14.7.19

न बिकने वाले घोड़े

वह अस्तबल नहीं, देश का जाना माना, एक प्राइवेट प्रशिक्षण संस्थान था जहाँ देश भर से घोड़े उच्च शिक्षा के लिए आते। संस्थान में कई घोड़े थे। मालिक चाहता कि सभी घोड़े और तेज दौड़ें. और तेज..और तेज। इस 'और' की हवस को पाने के लिए वह अनजाने में ही घोड़ों के प्रति क्रूर होता चला गया। धीरे-धीरे घोड़े भी मालिक के स्वभाव से अभ्यस्त हो गये। दौड़ने का उत्साह जाता रहा।  प्रभु से प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभु! कोई सौदागर भेज दे तो इस मालिक से जान बचे। मालिक भी सोचने लगा कि घोड़े अच्छे दामों में बिकें तो संस्थान का और नाम हो, अगले साल सीजन में, और अच्छे घोड़े मिलें, और कमाई हो।

प्रशिक्षण की अवधी समाप्त होने से पहले ही संस्थान में व्यापारी आने लगे। मालिक घोड़ों की पीठ थपथपाता और व्यापारियों से अपने घोड़ों की खूब तारीफ करता मगर सौदागर बार-बार यही कहता---मुझे घोड़े तो दिखाओ! तुमने तो इस अस्तबल में गधे पाल रखे हैं!!!

व्यौपारी, खूब जांच परख कर, घुड़दौड़ के बाद, चैम्पियन घोड़ों पर, गधे का दाम लगाते। घोड़े सोचते..बच्चू! चलो ठीक है, आज तुम्हारी बारी है, कल जब हम बड़े रेस में दौड़ेंगे तो कोई और व्यापारी मिलेगा जो हमारी सही कीमत समझेगा। जो घोड़े बिक जाते वे कुलाँचे भरते हुए पार्टी करते, जो नहीं बिक पाते मायूस हो जाते। न बिकने वाले घोड़े सोचते.. घर वालों ने हमारी पढ़ाई में सब कुछ दांव पर लगा दिया, अब घर किस मुँह से जांय? घर वाले भी कहते..और प्रयास करो, सफलता तुम्हारे कदम चूमेगी। 

देश में बढ़ रही हैं कम्पनियाँ, बढ़ रहे हैं प्रशिक्षण संस्थान और बढ़ रहे हैं न बिकने वाले घोड़े। घोड़ों पर दाम लगाने की जिन पर जिम्मेदारी है वे सदियों से यही समझ रहे हैं कि देश में व्यापार बढ़ रहा है। देश हमारे भाषणों से खूब तरक्की कर रहा है।

न बिकने वाले घोड़े, गले में प्रशिक्षण प्राप्त होने का पट्टा बांधे, शहर-शहर, सड़क-सड़क, मारे-मारे फिरते हैं। हर वर्ष बढ़ रही है इनकी संख्या। मुझे डर है कि ऐसे ही बढ़ती रही इनकी संख्या तो एक दिन ये जान जाएंगे कि हम गधे या घोड़े नहीं हैं। हम भी व्यौपारियों की तरह, प्रशिक्षकों की तरह, अधिकारियों की तरह, नेताओं की तरह एक आम इंसान हैं और हमें भी, भर पेट रोटी खा कर, जीने का अधिकार है। जिस दिन जान जाएंगे वे दरवाजे तोड़ कर घुसेंगे जरूर..व्यापारियों के घरों में, जिम्मेदारों के सदन में और अगर संतुलन अधिक गड़बड़ाया तो हमारे/आपके घरों में भी। 

12.7.19

लोहे का घर-54

ट्रेन बहुत देर से रुकी थी। उस प्लेटफॉर्म पर रुकी थी जहाँ उसे नहीं रुकना चाहिए। ऐसे रुकी थी जैसे पढ़ाई पूरी करने के बाद, नौकरी की तलाश में, अनचाहे प्लेटफार्म पर, कोई युवा रुक जाता है। ट्रेन बहुत देर से रुकी थी। मैं बाहर उतरकर देखने लगा..माजरा क्या है? कब होगा हरा सिगनल?

