27.11.16

क्या करेंगे अँधेरा देखने वाले!

सोंचता हूँ
क्या करेंगे अँधेरा देखने वाले
अगर सत्ता उन्हीं की हो?
फाँसी चढ़ा देंगे जिन्होंने छपाई की नहीं पक्की
या बाँट देंगे घरों में मशीने
छाप लो नोटें अपने मन मर्जी
क्या करेंगे?
कोंच देंगे कलम को बायें गाल पर चाँद के
या तोड़ देंगे नोक
सो रहेंगे चैन से अंधेरी गुफा में!
क्या करेंगे ?
तोड़ देंगे मंदिर हमारे
गाढ़ देंगे उगते सूर्य को भी
गहरे कुएँ में!
क्या करेंगे?
मंत्री उन्हीं के हों
राजा उन्ही का हो
क्या करेंगे अँधेरा देखने वाले
अगर सत्ता उन्हीं की हो?

सुबह की बातें-3

धमेख स्तुप के ऊपर 

कौए अधिक थे
कबूतर कम
तोते
कर रहे थे टांय-टांय
कर रहे थे भगवान से प्रार्थना
कह रहे थे...
कौए बढ़ रहे हैं, कबूतर उड़ रहे हैं
कुछ करो!
यह अच्छी बात नहीं!

हंसने लगा
उगता सूरज
बुद्ध नहीं,
यह लड़ाई
कबूतरों को ही लड़नी है
तुम भगवान से प्राथना मत करो
आलोचना मत करो
उत्साहित करो
कबूतरों को
कौए भाग जायेंगे.



21.11.16

ट्रेन हादसा

अब
खुशी नहीं होती
जब
तेज रफ़्तार से चलती है ट्रेन
डर लगता है

एक पुल
आया था अभी
थरथराया वो
और..
डर गया
लोहे का घर!

सुनी थी चीखें
इसके यात्रियों ने
कल देर रात तक
टी.वी. पर
दिखाये थे रिपोर्टर ने
एक के ऊपर एक
चढ़ी हुई बोगियाँ
हस्पताल जाते
घायल यात्री
जमा किये गये
लावारिश झोले,
शादी के कार्ड,
दुल्हन के हार,
और भी बहुत कुछ...
कलेजा मुँह को आ जाता
जब बजते
झोले में रखे मोबाइल!

आह!
आज सुबह
ढूँढ रहे थे हम
अखबार के पन्नों पर
अपनों के शव
ली थी न संतोष की सांस ?
मगर
फूट-फूट कर रोये होंगे वे
पूरी हुई होगी
जिनकी खोज

मुआवजा!
नहीं दे पाओगे सरकार!!!
कुछ जख्म ऐसे होते हैं
जो मरने के बाद ही जाते हैं
अब तो
समझ में आ गया होगा न ?
गाड़ी पटरी पर चलाना
हँसी-खेल नहीं

दंभ मत करो !
गंदे
शहर ही नहीं,
मैली
नदी ही नहीं,
जाली
नोट ही नहीं,
जर्जर है
पूरी की पूरी
व्यवस्था.
................

20.11.16

नोट बंदी से निकले दोहे


उजला काला हो गया, बंद हुआ जब नोट.
झटके में जाहिर हुआ, सबके मन का खोट..


चलते-चलते रुक गया, अचल हुआ धन खान.
हाय! अचल धन पर गड़ा, मोदी जी का ध्यान..


जोर-जोर से हो रहा, चोर-चोर का शोर.
कोई काजल चोर है, कोई अँखिए चोर..


लोभ लपक बच्चा बढ़े, बूढ़ा पकड़े मोह।
निरवंशी घातक बड़ा, व्यापे लोभ न मोह।।

दो पैग ने भुला दिया, मोदी जी का चोट.
चिल्लर-चिल्लर हो गया, दो हजार का नोट..


बिटिया की शादी पड़ी, सब प्रमाण तू ले.
ले! शादी का कार्ड ले, नयकी नोटिया दे..


चीर-फाड़ का दर्द है, अपनी आँखें मींच.
देख न अँधियारा सदा, उगता सूरज खींच..


सेवा बदले कर रहे, सोच-सोच कर चोट.
फिर जग में जाहिर हुआ, वाम सोच में खोट..


राजा चलनी तेज कर, ले ले सबकी वाह!
गेहूँ साथै घुन पिसे, मुख से निकसे आह!

......


