आज रविवार है। कविता पोस्ट करने का दिन। पिछली कविता नारी क्रंदन को जो स्नेह मिला इसके लिए मैं सभी का आभारी हूँ। आज जो कविता पोस्ट करने जा रहा हूँ वह इसके पूर्व हिन्द युग्म में प्रकाशित हो चुकी है । इसकी आलोचना भी हुई है लेकित मुझे इतनी प्रिय है कि इसे मैं अपने ब्लाग पर प्रकाशित करने का मोह नहीं छोड़ पा रहा हूँ। मुझे लगा कि बेचैन आत्मा के जन्म के बाद मुझे पाठकों का एक नया समूह मिला है जिन्हें यह कविता अवश्य पढ़ाई जानी जानी चाहिए। प्रस्तुत है कविता जिसका शीर्षक है-चिड़िया।
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चिड़ि़या उडी
उसके पीछे दूसरी चिड़िया उड़ी
उसके पीछे तीसरी चिड़िया उड़ी
उसके पीछे चौथी चिड़िया उड़ी
और देखते ही देखते पूरा गांव कौआ हो गया।
कौआ करे कांव-कांव ।
जाग गया पूरा गांव ।
जाग गया तो जान गया
जान गया तो मान गया
कि जो स्थिति कल थी वह आज नहीं है
अब चिड़िया पढ़-लिख चुकी हैं
किसी के आसरे की मोहताज नहीं है ।
अब आप नहीं कैद कर सकते इन्हें किसी पिंजडे़ में
ये सीख चुकी हैं उड़ने की कला
जान चुकी हैं तोड़ना रिश्तों के जाल
अब नहीं फंसा सकता इन्हें कोई बहेलिया
प्रेम के झूठे दाने फेंक कर
ये समझ चुकी हैं बहेलिये की हर इक चाल
कैद हैं तो सिर्फ इसलिये कि प्यार करती हैं तुमसे ।
तुम इसे
इनकी नादानी समझने की भूल मत करना ।
इन्हें बढ़ने दो,
इन्हें पढ़ने दो,
इन्हें उड़ने दो,
इन्हें जानने दो हर उस बात को जिन्हें जानने का इन्हें पूरा हक़ है ।
ये जानना चाहती हैं
कि क्यों समझा जाता है इन्हें 'पराया धन' ?
क्यों होती हैं ये पिता के घर में 'मेहमान' ?
क्यों करते हैं पिता 'कन्या दान' ?
क्यों अपने ही घर की दहलीज़ पर दस्तक के लिए
मांगी जाती है 'दहेज' ?
क्यों करते हैं लोग इन्हें अपनाने से 'परहेज' ?
इन्हें जानने दो हर उस बात को
जिन्हें जानने का इन्हे पूरा हक है ।
रोकना चाहते हो,
बांधना चाहते हो,
पाना चाहते हो,
कौओं की तरह चीखना नहीं,
चिड़ियों की तरह चहचहाना चाहते हो....
तो सिर्फ एक काम करो
इन्हें प्यार करो।
इतना प्यार करो कि ये जान जायँ
कि तुम इनसे प्यार करते हो !
फिर देखना...
तुम्हारा गांव, तुम्हारा घर, तुम्हारा आंगन,
खुशियों से चहचहा उठेगा।