30.8.22

साइकिल की सवारी 2

भोर में साइकिल लेकर बाहर घूमने के लिए निकले तो ध्यान था कि आज सन्डे है, रोज तो सारनाथ घूमते ही हैं, दूर चला जाय। बाहर अँधेरा था, आकाश में बादल घिरे थे, रेन कोट का ऊपर का हिस्सा पीछे साइकिल के कैरियर में यह सोचकर दबा दिया कि बारिश हुई तो काम आएगा। 


अकेले घूमने का यही आनन्द है, जो मर्जी करो, जहाँ दिल करे जाओ, कोई रोकने वाला नहीं। हम सारनाथ से आशापुर, पँचकोशी चौराहे से बाएँ मुड़कर सलारपुर वाली क्रासिंग पार किए ही थे कि बारिश शुरू हो गई। साइकिल रोककर रेन कोट के ऊपर वाला हिस्सा पहने और नीचे पहले से हाफ बरमूडा पहन कर चले ही थे, भीगने की चिंता तो थी नहीं। हाँ, मोबाइल भीगने की चिंता थी, उसे रुमाल से लपेट कर रख लिए, जो होगा, देखा जाएगा। 


बारिश में सायकिल चलाने का आनन्द ही और है लेकिन रेन कोट में मजा नहीं आ रहा था। बारिश से ज्यादा तो पसीने से भीग चुके थे। आगे आदिकेशव घाट से पहले जहाँ वरुणा, गंगा से मिलती हैं, साइकिल/मोटर सायकिल जाने लायक चार लेन का पक्का पुल बना है। यहीं से बसंत कॉलेज( महिला महाविद्यालय) जाने का रास्ता शुरू होता है। यह सड़क कृष्ण मूर्ति फाउंडेशन की निजी जमीन पर बना है शायद इसीलिए यहाँ प्रबंध संस्थान ने चार पहिया जाने लायक पुल निर्माण की अनुमति नहीं दी। अच्छा ही हुआ, इससे इस मार्ग का वातावरण आज भी भीड़ भाड़ से दूर शांत, रमणीक है। सड़क के दोनों तरफ हरियाली है और कैंपस बने हुए हैं।


मन नहीं माना तो रेनकोट उतार कर फिर पीछे कैरियर से दबा दिए और बारिश में भींगते हुए/ साइकिल चलाते हुए खिड़किया घाट पहुँचे। यहाँ का नजारा अलग था। पार्किंग की जगह भी बंद कर दी गई थी। गंगा में आई बाढ़ के कारण घूमने के सभी रास्ते बंद थे। राजघाट पुल के ठीक नीचे, एक स्थान पर छांव में लोग रुककर बारिश और बाढ़ के पानी का आनन्द ले रहे थे। हमने भी सायकिल वहीं किनारे खड़ी करी और रुककर नजारे लेने लगे। 


ध्यान आया, गेट पर खड़े चौकीदार नीचे जाने से मना कर रहे हैं, वहीं एक किनारे गोवर्धनदास (श्री कृष्ण जी ) का मंदिर भी है। भारत में मंदिर जाने से तो कोई मना कर नहीं सकता। सीधे गेट पर गया और बोला, "मन्दिर जाना है।" द्वारपाल ने तुरत गेट खोल दिया और बोला, "जाइए, मन्दिर जाने की मनाही नहीं है लेकिन गंगा घाट की ओर मत जाइएगा, नदी में बाढ़ है।" मैं मन्दिर पहुँचा तो देखा वहाँ अच्छी खासी संख्या में लोग जमा हैं। खुले हॉल में योग की कक्षा चल रही है। पुरुष/महिला दोनो जमा हैं। तब समझ में आया केवल मैं ही बहादुर नहीं हूँ,  ध्यान/योग के शौकीन काशी में बहुत हैं।


