मेरी पलकों से पहले
खुलती हैं
तुम्हारी पलकें
उठकर देखता हूँ
फेंक चुके हो
अंधेरे की चादर
गिरा चुके हो
लाल चोला
मेरे मुँह धोने, खाने-पीने, कपड़े पहनकर काम पर निकलने तक तो
टंच हो
झक्क सफेद धोती-कुर्ता पहन
घोड़े के रथ पर बैठ
दौड़ने लगते हो आकाश में
न जाने कहाँ जाना रहता है तुम्हें !
मियाँ की दौड़ मस्जिद तक
पूरब से निकलते हो
पश्चिम में ओझल हो जाते हो
न नमाज़ी सी सहृदयता न ईश्वर का भय
है तो बस
रावणी अहंकार!
ठहरो!
इतना आग मत उगलो
अभी असाढ़ है
आगे....
सावन, भादों
तुम्हें
कीचड़ में डुबो कर
गेंद की तरह खेलेंगे
गली के बच्चे
मेरे देश में
किसी की तानाशाही
नहीं चलती ।
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