन मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर मिल गया। मुझे पता चल गया कि मुझे अध्यक्ष क्यों बनाया गया है? दरअसल जो मुझमे अवगुण हैं, वही मेरी योग्यता है।
पुस्तक के लोकार्पण समारोह में जो बहुत ज्ञानी होता है उसे प्रखर वक्ता बनाया जाता है। उसे पुस्तक दो दिन पहले इस अनुरोध के साथ उपलब्ध करा दी जाती है कि आपको इस पुस्तक के लोकार्पण में बोलना है। या वह इतना ज्ञानी होता है कि वहीं बैठकर, पुस्तक के कुछ पन्ने पलट कर तब तक माइक पर बोलता रहता है, जब तक संचालक इशारे से बैठने का अनुरोध न करे।
मुख्य अतिथि या वरिष्ठ अतिथि वह बन सकता है जिसका समारोह से कोई स्वार्थ हो या वह संस्था का आर्थिक भला चाहता हो। वह इतना आदरणीय भी हो सकता है जिसको देखकर ही मन में आदर का भाव जगे और चरण वंदन का मन करे। जिसके आने की खबर सुनकर समारोह में चार चाँद लग जाय।
पूरे समारोह में उल्लू की तरह अकड़ के बैठने के सिवा अध्यक्ष का क्या काम? अंत तक सबको सुने और सौभाग्य से जब कार्यक्रम का वास्तविक अंत आए तो उसका नाम बुलाया जाय। सभी नवोदित या वरिष्ठ कवियों को ध्यान से सुनने के बाद सभी की प्रशंसा करते हुए बधाई देना और इतनी शुभकामनाएँ देना कि कवि बैठे-बैठे उड़कर चाँद में पहुँच जाय। आने वाले सभी श्रोताओं को धन्यवाद देते हुए उनके धैर्य की भी प्रशंसा करना कि जो कार्यक्रम छोड़ कर बीच में चले गए उनका बचाव करते हुए कहना कि उनको किसी आवश्यक कार्य से जाना पड़ा लेकिन आप अंत तक डटे रहे इसकी जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है। इससे ज्यादा बोले तो हो सकता है श्रोताओं में वही शेष बचे जिसकी पुस्तक का लोकार्पण होना है। अध्यक्ष को अधिक बोलने वाला नहीं होना चाहिए, सबसे अच्छा अध्यक्ष वही होता है जिसे धन्यवाद के सिवा कुछ बोलने आता ही न हो। उल्लुओं को देखकर मुझे पक्का विश्वास हो गया कि इसी गुण को देखकर मुझे अध्यक्ष बनाया गया है। ये उल्लू सुनते सबकी हैं,पर कभी बोलते नहीं हैं।
.....@देवेन्द्र पाण्डेय।
पोस्ट 2 से आगे....
उल्लू प्रेम निस्वार्थ होते हुए भी मोह जगाता है। जबसे पढ़ा है छोटे उल्लुओं की उम्र 2 से 4 वर्ष होती है, इनसे बिछड़ने की आशंका होती है। प्रातः उद्यान में प्रवेश करते ही इन्हें देखने की इच्छा होती है।
आज दशहरा है। मित्रों ने वाट्सएप में नीलकंठ की तस्वीरें भेजी हैं। ऐसा माना जाता है कि नीलकंठ पंछी के दर्शन शुभ होते हैं। नीलकंठ को साक्षात भोलेनाथ का अवतार माना जाता है। रावण से युद्ध के लिए जाते हुए भगवान राम को नीलकंठ के दर्शन हुए थे मतलब इस पंछी का दर्शन विजय का प्रतीक है। इतना ही नहीं यह भी माना जाता है कि नीलकंठ के दर्शन मात्र से धन की प्राप्ति होती है।
आजकल खुद वन-वन, बाग-बाग, ताल-तलइया घूमना तो होता नहीं, वाट्सएप खोलो और धड़ाधड़ नीलकंठ की तस्वीरें मित्रों को फॉरवर्ड करो! यदि वास्तव में नीलकंठ की तस्वीर देखना इतना लाभकारी होता तो यह भी पंछी की तरह दुर्लभ हो जाता। जिसे मिलता वह तस्वीर मढ़ा कर सात तालों में सुरक्षित रखता और रोज सुबह उठकर दरवाजा बन्द कर, अकेले तस्वीर निहारता रहता। यहाँ तो "हर्रे लगे न फिटकिरी, रंग भी चोखा होय!" वाला हाल है। मित्रों को मुफ्त में बताना है कि हम कितना तुम्हारा भला चाहते हैं। हकीकत में तो लोग 100 रुपिया मित्र पर खर्च करने से पहले सौ बार सोचते हैं, यह 100 रुपए की कृपा पाने लायक मित्र है भी कि नहीं? कहीं मेरा रुपिया व्यर्थ तो नहीं खर्च हो रहा है?
