26.2.12

आयो रे बसंत चहुँ ओर



धरती में पात झरे
अम्बर में धूल उड़े

अमवां में झूले लगल बौर
आयो रे बसंत चहुँ ओर.

कोयलिया 'कुहक' करे
मनवां का धीर धरे

चनवां के ताकेला चकोर
आयो रे बसंत चहुँ ओर.

कलियन में मधुप मगन
गलियन में पवन मदन

भोरिए में दुखे पोर-पोर
आयो रे बसंत चहुँ ओर.

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इसका पॉडकास्ट सुनने के लिए यहां क्लिक करें....अर्चना जी का ब्लॉग...मेरे मन की।

21.2.12

ई चकाचक कS बसंत हौS।

प्रस्तुत है  हास्य व्यंग्य के जनप्रिय  कवि स्व0 चकाचक बनारसी की एक कविता। देखिये बसंत को उन्होने कैसे याद किया। काशिका बोली में लिखी कविता का शीर्षक है...

बसंत हौS

जिनगी त जबै मउज में आई बसंत हौS,
मन सब कS एक राग सुनाई बसंत हौS।

खेतिहर जब अपने खून पसीना के जोर से,
सरसो कS फूल जब्बै खिलाई बसंत हौS।

कोयल क कूक अउर पपीहा कS पी कहां,
जब्बै कोई के मन के लुभाई बसंत हौS।

पछुआ के छेड़ छाड़ से कुल पेड़ आम कS,
बउरा के अंग अंग हिलाई बसंत हौS।

भंवरा सनक के, फूल से कलियन से लिपट के,
नाची औ झूम झूम के गाई बसंत हौS।

खेतन में उठल बिरहा कहरवा के टीप पर,
हउवा रहर कS बिछुवा बजाई बसंत हौS।

जड़ई भी अउर साथै पसीना छुटै लगी,
भारी लगै लगी जो रजाई बसंत हौS।

सौ सौ बरस कS पेड़ भी बदलै बदे चोला,
डारी से पात पात गिराई बसंत हौS।

केतनौ रहे नाराज मगर आधी रात के,
जोरू जो आके गोड़ दबाई बसंत हौS।

सूरज कS किरन घूम के धरती पे चकाचक,
जाड़ा के तनी धइके दबाई बसंत हौS।

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18.2.12

ध्रुपद मेला


हर वर्ष वाराणसी के तुलसी घाट पर ध्रुपद मेला लगता है। इस वर्ष 17 फरवरी से 20 फरवरी तक चलने वाले 37 वें मेले का उद्घाटन कल दिनांक 17 फरवरी को हुआ। दुनियाँ भर में प्रसिद्ध इस मेले के लिए रसिकों की टोली हालैंड, जापान, जर्मनी, अमेरिका, कनाडा आदि देशों से वाराणसी आती है।  यह बसंत का बड़ा उत्सव है जो शिवरात्रि के दिन ही समाप्त होता है। उस्ताद वासिफउद्दीन डागर ने  ध्रुपद गायकी से मेले की शुरूआत करी। तानपुरा पर उनके दोनो पुत्रों अनीसुद्दीन डागर व नफीसुद्दीन डागर तथा पखावज पर पं मोहन श्याम शर्मा संगत दे रहे थे। देर रात तक लोग झूमते रहे। 

सच बात तो यह है कि अपन को न राग का पता न सुरों का ज्ञान। अपन तो सुनने से अधिक यह देखने गये थे कि यह विश्व प्रसिद्ध मेला आखिर है क्या बला ? उस्ताद की गायकी का राग यमन (बगल वाले ने बताया कि राग यमन गा रहे हैं )  भले समझ में  न आ रहा हो मगर उनकी जानमारू मेहनत को देख कर मंत्रमुग्ध तो हो ही गया। विदेशियों की भीड़ के द्वारा पिन ड्राप साइलेंस के साथ उनको सुनना एक अलग ही समा बांधे था। मैं बार-बार लोगों का मुखड़ा देखता और यह जानने का प्रयास करता कि वे लोग कैसा महसूस कर रहे हैं। मैं वैसा ही श्रोता था जो किसी महाकवि की कविता के कठिन शब्दों से चमत्कृत हो औरों को ताली बजाते देख ताली बजाते हैं, भले ही कुछ समझ  में नहीं आ रहा हो। एक बात समझ में आ रही थी कि जो गा रहे हैं, वे बड़े गायक हैं और जो सुन रहे हैं वे अच्छे रसिक। रात्रि 12 बजे तक सुर संगीत का आनंद लेता रहा और मेहनत से पूरी बैटरी खत्म कर कई वीडियो बनाया मगर किसी मे आवाज की गड़बड़ी तो कोई एकदम से छोटा। यहां लोड करना भी टेढ़ी खीर। मुश्किल से एक लोड हुआ है देखिए जिससे आपको हल्का फुल्का आइडिया लग ही जायेगा। 

एक मजेदार बात और हुई। जब मैं वीडियो खींच रहा था तभी 'अली सा' का फोन आया। मैने धीरे से कहा..एक संगीत समारोह में हूँ और फोन काट दिया। काटते-काटते भी एक लाइन मेरे कान में गूँजी..कमाल हो गया ! 

