3.3.18

स्वेटर/जैकेट कब उतारोगे बन्धु?

तुम स्वेटर/जैकेट कब उतारोगे बन्धु? अब तो होली भी आ गई! जब तुमने दूसरों की देखा देखी पहनना शुरू किया था तब चउचक ठंड थी। अब तो धूप जलाने लगी है। बुजुर्गों की हर बात को कान नहीं देते। वे तो कहेंगे ही ...यही समय ठंड लगती है! स्वेटर पहन कर, मफलर से कान बांध कर चलो।

सरसों कटने का समय आ गया, गेहूं बड़े हो चले और अभी तक तुमने जैकेट नहीं उतारे! बसंत तुम्हारी चमड़ी को छू भी नहीं पाया क्या! होली भी स्वेटर पहन कर खेलोगे? जैसे दस्ताने उतारे, मफलर उतारे वैसे अब स्वेटर भी उतार कर धुलने को दे दो। महिलाओं से कोई सबक नहीं सीखा!

जाड़े की धूप अब प्यारी नहीं रही, जाड़ा अपनी वेलेंटाइन धूप को साथ ले गया। अब तो वेलेंटाइन के बाद की कड़क धूप तुम्हारे स्वेटर का मजाक उड़ा रही है। इसे अब एक बाल्टी पानी में डुबो दो।

तुम सब्जी खरीदने नहीं जाते! कटहर, नेनुआं और भिंडी पर तुम्हारी निगाहें नहीं पड़ीं? अभी भी गोभी, छिम्मी से चिपके हुए हो! कब तक मटर+पनीर खाओगे बन्धु? अब स्वाद बदलो, नया माल अंदर आने दो। रम का जमाना गया अब ठंड का गम भूल बीयर/व्हिस्की का मजा लो।

तुमने किसानों को नंग धड़ंग खेतों में मेहनत करते नहीं देखा? बच्चों को गंगा जी में गोता लगाते नहीं देखा? जूते मोजे उतारो, चप्पल पहनो बन्धु! बसंत तो गया, फागुन के रंग ढलो। अब स्वेटर/जैकेट उतारो बन्धु!

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04-03-2017) को "होली गयी सिधार" (चर्चा अंक-2899) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. मैं पहले ब्लॉग पर और तुरंत फेसबुक पर डालता हूँ ..आप चाहे तो वैसा करें ..बाद की झंझट से बचने को
    सुझाव मात्र :)

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