आज वन विभाग से सटे धमेख स्तूप पार्क में घूमते समय नीलकंठ तो नहीं, अनुज को एक नया उल्लू दिखा। उसने मुझे बुलाया, "भैया! उल्लू!!!" यह आकार में पहले की तरह छोटा ही था लेकिन दूसरा था। मित्र जान चुके हैं कि मैं उल्लू प्रेमी हूँ इसलिए कहीं उल्लू दिखा तो मुझे बता देते हैं। मैने देखा तो मुझे यह मेरी पुरानी उल्ली की तरह चंचल लगा। मैने सोचा इसका साथी भी कहीं होगा लेकिन खूब ढूंढने के बाद भी नहीं दिखा। इसे देख मुझे इस बात की खुशी हुई कि सारनाथ की धरती से जहाँ भगवान बुद्ध ने सबको उल्लू से बुद्धिमान बनाने का प्रयास किया, पूरी तरह सफल नहीं हुआ है। अभी भी उपदेश स्थली में बहुत से उल्लू रहते हैं। जब प्रथम उपदेश स्थली सारनाथ में इतने उल्लू हैं तो हमारे देश में कितने होंगे! जब हमारे देश में इतने उल्लू हैं तो विश्व में कितने होंगे!!! नहीं, नहीं खाली अमेरिका और ट्रम्प को याद मत कीजिए, हर देश, हर शहर क्या हर शाख में उल्लू बैठे हैं। ऐसे ही विश्व का माहौल खराब नहीं चल रहा। कुछ और नीलकंठ पैदा हों, कुछ और सिद्धार्थ बुद्ध बनें तो विश्व का कल्याण हो।
......
आज बारिश हो रही है। कल से बारिश हो रही है। आज जब नींद खुली तो देखा, बारिश हो रही थी। कल शाम, सोने से पहले देखा था, बारिश हो रही थी। कल सुबह पार्क घूमकर, उल्लू देखकर आए, बारिश नहीं हो रही थी। कल दिन हुआ ही नहीं, बारिश शुरू हो गई। आज सुबह हुई है लेकिन दिन की संभावना नहीं दिखती। कभी टिप-टिप, टिप-टिप, टपकतीं हैं बूंदें, कभी झर-झर, झर-झर झरती हैं बूंदें।
मैं आज उल्लू देखने नहीं गया। बारिश ने मुझे उल्लू बनाकर घर के दरवाजे के भीतर, झूले में बिठा रक्खा है। आँगन के सब पेड़ पौधे मुझे ही देख रहे हैं। अमरुद, अशोक, नीबू की शाखें तो लचक मटक कर देख ही रही हैं, गमले के सभी पौधे मुझे ही देख रहे और हँस रहे हैं। कह रहे होंगे, "आज यह उल्लू देखने नहीं जा पाया, खुद ही उल्लू बना बैठा है।"
बारिश में भीग रहा होगा उल्लू का जोड़ा। कोटर में दुबक गया होगा या किसी शाख के बीच में सटा/चिपका पत्तों से बूँद-बूँद टपकते पानी का मजा ले रहा होगा, कह नहीं सकते। यहाँ तो पंछी सब दुबके पड़े हैं, दिख नहीं रहे। कभी-कभी एक गिल्लू तना पकड़ ऊपर नीचे कर रही है।
मेरे घर में श्री विनोद कुमार शुक्ल के काल्पनिक घर की तरह दीवार में एक खिड़की नहीं रहती। आज इस मौसम में उस खिड़की की बहुत याद आ रही है। होती तो कूदकर बाहर चला जाता जहाँ तालाब किनारे खिली-खिली धूप बिछी होती। बुढ़िया दादी गरम चाय लेकर आतीं और कहतीं, "पहले चाय पीलो, ठण्डी हो जाएगी, फिर नहाना।" दादी की बात सुनकर मेरे उल्लू हँसने लगते और आपस में दुबक जाते। हाय! मेरे घर के किसी दीवार में ऐसी एक भी खिड़की नहीं है। 🤔
.........