देर रात घर आया तो सोचता रहा कि आखिर क्या कमाल हो गया ! क्या मैं संगीत नहीं सुन सकता ? डैशबोर्ड खोला तो वहाँ 'अली सा' की एक ताजा पोस्ट नज़र आई..भला क्या चाहता हूँ मैं ! पढ़ा तो जाना कि वाकई कमाल हो गया ! वे संगीत लिख रहे थे और मैं संगीत देख रहा था। एक ही वक्त दोनो संगीत में डूबे थे और दोनो के मन में एक से ही भाव थे!  कोई संगीत सुन नहीं रहा था! अली सा के संगीत में गहरा दर्शन छुपा है। देखने से ज्यादा उसे पढ़ने और समझने की आवश्यकता है।

संगीत सुनना, उसको आत्मसात करना और उसमें डूब जाना अलग बात है और संगीत देखना, उसकी रिपोर्टिंग करना, फोटू हींचना, वीडियो फिल्म बनाना एकदम से अलग बात। आज सोचता हूँ कि कुछ नहीं ले जाउंगा। न कैमरा न मोबाइल। आज तो सिर्फ और सिर्फ मैं ही जाऊंगा वहाँ..नहीं ब्लॉगर को भी नहीं। 
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12.2.12

आन क लागे सोन चिरैया, आपन लागे डाइन


यह पोस्ट पुनः प्रकाशित  है। उन लोगों के लिए जिन्होने इसे नहीं पढ़ा, उन लोगों के लिए जो इसे पढ़कर भूल गये और उनके लिए भी जो पढ़कर नहीं भूले :-)  काशिका में लिखी इस कविता का शीर्षक है....  

वैलेनटाइन 

बिसरल बसंत अब तs राजा
आयल वैलेनटाइन ।
राह चलत के हाथ पकड़ के
बोला यू आर माइन ।

फागुन कs का बात करी
झटके में चल जाला
ई त राजा प्रेम कs बूटी
चौचक में हरियाला

आन कs लागे सोन चिरैया
आपन लागे डाइन। [बिसरल बसंत…..]

काहे लइका गयल हाथ से
बापू समझ न पावे
तेज धूप मा छत मा ससुरा
ईलू-ईलू गावे

पूछा तs सिर झटक के बोली
आयम वेरी फाइन । [बिसरल बसंत…..]

बाप मतारी मम्मी-डैडी
पा लागी अब टा टा
पलट के तोहें गारी दी हैं
जिन लइकन के डांटा

भांग-धतूरा छोड़ के पंडित
पीये लगलन वाइन। [बिसरल बसंत…..]

दिन में छत्तिस संझा तिरसठ
रात में नौ दू ग्यारह
वैलेन टाइन डे हो जाला
जब बज जाला बारह

निन्हकू का इनके पार्टी मा
बड़कू कइलन ज्वाइन। [बिसरल बसंत…..]

9.2.12

बसंत


बहुत दिनो के बाद
सुबह-सुबह
हवा से
घर की कुण्डी खड़खड़ाई
ठंड से अकुलाये/कठुआये अज़गर की नींद टूटी
दिल ने ली अंगड़ाई
जूतों ने फीते कसे
हाथों ने
मचलकर द्वार खोले
मन में जगी
उमंग
आया क्या बसंत ?

बाहर कोई न था
मेन गेट के पास
ठंडी राख पर
हमेशा की तरह
सो रहा था
सहमा सिकुड़ा
वही
मरियल कुत्ता

बसंत की आस में बौराया
निकल पड़ा बाहर सड़क पर
जहां घूम रहे थे
स्वेटर, मफलर, शाल, जैकेट, ट्रैक-सूट
और कुछ
भागते पहिये

जूते
टहलते रहे
देर तक
झांकती रहीं
मंकी कैप में छिपी
दो आँखें
  
रास्ते में दिखे
धूल उड़ाते
मेहनती झाड़ू,
बाजार जा रही
ग्रामीण औरतों के सर पर
ताजी सब्जियों के बोझ से लदी
भारी गठरियाँ,
मैले कुचैले वस्त्रों में
दमकता चेहरा,
चमकती आँखेँ,
झिलमिलाते स्वेद कण,
शहर क्या जाने
सरसों के खेत !
नहीं दिखी एक भी
पीली चुनरी
या फिर
खेत फुल्ली
कुसुम्मी ही

नहीं दिखे
पियराकर झरे
एक भी पत्ते
पूर्ण नग्न हो
नव पल्लवों से अंकुरित/आच्छादित हो रही
शाखाएं

एक कोने
मौन खड़ा था
बूढ़ा
धूरियाया/हरियाया
पीपल

जब से सुना है
बड़े भाई सा के ऊँचे बंगले की
मोटी चहारदिवारी के भीतर
अरूणोदय के साथ
ठिठोली करते
आम्र वृक्ष की फुनगियों पर
इठलाते
बौर को देखकर
चांदनी में
रश्क करती हैं
रातरानी
दिल से
एक आह! ही निकलती है
अभी तो
वहीं कैद है
हमारा बसंत।
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