मेरे इस प्रश्न का  उत्तर किसी के पास नहीं था। अनिर्धारित प्लेटफॉर्म पर रुकी ट्रेन कब चलेगी? यह एक यक्ष प्रश्न है। जैसे बेरोजगार युवक को नहीं पता होता कि उसे कब नौकरी मिलेगी? वैसे ही ट्रेन के यात्रियों को भी नहीं पता होता कि लाल सिगनल कब हरा होगा? रुकने का समय पता हो तो यात्री उतने समय का सदुपयोग कर लेंगे। आसान हुआ तो सड़क मार्ग से जल्दी घर पहुँच जाएंगे। चाय नाश्ता कर लेंगे, कोई पिकनिक स्थल हुआ तो घूम आएंगे। जो मर्जी सो कर लेंगे। उन्हें ऐसा नहीं लगेगा कि हम कहाँ कैद हो गए! कितने यात्री तो ऐसे भी होते हैं जिन्हें आगे, मात्र 6 किमी की दूरी पर, निर्धारित प्लेटफार्म से दूसरी ट्रेन पकड़नी है। पता हो, एक घण्टा नहीं जाएगी तो 6 किमी कोई रिक्शा ही पकड़कर  पहुँच जाय। बहुत समय हो तो कहीं खेत में घुसकर पकड़म पकड़ाई ही खेल लें! लेकिन इधर रिक्शे में बैठे, उधर ट्रेन चल दी तो? शायद रेलवे वाले जानते हैं कि आम आदमी के पास बरबाद करने के लिए खूब समय होता है। बेरोजगार को मालूम हो कि जो फॉर्म वह भर रहा है, उसका परिणाम बुढ़ौती में आएगा तो वह फॉर्म भरे ही क्यों? मनमर्जी रोकें मगर रेलवे को यात्रियों को बताने की व्यवस्था करनी चाहिए ताकि ट्रेन जब तक रुकी रहे, लोग अपने सुविधानुसार समय का सदुपयोग कर लें। जैसे ट्रेन के आने/जाने की घोषणा करते हैं वैसे ही यह भी घोषणा करवा दें...यात्रीगण कृपया ध्यान दें! ट्रेन नम्बर 13484 शिवपुर स्टेशन पर एक घण्टे आराम की मुद्रा में खड़ी रहेगी, यात्रियों को हुई असुविधा के लिए खेद है। 

ट्रेन से उतरकर पटरी-पटरी आगे बढ़ने लगा। इंजन के पास, जनरल बोगी के बाहर बहुत अधिक भीड़ थी। खीरा वाले, आइसक्रीम वाले, लस्सी वाले, पकौड़ी वाले, ठंडा पानी/मैंगोजूस वाले, गुटखा/पान वाले सभी तैनात थे। ऐसा लग रहा था जैसे गांव का कोई मेला लगा है! पास जाकर खीरे वाले से पूछा..क्या बात है? उस बोगी के सामने इतनी भीड़ क्यों लगी है? खीरे वाले ने जो जवाब दिया वह चौंकाने वाला था...एक मिली के लइका भयल हौ! (एक महिला को पुत्र पैदा हुआ है)! मुझे लगा, मुझे अपने यक्ष प्रश्न का उत्तर मिल गया। गम्भीर हो कर बोला..अच्छा! तभी ट्रेन इतने देर से रुकी है? दुकानदार झल्ला गया...नाहीं मालिक! ट्रेन रुकल हौ, एहसे ओहके यहीं लइका हो गयल। ( नहीं भाई! ट्रेन रुकी है, इसलिए महिला को यहीं लड़का हो गया!) मैं सोचने लगा..ट्रेन घंटों से न रुकी होती तो शायद महिला को अस्पताल में बच्चा होता। तब? क्या वह स्वस्थ है? तभी लोकल ग्रामीण महिलाओं का दल आता दिखा। उन्होने घोषणा किया.. जच्चा/बच्चा दोनो स्वस्थ हैं। जो-जो जरूरी काम था हम लोगों ने बोगी में चढ़ कर पूरा कर दिया! 

ग़ज़ब का देश है यह! ऐसा केवल भारत में ही सम्भव होगा। ट्रेन इतनी लेट हुई कि रास्ते में ही महिला को लड़का हो गया! और ट्रेन कब तक रुकेगी नहीं पता लेकिन लोकल ग्रामीण महिलाएं ट्रेन में चढ़कर सकुशल डिलीवरी करा कर उतर भी गईं! मैने लस्सी पी, पान खाया और अपना माथा पकड़ कर बगल के एसी कोच में घुस गया। यहाँ का नजारा एकदम भिन्न! यहाँ किसी को कोई फिकर नहीं! किसी को कुछ पता नहीं कि बगल की बोगी में एक महिला ने बच्चा जना! सभी अपने अपने मोबाइल में डूबे हुए! यह तो वही बात हुई कि घर में कोई बीमार पड़े और बीमार को पड़ोसी अस्पताल ले जांय लेकिन घर वालों को पता ही न हो! बहुत देर बाद एक ने मोबाइल से गरदन निकालकर पूछा...यह कौन सा स्टेशन है?