आज उल्ली अपने कोटर में अकेले बैठे मिली। उसका साथी उल्लू नहीं दिखा। कहीं शिकार में गया होगा या उल्ली से झगड़कर ऊपर शाख में पत्तों के बीच छुप गया होगा। उल्ली से बहुत बात करने का प्रयास किए लेकिन वह समझ गई लगी कि यह आदमी किसी काम का नहीं है। प्रकाशक ने हमें उल्लू बनाया तो यह मजे ले रहा है। आजकल दोस्त ऐसे ही होते हैं, अपना दर्द सुनाओ तो थोड़ी सहानुभूति प्रकट करेंगे लेकिन बहुत दिनों तक चटखारे लेकर मित्र की दुर्दशा का बखान करते हुए मजे लेंगे। प्रकाशक ने उल्लू बनाया और यह वीडियो बना रहा है! बेकार ही इसे अपना दर्द साझा किया।
मुझे उल्ली की बेरुखी से ऐसा ही प्रतीत हुआ। यह मेरा 'चोर की दाढ़ी में तिनका' वाला वहम भी हो सकता है। हो सकता है ऐसा कुछ भी न हो। कवि तो ठीक लेकिन उल्ली क्या जाने की वीडियो क्या होता है!
इसे छोड़ आगे बढ़े तो एक दूसरे घने नीम की शाख पर दूसरा उल्लू बैठा था। आकार में थोड़ा बड़ा था लेकिन अकेले था। कुछ दिनों पहले दिखे चंचल उल्ली का साथी लग रहा था। इससे मैने बहुत पूछा कि तुमको उल्लू किसने बनाया? प्रकाशक ने या किसी नेता ने? इसने कुछ नहीं बताया। हो सकता है इसे शासक दल के किसी बड़े नेता ने उल्लू बनाया हो और मुझे नाम बताने से डर रहा हो! कहीं नाम बताया तो मेरा एनकाउंटर न हो जाय!!! कुछ भी हो सकता है। आज इससे पहली मुलाकात थी, कल फिर प्रयास करेंगे। अभी तो यह निरीह जनता की तरह मुझे नेता समझ कर मुझे ही घूर रहा था। 🤔
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क्रमशः
एक दिन साथ प्रातः भ्रमण करने वाले मेरे मित्रों ने मेरी यह हरकत देख ली। उन्होने मुझे वृक्ष से बहुत देर बात करते देखा तो आश्चर्य से पूछने लगे, "पंडित जी! वहाँ का हौ?" मैने उन्हें पूरी बात नहीं बताई कि कवियों के एक जोड़े को प्रकाशक ने उल्लू बना दिया है, बस इतना ही कहा, "वहाँ उल्लू का एक जोड़ा रहता है।" मित्र कवि नहीं, व्यापारी हैं। ऐसी मान्यता है कि सुबह-सुबह उल्लू का दर्शन बड़ा शुभ होता है। उल्लू लक्ष्मी का वाहन होता है। उल्लू दर्शन से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। उनके लिए यह जानना खुशी की खबर थी कि उस नीम के वृक्ष में एक उल्लू का जोड़ा रहता है। सुनते ही वे दौड़ पड़े। सभी ने जोड़े के दर्शन किए और मुझे बहुत धन्यवाद दिया। खुश हो कर बोले, "पंडित जी कई दिनन से माल काटत हउअन, आज राज कs बात पता चलल।"
