25.4.23

साइकिल की सवारी 8

रोज की तरह आज भी साइकिल उठाकर भोर में घूमने के लिए निकल पड़े। दरवाजे से बाहर आते ही मोबाइल में घड़ी देखी तो सुबह के 4 बजने में अभी 15 मिनट शेष था! यह तो बहुत जल्दी है!!! अभी तो सारनाथ का बुद्ध मन्दिर या धमेख स्तूप पार्क सब बंद होगा। आज छुट्टी भी नहीं है कि दूर चला जाय लेकिन घर से निकल लिए तो फिर लौटना मतलब घर जा कर सो जाना, नींद आ गई, तो गए काम से, घूमना भी नहीं हो पाएगा। इसी उधेड़बुन में लगे रहे और मन ही मन तय किया कि गंगाजी चलते हैं, जो होगा देखा जाएगा। कभी अपना लिखा याद आया...

सड़क पर घूमते पहिये, गगन में चाँद तारे थे
सुबह जब घूमने निकले, परिंदे भोर वाले थे।

सड़क पर कुछ कुछ घूमते पहिए और चांद तारों का साथ लेकर 4,5 कि.मी. कम रोशनी में साइकिल चलाते रहे, कुत्तों के झुण्ड भौंकते हुए आते और साइकिल वाला देखकर लौट जाते। मुझे लगा शायद इन आवारा कुत्तों को साइकिल वालों से प्रेम होता है, अंधेरे में बाइक वालों या कार वालों पर अधिक गुस्साते हैं और भौंकते हुए पीछा करते हैं, साइकिल वाले को कैसे छोड़े जा रहे है! आवारा कुत्तों को साइकिल वालों से इतना प्रेम क्यों होता है? यह शोध का विषय है।

सारनाथ से नमो घाट जाने के कई मार्ग हैं। एक रास्ता गांव- गांव घूमते हुए, पंचकोशी मार्ग से कपिलधारा, सराय मोहाना, वरुणा-गंगा के संगम तट, आदि केशव घाट, बसंता कॉलेज होते हुए जाता है, एक आशापुर से सीधे कज्जाकपुरा रेलवे क्रासिंग होते हुए जाता है, एक पांडेयपुर, चौकाघाट होते ही राजघाट की ओर मुड़ता है और चौथा नख्खी घाट होते हुए, वरुणा पुल पार करता है। अंधेरा होने के कारण गांव वाले रास्ते को छोड़ दिया हालांकि अधिक दूर होते हुए भी वह रमणीक और शहर के कोलाहल से दूर शांत मार्ग है। पांडेयपुर, चौकाघाट वाला मार्ग कार से जाने के लिए अच्छा है, साइकिल से जाने के लिए दूर भी है और शहरी प्रदूषण वाला भी। कज्जाकपुर क्रासिंग वाले मार्ग में ओवरब्रिज निर्माण का कार्य प्रगति पर है इसलिए उससे भी जाना असंभव था। अब एक ही नजदीक वाला मार्ग बचा 'नख्खी घाट',  हमने चलते-चलते उधर ही साइकिल मोड़ दी।

कुत्तों से डरते/बचते हुए जब नख्खी घाट रेलवे क्रासिंग के पास पहुंचे तो दिमाग घूम गया। न केवल रेलवे क्रासिंग बंद थी बल्कि यहां भी निर्माण का कार्य चल रहा था, क्रासिंग खुलने की कोई संभावना नहीं थी! सबको पहले से पता होगा इसलिए लोग भी कम थे, कोई भीड़ नहीं थी। मायूस होकर सोचने लगा, "अब क्या किया जाय, लौट चला जाय?" तभी आशा कि एक किरण दिखाई दी! एक ग्रामीण बंद रेलवे, क्रासिंग के नीचे से साइकिल निकालकर कुछ दूर पटरी-पटरी जा रहा था! मैने तत्काल उनका अनुसरण किया, साइकिल झुकाकर मैं भी पटरी- पटरी चलने लगा। आगे साइकिल लाइन पारकर, रेलवे क्रासिंग भी पार करते हुए, सड़क पार कर चुकी थी। न किसी ने रोका न टोका! हम मुख्य सड़क पर आ चुके थे। रास्ते में आई बाधा ग्रामीण की प्रेरणा से दूर हो चुकी थी। यहां से वाराणसी सिटी स्टेशन पार करते हुए हम तेजी से राजघाट की ओर बढ़ चले।

राजघाट के बगल में ही नमो घाट है। नमो घाट पहुंचकर जब पार्किंग में साइकिल खड़ी की, सुबह के 5 बजने में अभी 15 मिनट बाकी थे और भोर का उजाला हो रहा था। राजघाट पुल की बत्तियां जल रही थीं, इक्का दुक्का प्रातः भ्रमण वाले स्थानीय नागरिक आने शुरू ही हुए थे। नमो घाट, नया और खूबसूरत घाट है। एक चक्कर लगाने के बाद राजघाट पुल के नीचे घाट की सीढ़ियां उतरते चले गए और जहां से नाव पकड़ने के लिए घाट किनारे पानी में न डूबने वाले पीपे के चौकोर चकत्ते लगे हैं, वहीं पूर्व दिशा की ओर मुंह करके, पलेठी मारकर, इत्मीनान से बैठ गया। मन ही मन बोला,"आइए सूर्यदेव! आज हम आपके स्वागत के लिए बिलकुल सही समय पर तशरीफ रख चुके हैं।"

