प्रस्तुत है हास्य व्यंग्य के जनप्रिय कवि स्व0 चकाचक बनारसी की एक कविता। देखिये बसंत को उन्होने कैसे याद किया। काशिका बोली में लिखी कविता का शीर्षक है...
बसंत हौS
जिनगी त जबै मउज में आई बसंत हौS,
मन सब कS एक राग सुनाई बसंत हौS।
खेतिहर जब अपने खून पसीना के जोर से,
सरसो कS फूल जब्बै खिलाई बसंत हौS।
कोयल क कूक अउर पपीहा कS पी कहां,
जब्बै कोई के मन के लुभाई बसंत हौS।
पछुआ के छेड़ छाड़ से कुल पेड़ आम कS,
बउरा के अंग अंग हिलाई बसंत हौS।
भंवरा सनक के, फूल से कलियन से लिपट के,
नाची औ झूम झूम के गाई बसंत हौS।
खेतन में उठल बिरहा कहरवा के टीप पर,
हउवा रहर कS बिछुवा बजाई बसंत हौS।
जड़ई भी अउर साथै पसीना छुटै लगी,
भारी लगै लगी जो रजाई बसंत हौS।
सौ सौ बरस कS पेड़ भी बदलै बदे चोला,
डारी से पात पात गिराई बसंत हौS।
केतनौ रहे नाराज मगर आधी रात के,
जोरू जो आके गोड़ दबाई बसंत हौS।
सूरज कS किरन घूम के धरती पे चकाचक,
जाड़ा के तनी धइके दबाई बसंत हौS।
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