27.11.16

क्या करेंगे अँधेरा देखने वाले!

सोंचता हूँ
क्या करेंगे अँधेरा देखने वाले
अगर सत्ता उन्हीं की हो?
फाँसी चढ़ा देंगे जिन्होंने छपाई की नहीं पक्की
या बाँट देंगे घरों में मशीने
छाप लो नोटें अपने मन मर्जी
क्या करेंगे?
कोंच देंगे कलम को बायें गाल पर चाँद के
या तोड़ देंगे नोक
सो रहेंगे चैन से अंधेरी गुफा में!
क्या करेंगे ?
तोड़ देंगे मंदिर हमारे
गाढ़ देंगे उगते सूर्य को भी
गहरे कुएँ में!
क्या करेंगे?
मंत्री उन्हीं के हों
राजा उन्ही का हो
क्या करेंगे अँधेरा देखने वाले
अगर सत्ता उन्हीं की हो?

सुबह की बातें-3

धमेख स्तुप के ऊपर 

कौए अधिक थे
कबूतर कम
तोते
कर रहे थे टांय-टांय
कर रहे थे भगवान से प्रार्थना
कह रहे थे...
कौए बढ़ रहे हैं, कबूतर उड़ रहे हैं
कुछ करो!
यह अच्छी बात नहीं!

हंसने लगा
उगता सूरज
बुद्ध नहीं,
यह लड़ाई
कबूतरों को ही लड़नी है
तुम भगवान से प्राथना मत करो
आलोचना मत करो
उत्साहित करो
कबूतरों को
कौए भाग जायेंगे.



21.11.16

ट्रेन हादसा

अब
खुशी नहीं होती
जब
तेज रफ़्तार से चलती है ट्रेन
डर लगता है

एक पुल
आया था अभी
थरथराया वो
और..
डर गया
लोहे का घर!

सुनी थी चीखें
इसके यात्रियों ने
कल देर रात तक
टी.वी. पर
दिखाये थे रिपोर्टर ने
एक के ऊपर एक
चढ़ी हुई बोगियाँ
हस्पताल जाते
घायल यात्री
जमा किये गये
लावारिश झोले,
शादी के कार्ड,
दुल्हन के हार,
और भी बहुत कुछ...
कलेजा मुँह को आ जाता
जब बजते
झोले में रखे मोबाइल!

आह!
आज सुबह
ढूँढ रहे थे हम
अखबार के पन्नों पर
अपनों के शव
ली थी न संतोष की सांस ?
मगर
फूट-फूट कर रोये होंगे वे
पूरी हुई होगी
जिनकी खोज

मुआवजा!
नहीं दे पाओगे सरकार!!!
कुछ जख्म ऐसे होते हैं
जो मरने के बाद ही जाते हैं
अब तो
समझ में आ गया होगा न ?
गाड़ी पटरी पर चलाना
हँसी-खेल नहीं

दंभ मत करो !
गंदे
शहर ही नहीं,
मैली
नदी ही नहीं,
जाली
नोट ही नहीं,
जर्जर है
पूरी की पूरी
व्यवस्था.
................

20.11.16

नोट बंदी से निकले दोहे


उजला काला हो गया, बंद हुआ जब नोट.
झटके में जाहिर हुआ, सबके मन का खोट..


चलते-चलते रुक गया, अचल हुआ धन खान.
हाय! अचल धन पर गड़ा, मोदी जी का ध्यान..


जोर-जोर से हो रहा, चोर-चोर का शोर.
कोई काजल चोर है, कोई अँखिए चोर..


लोभ लपक बच्चा बढ़े, बूढ़ा पकड़े मोह।
निरवंशी घातक बड़ा, व्यापे लोभ न मोह।।

दो पैग ने भुला दिया, मोदी जी का चोट.
चिल्लर-चिल्लर हो गया, दो हजार का नोट..


बिटिया की शादी पड़ी, सब प्रमाण तू ले.
ले! शादी का कार्ड ले, नयकी नोटिया दे..


चीर-फाड़ का दर्द है, अपनी आँखें मींच.
देख न अँधियारा सदा, उगता सूरज खींच..


सेवा बदले कर रहे, सोच-सोच कर चोट.
फिर जग में जाहिर हुआ, वाम सोच में खोट..