थोड़ी देर बैठने, योग का नजारा लेने, दर्शन करने के बाद मैं अपने असली उद्देश्य में लग गया। गंगा में आई बाढ़ की तस्वीरें खींचने लगा। घाट बचे ही नहीं थे तो जाता कैसे? सब पानी में डूब चुके थे। खिड़किया घाट पर लगा नमो नमः का स्कल्पचर भी डूब चुका था, केवल कलाई से जुड़े तीन हाथ दिख रहे थे। फोटो खींच कर लौट आया। 


बारिश में साइकिल लेकर चढ़ाई चढ़ने लगा तो याद आया, आते समय क्या मौज से साइकिल पर बैठकर फर्राटे से लुढ़कते हुए नीचे उतरा था! वही राह, वही दूरी लेकिन चढ़ते समय हँफरी छूट गई, उतरते समय कितना मजा आ रहा था!!! ज्ञान हुआ, जीवन के एक ही मार्ग पर, एक समान रास्ते पर चलते हुए भी कभी ढलान/ कभी चढ़ाई मिलती है। हम ढलान पर बहुत खुश और चढ़ाई देख बहुत दुखी हो जाते हैं, जबकी एक के बाद दूसरे से सामना होना ही है। सारनाथ से राजघाट तक लगभग 20  किमी जाते/जाते जितनी चढ़ाई मिली होगी, ठीक उतनी ही ढाल मिली होगी। न एक इंच कम न एक इंच ज्यादा लेकिन ढलान पर लुढ़कते समय पता नहीं चला, चढ़ाई भारी लगने लगी। यही होता है, सुख के पल बीत जाते हैं, पता नहीं चलता। दुःख के पल काटने भारी पड़ जाते हैं। सभी आदमी साइकिल चलाए तो यह ज्ञान हो जाय, जीवन जीना कितना आसान है!


बसन्त महाविद्यालय से निकलते समय अमृत कुंड वाला कुँआ भी मिला लेकिन बारिश के कारण न कोई वहाँ था न पानी पीने की इच्छा ही थी। हम सायकिल चलाते हुए लौट चले। आदिकेशव घाट पर विष्णुजी की बहुत सुंदर प्रतिमा और बढ़िया मन्दिर है। घूमने का मोह छोड़ नहीं पाया। बारिश का आनन्द लेते हुए फोटो भी खींचा और दर्शन भी किया। वहीं  एक आदमी घाट पर प्रेम से गोता लगा रहा था। पूछने पर अपना नाम झींगुर बताया। यह रोज इसी घाट पर नहाने आता है। नदी में बाढ़ आने या बारिश होने का उसपर कोई प्रभाव नहीं था।


यहाँ से पुल पार कर आगे लौट चले तो सराय मोहाना, कोटवा के बाद पड़ने वाली पुलिया का खयाल आया। अब बारिश बहुत कम हो चुकी थी। हलकी बूंदाबांदी हो रही थी। सोचा, वहीं आराम करेंगे, शिवराम मिलेंगे। पुलिया पर पहुंचा तो वहाँ कोई न था। कुछ देर अकेले बैठा तो सोचा, शायद बारिश के कारण आज शिवराम नहीं आये। उनसे कहा तो था कि अगले अतवार को मिलेंगे! फिर सोचा, वो कोई सरकारी नौकर थोड़ी हैं, उनके लिए कैसा इतवार और सोमवार। जिस दिन मौसम खराब उस दिन छुट्टी, जिस दिन आकाश साफ, चले मजूरी पर। अब शिवराम ही नहीं मिले तो आगे क्या लिखें, जय राम जी की।

....@देवेन्द्र पाण्डेय।

(चित्र चित्रों का आनंद में है।

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http://mereephotoo.blogspot.com/2022/08/blog-post_24.html?m=0

