26.1.19

बसंत

ठंड की चादर ओढ़
दाहिने हाथ की अनामिका में
अदृश्य हो जाने वाले राजकुमार की
जादुई अंगूठी पहन कर
चुपके से धरती पर आता है
बसंत
तुमको भला कैसे दिखता?

तुम
रोज की तरह
परेशान हाल
थके मांदे घर आए
तुम्हारी उनींदी पलकों पर
हसीन ख्वाब बनने की प्रतीक्षा में
चुपके से बैठा था
तुमको भला कैसे दिखता?

परेशान न हो
अभी तो
धरती की सुंदरता देख
खुद ही मगन है!
ठंड की चादर हटेगी
छुपन छुपाई खेलते-खेलते
थक कर
बैठ जाएगा एक दिन,
अपने आप
फिसल कर गिर जाएगी
उँगली से
जादुई अंगूठी

तब
दोनो हाथों से पकड़कर
जोर से चीखना..
चोर!
......

21.1.19

खिचड़ी


हमारे देश मे दरवाजा बंद करना कभी सुहागरात की निशानी होती थी, अब स्वच्छता अभियान की पहचान है। इसके लिए आदरणीय अमित सर और दूरदर्शन के शुक्रगुजार हैं। खाना खाते समय टी वी खोलकर दूरदर्शन का समाचार देखने वालों के सामने कभी-कभी बड़ी असहज स्थिति आ जाती है। इधर एक कौर मुँह में डाला नहीं कि अमित जी चीखते हुए चले आते हैं..

झाड़ी के पीछे, पेड़ के नीचे, दबा के आजू, पटरी के बाजू, करते हो तुम पेट हल्का, ना शौचालय, ना है नलका। फैल गई बीमारी चारों ओर, इसीलिए बॉस! शट द डोर!!  दरवाजा बंद करो..दरवाजा बंद। दरवाजा बंद तो बीमारी बन्द। साथ साथ लोटा/बोतल लेकर खेत मे शौच के लिए जा रहे एक-एक व्यक्ति को बुलाकर शौचालय में भेजते हैं और दरवाजा बंद करते हैं।

यह सब देखकर कल सुबह आप फिर खेत मे निपटने जाते हैं या शौचालय में जाकर दरवाजा बंद करते हैं यह तो बाद की बात है फिलवक्त या तो खाना बंद कीजिए या टी.वी बन्द। 

एक जमाना था जब मध्यम वर्गीय परिवार में, घर के किसी सदस्य ने भी, कई बार दरवाजा बंद किया तो बाकी सदस्य यह मान लेते थे कि आज खाने में मूंग के दाल की पतली खिचड़ी ही मिलेगी। अब परिवार हम दो, हमारे दो तक सीमित हुआ।आर्थिक जीवन स्तर में सुधार आया तो यह हुआ कि जो बार-बार दरवाजा बंद करता है, खिचड़ी वही खाए। बाकी लोग क्यों कष्ट सहें?  

आम आदमी के स्टेटस के साथ, खिचड़ी का भी स्तर सुधर गया। अब खिचड़ी मूंग के दाल वाली, पतली न होकर, तरह तरह के मेवा मसाले वाली पकवान हो गई! कई परिवारों में तो हर शनिवार को खिचड़ी ही बनती है। मकर संक्रांति के दिन बनने वाली उड़द की काली दाल वाली खिचड़ी का तो कहना ही क्या! इसे तो इसके यारों के साथ खाया जाता है। लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है.. दही, पापड़, घी, अचार, खिचड़ी के हैं चार यार। 

खिचड़ी भारतीय जीवन में रचा बसा वह पकवान है जिसने कई सामाजिक, राजनैतिक मुहावरे दिए। जब कोई गृहणी खाना देने में देर कर रही हो तो पतिदेव झट से तंज कसते हैं.. बीरबल की खिचड़ी बन रही है! भले उन्हें इसका ज्ञान न हो कि वे जिस बीरबल की खिचड़ी का नाम ले रहे हैं वह खिचड़ी बीरबल ने राजा अकबर को सबक सिखाने के लिए पकाई थी। हुआ यह था कि गरीब गंगाराम दस स्वर्ण मुद्रा के लालच में रात भर ठंडे पानी में खड़ा रहा और राजा ने यह कहकर ईनाम देने से इनकार कर दिया कि उसे दूर जल रहे दिए से गर्मी मिल रही थी! बीरबल ने भी अपने भोजन की हाँडी आग से काफी ऊँचाई पर टांग दी और यह कहा कि जब दिए से गंगाराम को गर्मी मिल सकती है तो आग से ऊँची रखी हाँडी को क्यों नहीं मिलेगी? जब खिचड़ी पकेगी तब दरबार मे आएंगे। अकबर को गलती का एहसास हुआ और उन्होंने गरीब गंगाराम को दस स्वर्ण मुद्राएँ देना स्वीकार किया। तभी से बीरबल की खिचड़ी वाला मुहावरा चलन में आ गया। अब भोजन मिलने में देर हो तो बजाय तंज कसने के पतियों को यह समझना चाहिए कि जरूर उन्होंने अपनी श्रीमती जी से किया कोई वादा पूरा नहीं किया है जिससे खाना देर से पक रहा है। :)

भारत की राजनीति में भी जब किसी एक दल को बहुमत नहीं मिलता और कई पार्टियाँ मिल कर सरकार बनाती हैं तो अखबार वाले झट से यह हेड लाइन लगा देते हैं.. किसी दल को बहुमत नहीं, अब बनेगी खिचड़ी सरकार! मतलब जब देश के विकास का दरवाजा बार-बार बन्द होने लगता है, देश का हाजमा खराब हो जाता है, तब उसे खिचड़ी सरकार से काम चलाना पड़ता है। देश में जब खिचड़ी सरकार बनती है तो उसके चारों यार खूब रँगबाजी करते हैं। काली उड़द की खिचड़ी में दही, पापड़, घी, अचार रंग जमाते हैं तो खिचड़ी सरकार में सरकार नेपथ्य में चली जाती है, यार मौज उड़ाने लगते हैं! देश में पूर्ण बहुमत की सरकार है तो समझना चाहिए कि देश का स्वास्थ्य अच्छा है। खिचड़ी सरकार है मतलब देश बीमार चल रहा है। पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के लिए चाहे जितनी बड़ी हाँडी चढ़ाकर मनो खिचड़ी पकाओ लेकिन यह नौबत न आने दो कि देश को खिचड़ी सरकार मिले। देश अब फिर बीमार हुआ तो स्वस्थ होने में वर्षों लग जाएंगे।
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13.1.19

ये पतंगें

तेरी नीयत
तेरे मंझे
तू ही जाने
मैं साथ रहना चाहता हूँ
इन पतंगों के!
ये पतंगें
बादलों में
धूप लिखना चाहती हैं।

आकाश में
छाई है बदली,
हो रही है
हल्की-फुल्की
बूंदाबांदी
और फिर
बह रही
कातिल हवाएं!
प्रतिकूल हैं
रंग सारे
मगर फिर भी
ये पतंगें
बादलों को चीरकर
किरण लिखना चाहती हैं।

ये पतंगें
बादलों में
धूप लिखना चाहती हैं।

ये पतंगें
हौसलों की बातियाँ हैं,
ये पतंगें
इस धरा की थातियाँ हैं,
ये पतंगें
आग की चिंगारियाँ हैं।
चलो साथी!
साथ दें
इन पतंगों का
ये पतंगें
इस धरा में
सुबह लिखना चाहती हैं।