राजा चलनी तेज कर, ले ले सबकी वाह!
गेहूँ साथै घुन पिसे, मुख से निकसे आह!

......


लोहे का घर-22 (नोट बंदी)

नोट बंदी के फैसले के बाद लोहे के घर में बदहवास 500 के पुराने नोट लिये यात्री अब नहीं दिखते। 8 तारीख के बाद तो यह स्थिति थी कि लालच देकर यात्री भिखारी/वेंडरों से छुट्टा मांग रहे थे। एक भिखारी ने तो झटक ही दिया था-हमको बेवकूफ समझे हो क्या?
अब लोग सिर्फ तारीफ करते हुए ही मिलते हैं। बस जरा सा छेड़ दो। बस इतना कहो कि मोदी ने सब सत्यानाश कर दिया। फिर देखो! कैसे लोग आपको समझना शुरू करते हैं। केजरीवाल की तरह कह कर देखो-बहुत बड़ा घोटाला है! सब आप पर टूट पड़ेंगे। कम नोट मिलने से लोग परेशान हैं लेकिन फिर भी गजब का संतोष और खुशी झलकती है चेहरे से। स्लीपर बोगी में चढ़ने वाले ये वो लोग हैं जिन्होंने परेशानी के सिवा कुछ नहीं पाया लेकिन खुश हैं कि जिन्होंने गलत ढंग से बोरियाँ भरी हैं वे मारे गये।
प्रधान मंत्री जी ने बहुत बड़ा ख़्वाब दिखया है लेकिन लोगों को भयंकर कष्ट का भी सामना करना पड़ रहा है। राजनैतिक दलों द्वारा सहयोग के स्थान पर अपनी पूरी ताकत विरोध में झोंक दी है। कुछ चैनल नकारात्मक खबरें अधिक परोस रहे हैं। सबकी मंशा यही लगती है कि आम आदमी तकलीफों से झुंझलाकर बगावत कर दे। समर्थन के स्थान पर विरोध करना शुरू कर दे। फैसला वापस लेना पड़े। दूसरी तरफ फैसला वापस लेने का मतलब मोदी जी का राजनैतिक सन्यास। फैसला वापस लेने का मतलब है लोगों के ख्वाबो का टूटना। जब ख़्वाब टूटते हैं तो दिल भी टूटते हैं। टूटे आदमियों की आँखों में नये ख़्वाब नहीं तैरते। कुल मिलाकर भारत एक कुरुखेत्र के मैदान में खड़ा है। जारी है संघर्ष। देखें..आम आदमी बच पाता है या ...मोदी जी के साथ आम आदमी भी टूट जाता है। अभी तो दांव पर आम आदमी ही लगा है। एक लाइन याद आ रही है...
जितने ऊँचे ख़्वाब दिखाओगे राजा, उतनी गहरी चोट लगेगी सीने में।
हमारी इच्छा है कि सत्ता हारे या विपक्ष आम आदमी टूटने न पाये। आखिर सभी आम आदमी के लिए ही तो परेशान हैं।
......
भंडारी स्टेटशन पर #एटीएम आज भी चालू था। मात्र 10-12 लोग खड़े थे। अपनी #ट्रेन एक घण्टे लेट थी। समय ही समय था। मैंने सोचा आराम से 2000/- निकाल सकता हूँ। तभी याद आया...मैंने कल ही #जीन्यूज की रिपोर्टिंग देखी थी जिसमें एक गरीब चौकीदार गुल्लक फोड़कर निकाले 3000/-में से फुटकर 1500/-रुपये जिसमें 100,50,20,10 के नोट थे बैंक में जा कर इसलिए जमा कर देता है कि दुसरे जरूरत मंदों को मिल जाय।
मेरे मन में भी ख्याल आया... मुझे पैसे की अभी कोई ख़ास आवश्यकता तो है नहीं, क्यों निकाला जाए? मैंने लाइन लगाने का विचार त्याग दिया। दस रुपये का चीनीयाँ बादाम खरीदा और फोड़-फोड़ कर खाते हुये लोगों को पैसा निकालते और खुश होकर लौटते देखने लगा।