हमने अपना माथा पीट लिया। जिस लक्ष्मी के चक़्कर में प्रकाशक ने कवियों को उल्लू बनाकर छोड़ दिया, पैसे के आभाव में ये बुद्धिजीवी उल्लू बनकर भटक रहे हैं, उन्हें ही लक्ष्मी का वाहन कहा जा रहा है! यह कैसी विडंबना है, किसी का दुर्भाग्य, किसी का सौभाग्य बन जाता है। कोई मरता है तो किसी की लकड़ी बिकती है। दर्द तो वही महसूस कर सकता है जो दुःख भोगता है। कितना कटु सत्य है!
मित्रों को उल्लुओं का कवि के रूप में या अपनी कविताओं के श्रोता के रूप में परिचय देना व्यर्थ था। एक समस्या यह भी थी कि मेरे कवि मित्र जान जाएंगे कि यहाँ दो उल्लू श्रोता रहते हैं तो वे भी आकर उल्लुओं को कविता सुनाने लगेंगे और सब कवियों से भड़क कर, उल्लू कहीं दूसरे शहर में भाग गए तो मेरा क्या होगा! इतने अच्छे श्रोता फिर कहाँ मिलेंगे? मैने चुप रहना ही अच्छा समझा और उनकी हाँ में हाँ मिलाया, "सही बात है,उल्लू को देखना बड़ा शुभ होता है। आजकल किस्मत से उल्लू मिलते हैं, वरना तो गुरु ही मिलते हैं। वह भी काशी में! जहाँ छोटे गुरु, बड़े गुरु, आश्वासन गुरु, भवकाली गुरु आदि सभी प्रकार के गुरुओं की भरमार है, उल्लुओं का दिखना, किस्मत की बात है।
मुझे उल्लू, चमगादड़ बहुत मिलते हैं। एक बार भोपाल के एकांत पार्क में घूमते हुए भोर में 5 बजे ही पहुँच गया था। चार ईमली में ठहरा हुआ था और एकांत पार्क आवास से एक, दो किमी दूर ही था। घने वृक्षों के कारण पार्क में बहुत अँधेरा था। एक वृक्ष की शाख पर इतने चमगादड़ लटके मिले कि आनंद आ गया। मैने उनसे बात करने का प्रयास किया लेकिन वे भीड़ में थे और बुरी तरह चीख-चिल्ला रहे थे, कोई भाव नहीं दे रहे थे। ऐसा लगा जैसे बड़े अधिकारियों का झुण्ड अँधेरे में अपनी सल्तनत कायम होने का जश्न मना रहा है! सभी अपने साथियों के साथ आमोद प्रमोद में मस्त थे। उनकी अलग दुनियाँ थी, अलग खेल थे। हल्का-हल्का उजाला होने लगा तो इनकी चीख चिल्लाहट कम हुई और मैं मुग्ध भाव से उनकी लीलाएं देखकर अपने आवास वापस आ गया। मुझसे मेरे बेचैन आत्मा ने धीरे कहा,"निशाचरी करेंगे तो उल्लू चमगादड़ नहीं तो क्या हँस दिखेंगे?" मैने आत्मा को समझाया, "सभी प्राणियों से प्रेम करना चाहिए, किसी को कष्ट नहीं दोगे तो कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ेगा। जंगली जानवर कोई मनुष्य थोड़ी न हैं कि पेट भरा होने के बाद भी भविष्य के संग्रह के लिए लूट मचाएंगे।"
एक बार की बात है, जाड़े की भोर में, सारनाथ के इसी म्यूजियम वाले उद्यान में, एक घने नीम वृक्ष की शाख से एक बड़ा सुफेद उल्लू लटका दिखाई दिया! पहले तो अँधेरे में लगा कोई बेचैन आत्मा है लेकिन ध्यान से देखा तो पाया यह एक बड़ा सा सुफेद उल्लू है जो पतंग के मँझे से फँसा, असहाय लटका हुआ है।