सूर्यदेव अपने समय पर निकले और हम अपलक सूर्योदय का दर्शन करते रहे। मोबाइल से खूब तस्वीरें खींची, वीडियो बनाए और सेल्फी भी ली। घर से, स्नान की तैयारी से निकले ही नहीं थे, स्नान होना भी नहीं था लेकिन मां गंगा की गोद में, ध्यान और देव दर्शन दोनो हो गया। गंगा किनारे जन्म होने और जवान होने तक का संबंध हो या कुछ और गंगा तट पर आज भी थोड़ी देर के लिए बैठने या घाट घूमने का सौभाग्य मिल जाता है तो मन अतिरिक्त ऊर्जा से भर जाता है। गंगा तट पर मन उदास हो, ऐसा नहीं हुआ।

आजकल सूर्यदेव कुछ समय के लिए ही मोहक लगते हैं, ज्यों- ज्यों समय बीतता जाता है, सर पर सवार हो, आग उगलने लगते हैं। यही सोचकर सूर्यदेव को नमस्कार किया और लौट चला। घाट की सीढ़ियां चढ़कर जैसे ही पुनः नमो घाट पहुंचा, अजय बाबू (नींबू की चाय वाले) ने आवाज लगाई, "आज यहां कैसे? आज तो मंगलवार है!" अजय बाबू जानते हैं कि मैं दूर से आता हूं और छुट्टी के दिन के सिवा नहीं आ सकता। मैने उन्हे हाथ से अभी आने का वादा किया और घाट के एक चक्कर लगाने लगा। अब घूमने का शौक नहीं बचा था लेकिन डर था कि सूर्यदेव और ऊपर चढ़ गए तो मोबाइल से उनकी तस्वीरें उतारना संभव नहीं।

एक चक्कर घूम कर सूर्यदेव की खूब तस्वीरें लीं, जहां पर तीन हाथ जोड़ने वाली मुद्रा में पक्की मूर्तियां बनीं हैं, उसी के सामने ला कर रखे, बालू के ढेर पर कलाकारों ने हाथ जोड़ने वाली मूर्तियों की नकल करते हुए बालू पर खूबसूरत कलाकारी कर रखी है और उस पर लिखा है, G 20 मैने उसकी भी तस्वीरें लीं और घूमते हुए अजय बाबू के पास वापस आ कर, वहीं बने एक चबूतरे पर बैठकर, नींबू की चाय सुड़कते हुए, सूर्यदेव, गंगा जी और घाटों की सुंदरता को हृदय से लगाने लगा।

मोबाइल में घड़ी देखी, सुबह के 6 बज चुके थे, आज ऑफिस भी जाना है, अब रुकने का समय शेष नहीं था। समय हो तब भी सूर्योदय के बाद जाड़े की तरह घाटों में अधिक देर घाट- घाट नहीं घूमा जा सकता, साइकिल निकाली और पैदल ही चल दिया। दरअसल नमो घाट से मुख्यमार्ग तक पहुंचने के लिए लगभग 100 मीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है, उतरते समय तो मजा आता है लेकीन चढ़ते समय, साइकिल चलाकर नहीं चढ़ा जा सकता। जैसे सुख के दिन ढलान की तरह कब खतम हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता और दुःख के दिन मेहनत से काटने पड़ते हैं वैसे ही हमने मुश्किल से साइकिल चढ़ाई और मुख्य मार्ग पर पहुंचकर बसंत महिला महाविद्यालय वाला, गांव-गांव जाने वाला रास्ता पकड़ा। अब सुबह हो चुकी थी, इस मार्ग से जाना अच्छा था, यह शहर के कोलाहल और प्रदूषण से मुक्त मार्ग है।

देर हो रही थी इसलिए रास्ते में पड़ने वाले जिंदा कुआं (अमृतकुंड) की तरफ देखा भी नहीं, आदिकेशव घाट के पास बने पुल को पार करते हुए, गंगा वरुणा के संगम तट पर एक निगाह दौड़ाई और चलता चला गया लेकिन  पुलिया तक पहुंचते पहुंचते शरीर ने जवाब दे दिया। पुलिया पर बैठकर वहीं आराम करने लगा, पुलिया में मेरे अलावा कोई नहीं था,  पिछली साइकिल की सवारी में जो लोग मिले थे, पुलिया में उनसे से भी कोई नहीं आया था। कुछ समय थकान मिटाने  और दो कुत्तों की दोस्ती देखने के बाद वहां से चला तो रास्ते में नेपाली टोपी पहने, पुलिया की ओर आ रहे श्री खम बहादुर सिंह' दिख गए। मेरे पास समय नहीं था इसलिए रुका नहीं, केवल हाथ उठाकर 'जय नेपाल' किया, उन्होंने भी मुझे देखा और पहचान कर/ खुश होकर 'जय नेपाल' बोला। मेरे लिए यही बड़ी बात थी। एक बार दस मिनट की पुलिया पर बैठकर होने वाली बातचीत के बाद कोई आदमी आपको राह चलते पहचान ले तो यह खुशी की बात है! शायद स्वाभाविक प्राणी प्रेम है। यहां से आगे बढ़ने के बाद घर पहुंचकर ही दम लिया। अभी बहुत देर नहीं हुई थी, घड़ी में सुबह के सात बजे थे, अभी ऑफिस जाने के लिए शरीर में ताकत कम थी लेकिन घड़ी में बहुत समय बाकी था।
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