लोहे का घर-22 (नोट बंदी)

नोट बंदी के फैसले के बाद लोहे के घर में बदहवास 500 के पुराने नोट लिये यात्री अब नहीं दिखते। 8 तारीख के बाद तो यह स्थिति थी कि लालच देकर यात्री भिखारी/वेंडरों से छुट्टा मांग रहे थे। एक भिखारी ने तो झटक ही दिया था-हमको बेवकूफ समझे हो क्या?
अब लोग सिर्फ तारीफ करते हुए ही मिलते हैं। बस जरा सा छेड़ दो। बस इतना कहो कि मोदी ने सब सत्यानाश कर दिया। फिर देखो! कैसे लोग आपको समझना शुरू करते हैं। केजरीवाल की तरह कह कर देखो-बहुत बड़ा घोटाला है! सब आप पर टूट पड़ेंगे। कम नोट मिलने से लोग परेशान हैं लेकिन फिर भी गजब का संतोष और खुशी झलकती है चेहरे से। स्लीपर बोगी में चढ़ने वाले ये वो लोग हैं जिन्होंने परेशानी के सिवा कुछ नहीं पाया लेकिन खुश हैं कि जिन्होंने गलत ढंग से बोरियाँ भरी हैं वे मारे गये।
प्रधान मंत्री जी ने बहुत बड़ा ख़्वाब दिखया है लेकिन लोगों को भयंकर कष्ट का भी सामना करना पड़ रहा है। राजनैतिक दलों द्वारा सहयोग के स्थान पर अपनी पूरी ताकत विरोध में झोंक दी है। कुछ चैनल नकारात्मक खबरें अधिक परोस रहे हैं। सबकी मंशा यही लगती है कि आम आदमी तकलीफों से झुंझलाकर बगावत कर दे। समर्थन के स्थान पर विरोध करना शुरू कर दे। फैसला वापस लेना पड़े। दूसरी तरफ फैसला वापस लेने का मतलब मोदी जी का राजनैतिक सन्यास। फैसला वापस लेने का मतलब है लोगों के ख्वाबो का टूटना। जब ख़्वाब टूटते हैं तो दिल भी टूटते हैं। टूटे आदमियों की आँखों में नये ख़्वाब नहीं तैरते। कुल मिलाकर भारत एक कुरुखेत्र के मैदान में खड़ा है। जारी है संघर्ष। देखें..आम आदमी बच पाता है या ...मोदी जी के साथ आम आदमी भी टूट जाता है। अभी तो दांव पर आम आदमी ही लगा है। एक लाइन याद आ रही है...
जितने ऊँचे ख़्वाब दिखाओगे राजा, उतनी गहरी चोट लगेगी सीने में।
हमारी इच्छा है कि सत्ता हारे या विपक्ष आम आदमी टूटने न पाये। आखिर सभी आम आदमी के लिए ही तो परेशान हैं।
......
भंडारी स्टेटशन पर #एटीएम आज भी चालू था। मात्र 10-12 लोग खड़े थे। अपनी #ट्रेन एक घण्टे लेट थी। समय ही समय था। मैंने सोचा आराम से 2000/- निकाल सकता हूँ। तभी याद आया...मैंने कल ही #जीन्यूज की रिपोर्टिंग देखी थी जिसमें एक गरीब चौकीदार गुल्लक फोड़कर निकाले 3000/-में से फुटकर 1500/-रुपये जिसमें 100,50,20,10 के नोट थे बैंक में जा कर इसलिए जमा कर देता है कि दुसरे जरूरत मंदों को मिल जाय।
मेरे मन में भी ख्याल आया... मुझे पैसे की अभी कोई ख़ास आवश्यकता तो है नहीं, क्यों निकाला जाए? मैंने लाइन लगाने का विचार त्याग दिया। दस रुपये का चीनीयाँ बादाम खरीदा और फोड़-फोड़ कर खाते हुये लोगों को पैसा निकालते और खुश होकर लौटते देखने लगा।
........