नहीं, नहीं, वह कोई कवि नहीं था, सच्ची घटना है, उल्लू ही था। इतना असहाय उल्लू ही हो सकता है। मैने पार्क के साथी कर्मचारियों को फोन लगाया और इस उल्लू को बचाने का आग्रह किया। दो साथी, तत्काल एक लम्बी सीढ़ी लेकर आ गए और उल्लू को नीचे जमीन पर उतार लाये। छूटने के प्रयास में उल्लू ने अपने पूरे शरीर को मँझे से जख्मी कर लिया था और पूरी तरह उलझा हुआ था। पुरातत्व विभाग के दोनो कर्मचारियों ने बहुत मेहनत से उल्लू को मँझे से मुक्त किया, मरहम लगाया और छत में रख दिया। वह इतना लाचार था कि उड़ नहीं सकता था और जमीन पर रखने का मतलब कुत्ते मार देते। छत पर रखकर हम निश्चिन्त हो गए कि अब यह बच जाएगा। हुआ भी यही, कुछ देर बाद वह उड़कर अपनी दुनियाँ में चला गया।
जब उल्लू के इस जोड़े को देखता हूँ तो सभी उल्लू, चमगादड़ याद आते हैं। सभी उल्लू प्रकाशक के मारे नहीं होते, कुछ अपने ही रिश्तेदारों के द्वारा सताए, कुछ हालात के शिकार भी होते हैं। प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी के सताए उल्लुओं को देखकर फिर भी हँसी आती है लेकिन कलेजा काँप जाता है जब अनाथ आश्रम में अपने ही बच्चों के द्वारा सताए लाचार बुजुर्ग, उल्लू की तरह दिन में भी रोते दिखलाई पड़ते हैं।
बहुत दिनों बाद या कहें कई वर्षों बाद एक दिन अचानक घने नीम वृक्ष के कोटर में बैठा उल्लू का यह जोड़ा दिखलाई दिया। इनके यहाँ दिखने की कहानी भी रोचक है। हुआ यूँ कि बगल के नीम वृक्ष पर तोते का एक जोड़ा रहता था। मैं उनसे हमेशा बातें करता। कभी कहता, "गोपी कृष्ण कहो बेटू, गोपी कृष्ण।" तोते बोलते, "टें टें!" कभी कहता, "जय श्री राम " तोते बोलते, "टें टें", अच्छा बोलो, "जय भीम, बुद्धम शरणम गच्छामि, आजादी-आजादी" तोते हर बार बोलते, "टें टें! टें टें! टें टें!" उनके इस व्यवहार से मुझे यह ज्ञान हुआ कि जो तोते वास्तव में आजाद होते हैं वे अपनी ही बोली बोलना पसंद करते हैं! गोपी कृष्ण, जय श्री राम, जय भीम या आजादी-आजादी वाले तोते वे होते हैं जिन्हें पढ़ाया, सिखाया, रटाया जाता है।
एक रात इसी नीम के वृक्ष पर भयानक बिजली गिरी! बिजली इतनी शक्तिशाली थी कि घना वृक्ष दो भागों में बँट गया। एक हिस्सा तो जमीन पर धराशायी हो बिछ गया, दूसरा हिस्सा जड़ें पकड़ कर खड़ा रहा। दूसरी सुबह प्रातः भ्रमण के समय मैने एक हिस्से को धरती पर बिखरा पाया तो देखते ही समझ गया, कल रात इस पर बिजली गिरी है। बीच में तोते के जोड़े का घोंसला या तोते का जोड़ा कहीं नजर नहीं आया। बहुत ढूँढा, कहीं नजर नहीं आया। इसी तोते के जोड़े को ढूंढने के प्रयास में बगल की शाख पर बैठा यह उल्लू का जोड़ा दिख गया!