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मुझे नहीं लगता कि जितने पुराने नोट थे उतने ही नये नोट न छपे होने से भयभीत होने की जरूरत है। सभी नोट एक साथ प्रचलन में नहीं होते। प्रचलन में जितनी आवश्यकता होती है उतने छप चुके हैं। नोट कम देने का उद्देश्य भी यही लगता है कि लोग आवश्यकता के अनुरूप निकालें और बिना भय के खर्च करें। पूरे नोट छप जाते, ए टी एम सभी दुरुस्त हो जाते तब नोट बदलने की सोचते तो तब तक गोपनीयता भी नहीं रहती। 2000 के नोट छप रहे हैं यह जानकारी तो अखबार को हो ही गई थी। पुराने नोट बेकार हो जाएंगे यह भी जान जाते तो नोट बदलने का उद्देश्य कभी सफल न होता। मुझे तो जो प्रक्रिया सरकार ने अपनाई है वही बेस्ट विकल्प लगता है।
जनता को तकलीफ तो होनी ही थी। तकलीफ कम होती अगर सभी एक स्वर से साथ देते और इस पर राजनीति न होती। जितना विपक्ष राजनीति करता रहा, उतना ही मोदी जी आक्रामक होते गये। यह उनका अंदाज है जिसे आप जो नाम दें लेकिन शतरंज का खिलाड़ी होने के नाते मैं जानता हूँ कि अटैक इज द बेस्ट डिफेन्स।
एक चूक मुझे जो लगती है वह है समय का चुनाव। समय चुनते वक्त चार राज्यों में होने वाले चुनाव का नहीं, शादियों के मौसम और बोआई का ध्यान रखा जाना चाहिये था। एक महीने बाद या दो महीने पहले का समय अधिक उपयुक्त होता। विपक्ष को सरकार से यह प्रश्न पूछना चाहिए न कि विरोध के लिए विरोध करना चाहिए।
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#ट्रेन में फिर नोट बंदी की चर्चा। सुनते-सुनते कान पक गये। लोग बता रहे हैं किस नेता को नींद नहीं नहीं आ रही। किसने किस विभाग में कितना दबाव बनाया नोट बदलने के लिये। कौन नेता जोकरी कर रहा है, कौन हुकुर-हुकुर रो रहा है। लोग यह भी बता रहे हैं अब बैंक, एटीएम की लाइन बहुत कम रह गई। बहुत उत्साह है लोगों में। तरह-तरह के लोग तरह की बातें। इनको सुन कर किसी का नाम नहीं लिया जा सकता। कोई प्रमाण नहीं अपने पास। आम आदमी कह रहे है नेता रो रहे, उधर संसद में नेता कह रहे आम आदमी मर रहा। ये लोग पक्का झूठ बोल रहे होंगे। सही तो संसद में नेता लोग बोल रहे होंगे। बहुत कन्फ्यूजन है। सब #भक्त लग रहे हैं! लगता है ट्रेन से उतर कर दिया लेकर ढूंढना पड़ेगा विरोधियों को। जनता का दर्द जानने के लिए #ndtv देखना पड़ेगा या केजरी वाल जी का भाषण सुनना पड़ेगा। सबसे बड़ा, हिटलर और आतंकवादी जानने के लिये कांग्रेस के नेताओं को सुनना पड़ेगा। ये #लोहेकेघर के यात्री तो सभी #मोदी भक्त लगते हैं।