1.8.22

लोहे का घर 62

लोहे के घर में अकेले बैठे हों तो कुछ लिखने के लिए मोबाइल पर उँगलियाँ चलने लगती है। लिखने के लिए बड़ा अनुकूल माहौल है। लखनऊ-बनारस शटल एक्सप्रेस की ए.सी. चेयर कार वाली बोगी में 2 नम्बर की बर्थ है। सो नहीं सकते, बैठना मजबूरी है। बैठकर करेंगे क्या? सामने बंद दरवाजे के सिवा कुछ नहीं। अपनी विंडो सीट है, शाम के 6.30 बजने वाले हैं, बाहर अभी उजाला है, बाहर झाँक सकते हैं। अच्छी भली समय से प्लेटफार्म पर लगी ट्रेन को 15 मिनट लेट चलाया मालिक ने! कोई मजबूरी होगी। अभी कबाड़ इलाके से रेंग कर आगे बढ़ रही है, रफ्तार पकड़ेगी तब बाहर झाँकने लायक दृश्य दिखेंगे। 


बगल में 3 नम्बर वाली एक बर्थ पर एक युवा बैठा था, तभी एक प्रौढ़ दम्पती हिलते हुए आकर अनुरोध करने लगे, "वहाँ बैठ जाते तो हम लोग साथ बैठ जाते? हमारी एक सीट, 4 नम्बर यहाँ, एक वहाँ मिल गई है" युवक शरीफ निकला, झट से अपना झोला उठाकर यहाँ से वहाँ हो गया!" शरीफ लोगों से बहुत अनुरोध नहीं करना पड़ता, वे झट से झोला उठाकर चल देते हैं। इसके लिए आपके अनुरोध में दम होना चाहिए। यह नहीं कि शरारतन अगले से कहें,"झोला उठाओ, चले जाओ!" अगला कहेगा,"नहीं जाएँगे, अभी और तुम्हारी छाती पर और मूंग दलेंगे, क्या कर लोगे?"


मेरे पीछे 5,6 नम्बर वाली बर्थ का भी यही आलम था, एक जोड़े की सीट आगे-पीछे हो गई थी। यहाँ भी 'सिंगल' अपना झोला उठाकर चला गया। सिंगल' के साथ अक्सर लफड़ा हो जाता है, जोड़े रंग जमा कर, सार्वजनिक सीट से ऐसे ही उठा देते हैं। भले अपने घर में घुसने के बाद ये जोड़े एक दूसरे का मुँह देखना पसंद न करते हों लेकिन सामाजिक मर्यादा है, क्या किया जाय? कैसे अपनी बीबी को दूसरे युवा के साथ बैठने दिया जाय? मर्यादा भी तो निभानी है! मुझे तो लगता है, आजकल लोग मन से न चाहते हुए भी, मर्यादा पुरुष बने घूमते हैं! 


मैं भी यहाँ सिंगल हूँ लेकिन मेरे साथ यह लफड़ा नहीं हुआ। एक नम्बर सीट पर एक नौजवान आया और अपना झोला रखकर चला गया! ट्रेन चल दी, नहीं आया!!! मैं घबड़ाने लगा, झोला रखकर कहाँ गायब हुआ? कहीं झोले में कुछ गड़बड़ समान तो नहीं! तभी वही युवक काले पैंट-कोट में चार्ट लेकर सामने आ गया,"आपका नाम?" ओह! तो यह टी टी है!!! भगवान कितना दयालु है! इस ट्रेन में, एक नम्बर की बर्थ टी टी की होती है, यह आज पता चला।


बाहर का दृश्य बहुत सुहाना है। हरी भरी धरती, कहीं खेत चरते चौपाए, कहीं भरे पानी मे डूबे धान, बरश चुके बादलों से खाली हुआ साफ आसमान, हरे/घने पेड़, छा रहा अँधेरा, जा रहा उजाला और घास का भारी गठ्ठर सर पर लादे, मेड़-मेड़ जा रही, भउजाई!


अब बाहर अँधेरा अधिक हो चुका है। शीशे से बाहर झाँको तो अपनी ही परछाई दिख रही है! बोगी में भीतर उजाला हो चुका है। सभी लाइट जल चुकी है। यही होता है। जब भीतर रोशनी होती है तो बाहर देखना भी चाहो, दर्पण की तरह अपना चेहरा ही दिखने लगता है! पता नहीं, अपने भीतर कब दीपक जलेगा? और जान पाएंगे, 'कौन हैं हम?' कब खतम होगा, मैं?"

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