मैं इनसे वैसे ही बातें करने लगा जैसे तोतों से करता। धीरे-धीरे कई महीने बीत गए, मुझे अब इन उल्लुओं से प्यार हो गया है। जब से यह ज्ञान हुआ है कि ये उल्लू बनने से पहले बुद्धिजीवी कवि थे, एक प्रकाशक ने इन्हें उल्लू बनाया है तो मेरी सहानुभूति इनसे और बढ़ गई है। और जब से महागुरु गूगल ने बताया है कि छोटे उल्लुओं की उम्र 2 से 4 वर्ष होती है, मैं इनसे बिछड़ने की आशंका से दुखी हूँ। इनसे मिले लगभग 2 वर्ष तो हो ही चुके हैं, क्या ये भी गुम हो जाएंगे?
..........
मैं घबरा गया। ये बुद्धिजीवी तो लग रहे थे लेकिन अपनी ही बिरादरी के हैं, यह भयानक बात थी। मैने पूछा, प्रकाशक ने आप लोगों को कैसे उल्लू बनाया? किताब छापी की नहीं?
अब यहाँ विकट समस्या थी। मेरा कहा तो वे झट से समझ लेते थे, उनका कहा पल्ले नहीं पड़ता था। वे मनुष्यों की बोली नहीं बोल पा रहे थे। बुद्धिजीवियों की तरह इशारे करते और अर्थ हमको लगाना पड़ता। मेरे प्रश्न के उत्तर में उन्होने अपनी मुंडी 360° डिग्री अंश में गोल-गोल घुमाई। मुझे लगा वे कह रहे हैं,"प्रकाशक ने हमारी सारी पाण्डुलिपि गोल कर दी, मतलब चुरा लिया! और हमें उल्लू बना दिया।
हमको आश्चर्य हुआ! प्रकाशक पाण्डुलिपि चुराने लगे तो समस्या हो जाएगी!!! मैने जानना चाहा, "बात कैसे बिगड़ी?" लेकिन उनके इशारे पल्ले नहीं पड़ रहे थे। वे भी झुंझला कर उड़ गए और अलग-अलग शाख पर, दूर-दूर बैठ कर मुझे ऐसे घूरने लगे मानो मैं ही मूर्ख हूँ जो उनकी बात नहीं समझ पा रहा। मैने अनुमान लगाते हुए पूछा, "क्या प्रकाशक प्रकाशन के बदले अधिक रुपिया मांग रहा था?" सौदा तय नहीं हुआ? "
वे फुर्र-फुर्र उड़ कर मेरे सामने अपने कोटर में बैठ गए और हौले-हौले मुड़ी हिलाने लगे। मुझे अब उनके दर्द का एहसास हुआ। गुस्से से पूछा, "तो पाण्डुलिपि क्यों छोड़ दी? दूसरा प्रकाशक मिलता। "
इस पर उन्होने बहुत रोनी सूरत बना दी! मुझे लगा कह रहे हैं, "इसी का तो रोना है। पुस्तक भी नहीं छापता, पाण्डुलिपि भी नहीं लौटा रहा है!"