15.11.16

देव दीपावली

दिन भर 
लाइन में खड़े होने वाले 
रात भर 
दिवाली मनाते है!
हम बनारसी हैं
तम का मातम नहीं, 
अपने अंदाज से अँधेरा 
दूर भगाते हैं।

आज निकला था
थोड़ा बड़ा होकर
हुई थी आहट उसके आने की
दिखे थे
गंगा की लहरों में
चाँदनी के पद चिन्ह!
इतने दीप जले थे गंगा के घाटों पर
कि शरमा कर चला गया
पूनम का चाँद!

और तुम 
हमारे कष्ट का मातम मनाते हो?
अन्धेरा भगाने के लिये
हम मसान में
नृत्य करना जानते हैं।

6.11.16

भक्त और टी.वी. के समाचार चैनल

टी. वी. के समाचार चैनलों से एक निर्धारित समय में सत्य का ज्ञान क्या, देश-विदेश के सभी प्रमुख समाचारों का ज्ञान भी नहीं होता। भले ही ये चैनल निष्पक्ष होने का कितना ही दावा करें लेकिन चैनल खुलने से पहले ही हमारे दिमाग में उसके पक्ष का भान रहता है। हमें पता रहता है कि यह दक्षिण पंथी है या वाम पंथी। यह सरकार के कार्यों का गुनगान करने वाला है या हर बात का मजाक उड़ाने वाला है।
इन चैनलों के एंकर भी वाकपटु और गज़ब के अभिनेता होते हैं! ये अपने पक्ष के कुशल वैचारिक वकील होते हैं। किसी एक एंकर को आपने अलग-अलग विचारधारा वाली दोनो पार्टियों के समर्थन में खड़े नहीं देखा होगा। जबकी ऐसा संभव है कि किसी मुद्दे पर किसी पार्टी का नजरिया सही और किसी दूसरे मुद्दे पर विरोधी पार्टी का नजरिया सही रहता हो। ऐसा इसलिए होता है कि ये एंकर किसी एक पक्ष के #भक्त होते हैं। और भक्तों से निष्पक्ष होने और सत्य सुनने की उम्मीद पालना ही व्यर्थ है।
सोसल मीडिया भी इसके प्रभाव से वंचित नहीं। कोई क्रांतिवीर की जय जयकार करता है तो कोई विदूषक की विद्रूपता पर लहालोट होता है। पत्रकारिता स्वतंत्र तो है मगर निष्पक्ष प्रतीत नहीं होती। ऐसे में आम आदमी का बुरी तरह कनफ्युजिया जाना और सोचते-सोचते नरभसिया जाना संभव है।
ऐसे माहौल में कितने ही आत्मचिंतकों ने टीवी में समाचार देखना ही बंद कर दिया है! ऐसा नहीं कि वे समाचार देखना नहीं चाहते। समस्या यह है कि उनके पास उपदेश सुनने का वक्त नहीं है। अखबार भी अछूते नहीं हैं लेकिन इसमें समाचार अलग और विचारकों के विचार अलग पृष्ठ पर होते हैं। हम समाचार पढ़ कर आलेख वाले पृष्ठ पलट सकते हैं। टी.वी. के समाचार चैनल बदलो तो जहाँ जाओ वहीं खुराफात!
आप विचारों से भागना नहीं चाहते और टी.वी. देखना भी है तो ऐसे माहौल में दो विकल्प नजर आता है। पहला यह कि आप किसी से मत कहिए मगर खुद से मान लीजिए कि आप फलाने के भक्त हैं। अब अपने पक्ष वाला चैनल देखना बंद कीजिए और विपरीत विचारधारा वाले चैनल देखिए। शुरू में तो तनाव बढ़ेगा लेकिन संभव है, धीरे-धीरे तटस्थ होकर सोचना शुरु कर दें।
यदि आप भक्त नहीं हैं, दोनो प्रकार की विचारधारा को पढ़, सुन सकते हैं तो अभी आप में सत्य जान पाने की संभावना बची है। भीड़ से सटकर खड़े होने और पीछे-पीछे भागने से अच्छा भीड़ से हटकर यह जानना है कि यह भीड़ जा कहाँ रही है? क्या यही अपनी मंजिल है? क्या यह राष्ट्र हित में है? वैसे भक्त बन भीड़ में गुम हो जाना और पीछे-पीछे जयघोष करते हुए चलना सुकून भरा निर्णय है और भीड़ से हटकर खड़े होना, बेचैनी पैदा करने वाला।

जहाँ तक सरकार द्वारा किसी चैनल पर एक दिन का सांकेतिक प्रतिबंध लगाने का प्रश्न है तो मैं इसे कमजोरी भरा निर्णय मानता हूँ. विचारों पर प्रतिबन्ध लगना लोकतंत्र की आत्मा को नष्ट करना है. चैनल बंद करना तो जनता के बांये हाथ का खेल है! यदि राष्ट्र हित में जरूरी है, चैनल द्वारा राष्ट्र विरोधी हरकत की जा रही है तो जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार को दूसरे और कठोर निर्णय लेने चाहिये.