मुझे नहीं लगता कि जितने पुराने नोट थे उतने ही नये नोट न छपे होने से भयभीत होने की जरूरत है। सभी नोट एक साथ प्रचलन में नहीं होते। प्रचलन में जितनी आवश्यकता होती है उतने छप चुके हैं। नोट कम देने का उद्देश्य भी यही लगता है कि लोग आवश्यकता के अनुरूप निकालें और बिना भय के खर्च करें। पूरे नोट छप जाते, ए टी एम सभी दुरुस्त हो जाते तब नोट बदलने की सोचते तो तब तक गोपनीयता भी नहीं रहती। 2000 के नोट छप रहे हैं यह जानकारी तो अखबार को हो ही गई थी। पुराने नोट बेकार हो जाएंगे यह भी जान जाते तो नोट बदलने का उद्देश्य कभी सफल न होता। मुझे तो जो प्रक्रिया सरकार ने अपनाई है वही बेस्ट विकल्प लगता है।
जनता को तकलीफ तो होनी ही थी। तकलीफ कम होती अगर सभी एक स्वर से साथ देते और इस पर राजनीति न होती। जितना विपक्ष राजनीति करता रहा, उतना ही मोदी जी आक्रामक होते गये। यह उनका अंदाज है जिसे आप जो नाम दें लेकिन शतरंज का खिलाड़ी होने के नाते मैं जानता हूँ कि अटैक इज द बेस्ट डिफेन्स।
एक चूक मुझे जो लगती है वह है समय का चुनाव। समय चुनते वक्त चार राज्यों में होने वाले चुनाव का नहीं, शादियों के मौसम और बोआई का ध्यान रखा जाना चाहिये था। एक महीने बाद या दो महीने पहले का समय अधिक उपयुक्त होता। विपक्ष को सरकार से यह प्रश्न पूछना चाहिए न कि विरोध के लिए विरोध करना चाहिए।
........................
#ट्रेन में फिर नोट बंदी की चर्चा। सुनते-सुनते कान पक गये। लोग बता रहे हैं किस नेता को नींद नहीं नहीं आ रही। किसने किस विभाग में कितना दबाव बनाया नोट बदलने के लिये। कौन नेता जोकरी कर रहा है, कौन हुकुर-हुकुर रो रहा है। लोग यह भी बता रहे हैं अब बैंक, एटीएम की लाइन बहुत कम रह गई। बहुत उत्साह है लोगों में। तरह-तरह के लोग तरह की बातें। इनको सुन कर किसी का नाम नहीं लिया जा सकता। कोई प्रमाण नहीं अपने पास। आम आदमी कह रहे है नेता रो रहे, उधर संसद में नेता कह रहे आम आदमी मर रहा। ये लोग पक्का झूठ बोल रहे होंगे। सही तो संसद में नेता लोग बोल रहे होंगे। बहुत कन्फ्यूजन है। सब #भक्त लग रहे हैं! लगता है ट्रेन से उतर कर दिया लेकर ढूंढना पड़ेगा विरोधियों को। जनता का दर्द जानने के लिए #ndtv देखना पड़ेगा या केजरी वाल जी का भाषण सुनना पड़ेगा। सबसे बड़ा, हिटलर और आतंकवादी जानने के लिये कांग्रेस के नेताओं को सुनना पड़ेगा। ये #लोहेकेघर के यात्री तो सभी #मोदी भक्त लगते हैं।

15.11.16

देव दीपावली

दिन भर 
लाइन में खड़े होने वाले 
रात भर 
दिवाली मनाते है!
हम बनारसी हैं
तम का मातम नहीं, 
अपने अंदाज से अँधेरा 
दूर भगाते हैं।

आज निकला था
थोड़ा बड़ा होकर
हुई थी आहट उसके आने की
दिखे थे
गंगा की लहरों में
चाँदनी के पद चिन्ह!
इतने दीप जले थे गंगा के घाटों पर
कि शरमा कर चला गया
पूनम का चाँद!

और तुम 
हमारे कष्ट का मातम मनाते हो?
अन्धेरा भगाने के लिये
हम मसान में
नृत्य करना जानते हैं।