मुझे बहुत दुःख हुआ, "अच्छे भले कवियों को एक लालची प्रकाशक ने उल्लू बना कर इस नीम के वृक्ष में मरने के लिए छोड़ दिया है!" काश इनकी पुस्तक छप जाती और ये पुनः मनुष्य बन पाते।
मैने कई बार प्रकाशक का नाम पूछा, ताकि मिलकर बात समझी, सुलझाई जाय और उल्लूओं का उद्धार किया जाय, वे बता भी रहे थे लेकिन इन बुद्धिजीवियों की भाषा मेरे समझ में आ ही नहीं रही थी! मैं यह भी डर रहा था कि मुझे भी अपनी कविताएँ छपवानी हैं, कहीं प्रकाशक ने मुझे भी उल्लू बना दिया तो मैं क्या करुँगा? इनके जरिए कम से कम दुष्ट की पहचान तो हो जाएगी, ये बचें न बचें हम तो फँसने से बच जाएंगे। इनका दुर्भाग्य था कि ये गलत के चंगुल में फँस गए वरना सभी प्रकाशक तो लेखकों को उल्लू बनाते नहीं होंगे!
जब मेरे से कुछ न हुआ तो मैं रोज सुबह इनके दर्शन करता और हाल चाल लेता। मैं इनके इशारे नहीं समझ पा रहा था लेकिन मेरी हिन्दी ये खूब समझते थे। इसका लाभ उठाकर मैं अपनी नई कविताएँ भी उल्लुओं को सुनाने लगा। उल्लुओं के आँखों में चमक देखता तो लगता इन्हें मेरी कविताएँ अच्छी लग रही हैं, जब इनको अपने पंखों से कान खुजाते पाता तो समझ जाता ये मेरा व्यंग्य नहीं समझ पा रहे हैं! फिर समझाकर सुनाता, तब तक समझाता जब तक ये मुझे देखकर सर नहीं हिलाने लगते।
इस मामले में मैं बहुत खुश किस्मत कवि था जिसे इतने बड़े बुद्धिजीवी, श्रोता के रूप में अनायास प्राप्त हो गए थे! आजकल कवि वैसे भी उल्लू श्रोता चाहते हैं जो उनकी कविता ध्यान से सुने और बिना समझे तारीफ करे, तालियाँ बजाए। इतना ही नहीं, सुने और अपनी कविताएँ सुना भी न पाएं! यह किसी भी नए जमाने के कवि के लिए बड़ी खुशी की बात थी। अपनी कविता सुनाने के लिए ऐसे कवि श्रोता मिल जांय जिनकी कविता भी न सुननी पड़े! कुल मिलाकर मैं बहुत खुश था। प्रत्यक्ष तो ये उल्लू थे लेकिन मैं जानता था कि ये बड़े बुद्धिजीवी कवि हैं जिन्हें एक प्रकाशक ने उल्लू बनाया हुआ है।
क्रमशः ... शेष अगले पोस्ट में।
(1)
सावन
........
गड़गड़-कड़कड़, घन उमड़-घुमड़
टिप् टिप् टिप् टिप् टिप् टिपिर टिपिर
धरती पर बूंदें झरती हैं,
झर झर झर झर, झर झरर झरर।
मन फर फर फर फर उड़ता है
तन रूक-रूक, छुक-छुक चलता है
सावन की रिम झिम बारिश में
दिल धक-धक, धक-धक करता है।
यादों की खिड़की खुलती है
इक सुंदर मैना दिखती है
पांखें फैलाती झटक मटक
तोते से हंसकर मिलती है।
वो लंगड़े आमों की बगिया
वो मीठे जामुन के झालर
वो पेंग बढ़ा नभ को छूना
वो चोली को छूते घाघर।
पर इंद्र धनुष टिकता कब है?
कुछ पल में गुम हो जाता है
आँसू वाले पल मिलते हैं
चलना मुश्किल हो जाता है।
कुछ कीचड़ कीचड़ रूकता है
फिर एक कमल खिल जाता है
कुछ भौंरे गुन गुन करते हैं
दिन तितली सा उड़ जाता है।
.......
(2) पहली बारिश में
......................
