14.4.23

लोहे का घर 70

जफराबाद से चली है दून। शाम के साढ़े पांच बजना चाहते हैं, धूप का ताप कम नहीं हुआ है, खिड़कियों से किरणें झांक रही हैं। जिस बोगी में बैठा हूं, मेरे अलावा 5 यात्री और हैं। सामने शाहगंज से चढ़े एक प्रौढ़ सज्जन धीरे-धीरे बिस्कुट कुतर रहे हैं। जब सब बिस्कुट कुतर चुके, प्लास्टिक खिड़की से बाहर लोका दिया और पानी की बोतल खोल दी। पानी पीकर खैनी रगड़ रहे हैं। मुझे लिखता देखकर रोज के एक सहयात्री बोर हो कर दूसरे डिब्बे में साथी तलाशते हुए, निकल लिए। उनके जाने से मुझे यह राहत मिली कि आराम से पैर फैलाकर लेट गया। दिनभर बैठने के बाद यात्रा में ऐसे लेटने मिल जाय तो आनंद आना स्वाभाविक है। साइड लोअर में दो यात्री बैठे हैं और साइड अपर बर्थ में एक यात्री लेटे हैं। सामने वाले सज्जन खैनी जमाकर मोबाइल झांक रहे हैं। उन्हें हावड़ा तक जाना है।  सभी बंगाली मतलब रोज के यात्री एक जगह जमा हो चुके हैं। यहां शांति का माहौल है।

ट्रेन एक स्टेशन आगे जलालपुर पहुंच रही है। इस रूट में इसके कई स्टॉपेज हैं। यहां से चली तो आगे बाबतपुर भी रुकेगी। आज किस्मत अच्छी लग रही है, अपने समय से भले लेट हो, ट्रेन यहां से भी चल दी। ऐसे ही चलती रही तो आज की दौड़ जल्दी ही खतम हो जाएगी। 

सुरुज नारायण अभी ताप बनाए हुए हैं। ढलने के मूड में दिख रहे हैं लेकिन अभी ढले नहीं हैं, पियरा गए हैं लेकिन आकाश में दिख रहे हैं। सामने बैठे सज्जन की टी शर्ट पर पड़ रही किरणों के कारण मैं लेटे-लेटे अनुमान लगा रहा हूं। किरणों से आदमी उजला-उजला नजर आ रहा है। उसे इस बात का जरा भी एहसास नहीं कि किरणों की कृपा से वह कितना खिला- खिला दिख रहा है। हम उजले दिख रहे हैं या मलीन यह हमे देखने वाला ही बता सकता है, हम कभी नहीं जान पाते। हमारी कमियां या गुण दूसरा ही बता पाता है, हम तो हमेशा आत्ममुग्ध रहते हैं। 

ट्रेन खालिसपुर में रुकी है। यहां इसे नहीं रुकना चाहिए लेकिन रुक गई तो कोई क्या कर सकता है! अब किरणें गुम हो चुकी हैं लेकिन बाहर अभी उजाला फैला है। सूर्यदेव दिन का सबसे बड़ा अधिकारी होता है, डूबने के बाद भी उसका ताप/उजाला कम होने में समय लगता है। 

ट्रेन यहां से भी चल दी। लोहे का घर ऐसे ही दुःख और खुशी देता रहता है। हमारे जैसे रोज के यात्री न इसके रुकने से बेचैन होते हैं न चलने से खुश। बेचैन इसलिए नहीं होते कि अनचाहे स्टेशन पर रुकना तो इसका रोज का काम है, खुश इसलिए नहीं होते कि क्या पता आगे फिर रूक जाय! घर पहुंचकर इकट्ठे खुश या दुखी होते हैं। एक/दो घंटे में घर पहुंच गए तो खुश, रात हो गई तो दुखी। दुःख भी क्षणिक ही होता है, एक ही वाक्य बोलते हैं, "चलो! आज देर हो गई, सोया जाय, कल फिर चलना है।" 

ट्रेन बनारस पहुंचने से पहले अपने अंतिम स्टेशन बाबतपुर पहुंच रही है। यहां से आगे बढ़े तो हम भी एलर्ट मूड में हो जाएंगे। साइड लोअर में बैठे यात्री ट्रेन को पानी पी कर गाली दे रहे हैं। उनके हिसाब से ट्रेन बहुत लेट हो चुकी है। बोल रहे हैं, "यहां से चले और आगे शिवपुर न रुके, बनारस पहुंचा दे तो बढ़िया है।" हम सोच रहे हैं जैसे जौनपुर इनके दुर्भाग्य और मेरे सौभाग्य से लेट आई और हम पकड़ पाए वैसे शिवपुर रूक जाए तो हम उतर कर भाग भी जाएं। एक ही घटना किसी के लिए सुख और किसी के लिए दुःख का कारण होता है। 'राम नाम सत्य' न हो तो श्मशान की लकड़ी कैसे बिके? ट्रेन चल दी, अब लिखना बंद करता हूं, जय राम जी की।

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