छोटे गुरु का, बड़े गुरु का, नाग लो! भाई, नाग लो। नागपंचमी के दिन, इसी नारे के शोर से, हम बच्चों की नींद टूटती। ऊँघते, आँखें मलते, घर के बरामदे में खड़े हो, नीचे झाँकते.. गली के चबूतरे पर कुछ किशोर, नाना प्रकार के नागों की तस्वीरों की दुकान सजाए बैठे हैं! मन ललचता, तब तक दूसरे बच्चों का एक झुण्ड, घर के किवाड़ खटखटाता और द्वार खुलते ही धड़धड़ा कर, घर की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए, ऊपर बैठके के बाहर खड़ा हो जाता! पिताजी तैयार रहते। कुछ सिक्के निकाल कर बच्चों को देते। वे पैर छू कर, पैसे मुठ्ठी में पकड़े, जोर-शोर से नीचे उतरते, चले जाते। गली में आकर फिर नारा लगाते...छोटे गुरु का, बड़े गुरु का, नाग लो! भाई, नाग लो।
माँ, नाग की तस्वीरें, घर के दरवाजों पर, गाय के गोबर से चिपकातीं, नाग देवता की पूजा करतीं, खीर-पूड़ी पकातीं और हम बच्चे नहा धो कर प्रेम से खाते।
हमारा मन भी करता था लेकिन हम ब्राह्मण के बच्चे थे। हमें नाग बेचने और घर-घर घूमकर पैसे इकठ्ठे करने का अधिकार नहीं था। यह अलग बात है कि पिताजी से नजरें बचा कर, यादवों/मल्लाहों के बच्चों के झुण्ड में शामिल हो, हमने भी नारे लगाए थे...छोटे गुरु का, बड़े गुरु का, नाग लो! भाई, नाग लो।
सुबह से शाम तक बीन बजाते, सपेरे आते। उनकी पेटियों में कई प्रकार के सर्प होते। फन वाले, बिना फन वाले, काले, भूरे, गेहुएँ, एक मुँह वाले और दो मुँह वाले भी! गली के घरों से निकल, माँएं, सांपों को दूध पिलातीं, धान का लावा चढ़ातीं, पैसे चढ़ातीं। सपेरे भी खुश, माँ भी खुश और हम बच्चे भी खुश। बड़े खुशनुमा माहौल से शुरू होता था, नागपंचमी का त्योहार।
बनारस की तंग गलियों के बीच तिराहों में, जहाँ चौड़ी जगह मिलती, जगह, जगह, महुवर खेले जाते। महुवर देखने के लिए भारी भीड़ जुटती। घरों की छतों, बरामदे की खिड़कियों यहाँ तक कि छज्जों पर खड़े होकर भी लोग महुवर देखते।
एक मदारी एक हाथ में धरती से थोड़ी धूल उठाता और मंत्र पढ़ते हुए, होठों को हिलाते/बुदबुदाते हुए, दूसरे मदारी के चारों ओर गोल-गोल घूमता। दूसरा मदारी बड़े जोश और दर्प के साथ, दोनों गाल गुब्बारे की तरह फुलाते/पचकाते हुए, बीन बजाता। बड़े बाँके अंदाज में, घनी जटाओं को, कभी इधर, कभी उधर, दोनो कंधों पर झटकता। मंत्र पढ़ने वाला मदारी भयानक मुँह बनाए, लाल-लाल आंखों से बीन बजाने वाले को घूरता, गोल-गोल घूम कर पीछा करता और अचानक, पूरी शक्ति से, जमीन से उठाए धूल के कण दूसरे मदारी को एक हाथ लहराते हुए मारता।
अरे! यह क्या!!! बीन बजाने वाले की बीन बजनी कैसे रुक गई? उसके मुँह से तो खून भी निकल रहा है! बीन मुँह में अटक गया है!!! निकालने का प्रयास करता है, निकाल ही नहीं पा रहा। चारों ओर गोल-गोल खड़ी भीड़ शोर मचाती..मर गयल रे! अब मर जाई। खून फेंकता हौ..!!!
यही क्रम दिनभर चलता रहता। कभी एक मदारी गिर कर तड़पता कभी दूसरा मदारी। खेल इतना जीवंत होता कि अमिताभ बच्चन या दिलीप कुमार भी फेल। एकदम सच्चे लगते, मदारियों के घात/प्रतिघात। हम बच्चे, कभी उधर, कभी इधर, मीलों दौड़ते/भागते रहते गलियों में। कभी सुनते वहाँ का महुवर बढ़िया है, कभी सुनते वहाँ का तो और भी बढ़िया है!
दिन ढलने के बाद भी खतम नहीं होता था बनारस में नागपंचमी का उत्सव। शाम होते-होते, जमा होने लगते थे पहलवान अखाड़ों में। बच्चों/किशोरों/युवाओं के डंबल, क्लब, जिम्नास्टिक और मलखम्भ के करतब तो होते ही, बड़े पहलवान भी कुश्ती, जोड़ी या गदा घुमाने की प्रतियोगिताओं में भाग लेते।
कब सुबह होती और कब शाम ढल जाती, पता ही नहीं चलता। घर से खाना खा कर निकले या दोस्तों को बुलाने गए और समझदार माताओं ने जबरी बिठाकर खाना खिला दिया तो ठीक वरना भूखे प्यासे पागलों की तरह दौड़ते/भगते कब बीत जाता, पता ही नहीं चलता था, नागपंचमी का त्योहार।
कल रात, फेसबुक चलाते हुए किसी पोस्ट से पता चला कि आज नागपंचमी है! आज घर के बाहर, घर में भी, घोर सन्नाटा है मगर सुबह से कानों में गूँज रहा है बस एक ही नारा....छोटे गुरु का, बड़े गुरु का, नाग लो! भाई, नाग लो।