रेलगाड़ी में बैठ कर रेलगाड़ी पर व्यंग्य लिखने का मजा ही कुछ और है। बन्दा जिस थाली में खायेगा उसी में तो छेद कर पायेगा। दूसरा कोई अपनी थाली क्यों दे भला? पुराने देखेगा और नया बनाकर सबको दिखायेगा। ट्रेन में चलने वाले ही ट्रेन को समझ सकते हैं। हवा में उड़ने वाले जमीनी हकीकत से कहाँ रू-ब-रू हो पाते हैं!
हमारे लिए तो रेलगाड़ी #ट्रेन नहीं, लोहे का घर है। एक ऐसा घर जिसमें सभी प्रकार के कमरे हैं। गरीबों के लिए, अमीरों के लिए और मध्यमवर्गीय के लिए अलग-अलग कमरे हैं। जैसी भारत की अर्थव्यवस्था वैसे रेलगाड़ी में कमरे । सभी धर्म और जातियों के लोग अपने मन की कलुषता छुपा कर, एक दूसरे से मुस्कुरा कर बातें करते पाये जाते हैं। एक ऐसा घर जहाँ भारत बसता है।
डबल बेड नहीं होता लोहे के घर में। लोअर, मिडिल और अपर बर्थ होते हैं। लोअर बर्थ ही दिन में गप्प लड़ाने वालों की अड़ी, रात में सिंगल बेड बन जाती है। जब तक जगे हो चाहे जितना चोंच लड़ाओ, रात में सिंगल ही रहो। सिंगल ही ठीक है, बेड डबल हुआ तो बवाल हो जाएगा।
मैं चाऊ-माऊ, जापान या यूरोप की बात तो नहीं जानता मगर भारतीय रेल धैर्य और साहस की कभी खत्म न होने वाली स्थाई पाठशाला है। भारतीय रेल में अधिक सफर करने वाला सहनशीलता के मामले में #गांधीवादी हो जाता है। कोई एक गाल में थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल झट आगे करने को तैयार! पहली बार रेलगाड़ी में सफर करने वाला व्यक्ति अव्यवस्था को देख भगत सिंह भले हो जाय, रोज-रोज सफर करने वाला गाँधी जी के बन्दर की तरह बुरा न देखो, बुरा न बोलो, बुरा न करो बड़बड़ाने लगता है।
इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि सहनशीलता की शिक्षा महात्मा गाँधी को दक्षिण अफ्रीका में रेलगाड़ी के सफर के दौरान मिली हो! क्या जाने उस समय दक्षिण अफ्रीका की रेलगाड़ी आज के भारतीय रेल की तरह प्रगति के पथ पर दौड़ती रही हो!
जैसे हर सफल पुरुष के पीछे कोई स्त्री होती है वैसे ही हर लेट ट्रेन के आगे एक मालगाड़ी होती है। लोग नाहक रेलगाड़ी को गाली देते हैं जबकि रेलगाड़ी के लेट होने, हवा से बातें करने या पटरियों से उतर जाने के पीछे खुद रेलगाड़ी का कोई दोष नहीं होता। हानी, लाभ, जीवन, मरण सब ऊपर वाले की मर्जी पर होता है। इस सत्य को जान कर भी जो ट्रेन को गाली देते हैं उनको नादान ही समझना चाहिए।
जिसे हम अंग्रेजों का गिफ्ट मानते हैं वह भारतीय रेल अंग्रेजों द्वारा देश का माल लूटने की योजना का परिणाम हो सकती है। पहले मालगाड़ी बनाया फिर मालगाड़ी के लिए बनी पटरियों पर रेल दौड़ा दी। अब अंग्रेजों को क्या पता था कि आगे चलकर देश को आजाद कराने में और आगे विभाजन के समय भी रेलगाड़ी का खूब प्रयोग होगा!
दूसरे देशों में रेल भले पटरी पर चलती हो, भारतीय रेल हमेशा प्रगति के पथ पर दौड़ती है। प्रगती का पथ आप जानते हैं काटों भरा होता है। शायद यही कारण है कि अंग्रेजों द्वारा बनाई सभी सिंगल ट्रैक को हम आज तक डबल ट्रैक में नहीं बदल पाए।
बनी बनाई पटरी छोड़, निरन्तर प्रगति के पथ पर दौड़ रही है भारतीय रेलगाड़ी। पितर पक्ष में भले होरी अपने झोपड़ी के लिए गढ्ढा नहीं खोद सकता, #बुलेट_ट्रेन की नींव पड़ गई! यह भारतीय रेल द्वारा अंध विश्वास को ठेंगा दिखाना है। लगे हाथों यह भी सिद्ध हुआ कि अच्छा काम करने का कोई शुभ मुहूर्त नहीं होता। गलत काम करने के लिए भले ज्योतिष/वकील से सलाह ले लो, सही काम करने के लिए सिर्फ नेक इरादा और साहस की आवश्यकता होती है।
जितनी बार आप रेलगाड़ी में सफर करेंगे, उतनी बार आपको कोई नया दर्शन प्राप्त होगा। आपको सिर्फ गाँधी जी या मोदी जी जैसी दूर दृष्टि और अदम्य साहस दिखाते हुए रेलगाड़ी में सफर करना है। सफ़र नहीं कर सकते तो स्टेशन में चाय ही बेचिए, दिव्य दृष्टि होगी तो फर्श से अर्श तक पहुंचते देर नहीं लगेगी। सफर कर रहे हैं और किसी टी टी ने आपको रेल से धकेल दिया तो समझो पूरा कल्याण ही हो गया। बिना सफर किये शीघ्र मंजिल पाना है तो रेल में नहीं, पटरी पर बैठने की आवश्यकता है।
रेलगाड़ी और जीवन में गहरा साम्य है। खिड़कियों से बाहर झांको तो बदलते मौसम का एहसास होता है। मंजिल से पहले कई स्टेशन आते/जाते हैं। मंजिल के करीब जा कर एहसास होता है कि वो बचपन था, वो जवानी और यह बुढापा है। सबसे दुखदाई तो मंजिल के करीब पहुँच कर आउटर में खड़ा होना होता है। रेलगाड़ी के सफर में आउटर अंतिम पड़ाव होता है। कई यात्री तो आउटर में ट्रेन को छोड़कर ऐसे चल देते हैं, जैसे कोमा में गये जिस्म को छोड़कर उनकी आत्माएँ। कई मंजिल की प्रतीक्षा में बेचैन हो जाते हैं और कई सफर के हर पल का आनन्द उठाते हैं। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप जीवन की इस रेलगाड़ी को कैसे जीते हैं।