शाम अचानक
बड़े शहर की तंग गलियों में बसे
छोटे-छोटे कमरों में रहने वाले
जले भुने घरों ने
जोर की अंगड़ाई ली
दुनियाँ दिखाने वाले जादुई डिब्बे को देखना छोड़
खोल दिये
गली की ओर
हमेशा हिकारत की नज़रों से देखने वाले
बंद खिड़कियों के
दोनो पल्ले
मिट्टी की सोंधी खुशबू ने कराया एहसास
हम धरती के प्राणी हैं !
एक घर के बाहर
खुले में रखे बर्तन
टिपटिपाने लगे
घबड़ाई अम्मा चीखीं...
अरी छोटकी !
बर्तन भींग रहे हैं रे !
मेहनत से मांजे हैं
मैले हो जायेंगे
दौड़!
रख सहेजकर।
बड़की बोली…
मुझे न सही
उसे तो भींगने दो माँ!
पहली बारिश है।
एक घर के बाहर
दोनो हाथों की उंगलियों में
ठहरते मोती
फिसलकर गिर गये सहसा
बाबूजी चीखे....
बल्टी ला रे मनुआँ..
रख बिस्तर पर
छत अभिये चूने लगी
अभी तो
ठीक से
देखा भी नहीं बारिश को
टपकने लगी ससुरी
छाती फाड़कर !
एक घर के बाहर
पापा आये
भींगते-भागते
साइकिल में लटकाये
सब्जी की थैली
और गीला आंटा
दरवज्जा खुलते ही चिल्लाये..
सड़क इतनी जाम की पूछो मत !
बड़े-बड़े गढ्ढे
अंधेरे में
कोई घुस जाय तो पता ही न चले
भगवान का लाख-लाख शुक्र है
बच गये आज तो
पहली बारिश में।
अजी सुनती हो !
तौलिया लाना जरा…..
बिजली चली गई ?
कोई बात नहीं
मौसम ठंडा हो गया है !
…………………………….
(3)
प्रकृति
........
बारिश से पहले
तेज हवा चली थी
झरे थे
कदम्ब के पात,
छोटे-छोटे फल,
दुबक कर छुप गये थे
फर-फर-फर-फर
उड़ रहे परिंदे,
तभी
उमड़-घुमड़ आये
बादल,
झम-झम बरसा
पानी,
मौसम
सुहाना हो गया।
बारिश के बाद
सहमे से खड़े थे
सभी पेड़-पौधे
कोई,किसी से
बात ही नहीं कर रहा था!
सबसे पहले
बुलबुल चहकी,
कोयल ने छेड़ी लम्बी तान,
चीखने लगे
मोर,
कौए ने करी
काँव-काँव
और...
बिछुड़े
साथियों को भुलाकर,
हौले-हौले
हँसने लगीं
सभी पत्तियाँ।
प्रकृति
सब गम भुलाकर जीना सिखाती है।
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बच्चों के हाथों में डोर है।
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कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ
बच्चों के हाथों में डोर है।
शहरों की आबादी जब बढ़ी
खेतों में पत्थर के घर उगे
कमरों में सरसों के फूल हैं
चिड़ियों को उड़ने से डर लगे।
कटने लगी आमों की डालियाँ
पिंजड़े में कोयल है मोर है।
[कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ.....]
प्लास्टिक के पौधे हैं लॉन हैं
अम्बर को छूते मकान हैं
मिटा दे हमें जो इक पल में
ऐसे भी बनते सामान हैं।
उड़ने लगी धरती की चीटियाँ
पंखों में सासों की डोर है।
[कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ.....]
सूरज पकड़ने की कोशिश ने
इंसाँ को पागल ही कर दिया
अपनी ही मुठ्ठी को बंद कर
कहता है धूप को पकड़ लिया।
दिखने लगीं जब अपनी झुर्रियाँ
कहता है ये कोई और है।
[कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ.....]
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