खत में गुलाब क्या आया! बिचारे कवि जी की खाट खड़ी, बिस्तरा गोल हो गया। उसने लाख अपने श्री मुख से अपनी श्रीमती को समझाने का प्रयास किया कि आज वेलेंटाइन डे है। फेसबुक में एक प्रेम कविता पोस्ट करी थी। बहुत सी लड़कियों को पसंद आया था। किसी बुढढे कवि मित्र को हृदयाघात लगा है और उसने मारे जलन के जानबूझ कर शरारतन गुलाब भेजा है कि मेरा घर में ही जीना हराम हो जाय लेकिन श्रीमती जी को नहीं यकीन करना था, नहीं किया।
सच सच बताओ ये सोनम कौन है? मैंने तुम्हारी जेब में एक बार सोनम बेवफा है वाला एक दस रुपए का नोट देखा था। कितनी मुश्किल हुई थी उसे चलाकर नंदू बनिया की दुकान से आजवाइन खरीदने में। सब नोट देख कर हंसने लगे थे और मैंने घर आ कर मारे गुस्से के दाल में जीरा के बदले आजवाइन का तड़का दे दिया था। आज कलमुंही ने लिफाफे में गुलाब भेजा है। देखो! लाल स्याही से लिखा है..सोनम।
तुमने खत पढ़ा? क्या लिखा था?
मैंने लाल मिर्चे के साथ उसे आग में झोंक कर आज सुबह ही मुन्ने की नज़र उतारी है। और तो याद नहीं लेकिन बेशर्म ने कविता की दो लाइन लिखी थी..
आन क लागे सोन चिरैया, आपन लागे डाइन!
बिसरल बसंत अब त राजा आयल वेलेंटाइन।
तुम लोगों को अपनी पत्नी डाइन लगती है? दूसरे की सोन चिरैया? आज इस घर में या तुम रहोगे या मैं।
अरे! यह तो बेचैन आत्मा की कविता है। नेट में पूरी कविता मौजूद है। तुम्हें यकीन न हो तो खुद देख सकती हो। यह जरूर उसी का काम है।
कवि जी को खुद को निर्दोष साबित करने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़े। मुश्किल से उनकी भोली भाली श्रीमती जी का गुस्सा शांत हुआ होगा और उनकी खड़ी खाट फिर बिछ पाई।
वेलेंटाइन ने नई पीढ़ी को जितना मौज, बेरोजगारों को जितने रोजगार दिए और घर बसाने में जितना योगदान दिया उतना ही घर उजाड़ने में सहयोगी भूमिका भी अदा करी है। उत्सव धर्मी भारतीयों को भले संत वेलेंटाइन के मानवीय प्रेम की कथा का ज्ञान न हुआ हो प्रेम के इजहार के इस नवीन थ्योरी को अपनाने में वर्ष भर की देरी नहीं करी। यह परंपरा त्योहार की तरह भारत में ऐसे मनाया जाने लगा जैसे पहले से तपे तपाए बुरादे में थोड़ी चिंगारी की जरूरत हो और पूरा ढेर धू धू कर जलने लगे। आग पहले से लगी हो बस थोड़ा नकली घी डाल कर स्वाहा! बोलने की देर हो।
दिल तो हमारा भी धड़कता था और भीगा बदन पहले भी जलता था। हमें नहीं पता था तो बस इतना नहीं पता था कि साल में एक दिन आता है जब हम 'इलू इलू' बोल सकते हैं। यही एक संकोच ने न जाने कितने लड़कों को अपनी वेलेंटाइन के घर जा कर उनके शादी में बरातियों के जूठे पत्तल भी उठाने और लड़की के बाप के सुर में सुर मिला कर 'बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले' गाने पर मजबूर किया। कितने लड़कों ने दुखी मन से राखी बंधवा ली और जीवन भर भाई धर्म का पालन किया। हमारी पीढ़ी के न जाने कितने दंत हीन मसूड़े वाले आज भी यह मानते हैं कि काश! यह त्योहार पहले आया होता।
दरअसल वेलेंटाइन और कुछ नहीं उच्छृंखल होने की सामाजिक मान्यता है। शराब पीने की सामाजिक मान्यता मिल जाय, प्रेम प्रदर्शन करने की सामाजिक मान्यता मिल जाय। लीव इन रिलेशनशिप के नाम पर साथ रहने और सेक्स करने की मान्यता मिल जाय तो फिर और क्या चाहिए? न सामाजिक जिम्मेदारी न और कोई झंझट फिर तो सभी यही कहना चाहेंगे.. जय हो वेलेंटाइन बाबा की।
ब्लॉग पर दर्ज कर देने की अपनी महत्ता है ...फेसबुक क्षणिक है.
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