6.11.16

भक्त और टी.वी. के समाचार चैनल

टी. वी. के समाचार चैनलों से एक निर्धारित समय में सत्य का ज्ञान क्या, देश-विदेश के सभी प्रमुख समाचारों का ज्ञान भी नहीं होता। भले ही ये चैनल निष्पक्ष होने का कितना ही दावा करें लेकिन चैनल खुलने से पहले ही हमारे दिमाग में उसके पक्ष का भान रहता है। हमें पता रहता है कि यह दक्षिण पंथी है या वाम पंथी। यह सरकार के कार्यों का गुनगान करने वाला है या हर बात का मजाक उड़ाने वाला है।
इन चैनलों के एंकर भी वाकपटु और गज़ब के अभिनेता होते हैं! ये अपने पक्ष के कुशल वैचारिक वकील होते हैं। किसी एक एंकर को आपने अलग-अलग विचारधारा वाली दोनो पार्टियों के समर्थन में खड़े नहीं देखा होगा। जबकी ऐसा संभव है कि किसी मुद्दे पर किसी पार्टी का नजरिया सही और किसी दूसरे मुद्दे पर विरोधी पार्टी का नजरिया सही रहता हो। ऐसा इसलिए होता है कि ये एंकर किसी एक पक्ष के #भक्त होते हैं। और भक्तों से निष्पक्ष होने और सत्य सुनने की उम्मीद पालना ही व्यर्थ है।
सोसल मीडिया भी इसके प्रभाव से वंचित नहीं। कोई क्रांतिवीर की जय जयकार करता है तो कोई विदूषक की विद्रूपता पर लहालोट होता है। पत्रकारिता स्वतंत्र तो है मगर निष्पक्ष प्रतीत नहीं होती। ऐसे में आम आदमी का बुरी तरह कनफ्युजिया जाना और सोचते-सोचते नरभसिया जाना संभव है।
ऐसे माहौल में कितने ही आत्मचिंतकों ने टीवी में समाचार देखना ही बंद कर दिया है! ऐसा नहीं कि वे समाचार देखना नहीं चाहते। समस्या यह है कि उनके पास उपदेश सुनने का वक्त नहीं है। अखबार भी अछूते नहीं हैं लेकिन इसमें समाचार अलग और विचारकों के विचार अलग पृष्ठ पर होते हैं। हम समाचार पढ़ कर आलेख वाले पृष्ठ पलट सकते हैं। टी.वी. के समाचार चैनल बदलो तो जहाँ जाओ वहीं खुराफात!
आप विचारों से भागना नहीं चाहते और टी.वी. देखना भी है तो ऐसे माहौल में दो विकल्प नजर आता है। पहला यह कि आप किसी से मत कहिए मगर खुद से मान लीजिए कि आप फलाने के भक्त हैं। अब अपने पक्ष वाला चैनल देखना बंद कीजिए और विपरीत विचारधारा वाले चैनल देखिए। शुरू में तो तनाव बढ़ेगा लेकिन संभव है, धीरे-धीरे तटस्थ होकर सोचना शुरु कर दें।
यदि आप भक्त नहीं हैं, दोनो प्रकार की विचारधारा को पढ़, सुन सकते हैं तो अभी आप में सत्य जान पाने की संभावना बची है। भीड़ से सटकर खड़े होने और पीछे-पीछे भागने से अच्छा भीड़ से हटकर यह जानना है कि यह भीड़ जा कहाँ रही है? क्या यही अपनी मंजिल है? क्या यह राष्ट्र हित में है? वैसे भक्त बन भीड़ में गुम हो जाना और पीछे-पीछे जयघोष करते हुए चलना सुकून भरा निर्णय है और भीड़ से हटकर खड़े होना, बेचैनी पैदा करने वाला।

जहाँ तक सरकार द्वारा किसी चैनल पर एक दिन का सांकेतिक प्रतिबंध लगाने का प्रश्न है तो मैं इसे कमजोरी भरा निर्णय मानता हूँ. विचारों पर प्रतिबन्ध लगना लोकतंत्र की आत्मा को नष्ट करना है. चैनल बंद करना तो जनता के बांये हाथ का खेल है! यदि राष्ट्र हित में जरूरी है, चैनल द्वारा राष्ट्र विरोधी हरकत की जा रही है तो जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार को दूसरे और कठोर निर्णय लेने चाहिये.

29.10.16

पाण्डे के प्रश्न, तिवारी के उत्तर.............


पाण्डे के प्रश्न....

वेतन मिली त हो जाई खर्चा 
नाहीं त लागी मिर्ची के मर्चा
कपारे पे आयल हौ फिन से दिवारी 
देश कइसे चली अब बतावा तिवारी ?

लक्ष्मी के पाले लक्ष्मी जी गइलिन 
उल्लू के पीठी पे बोझा धरउलिन
कपारे पे आयल हौ फिन से दिवारी 
देश कइसे चली अब बतावा तिवारी ?

उल्लू उठाई लक्ष्मी क बोझा 
मजूरी मिली त पी लेई ताड़ी
मांगत बा आपन मजूरी, त्योहारी !
देश कइसे चली बतावा तिवारी ?


इहाँ हाथ में बस दुक्की अ तिक्का 
दुलहिन के चाही चाँदी क सिक्का !
कपारे पे आयल हौ फिन से दिवारी
देश कइसे चली अब बतावा तिवारी ?

उप्पर से राजा मिठाई खियावा
नीचे से दीया सलाई जलावा
बढ़े रोज कालिख त कइसन दिवारी
देश कइसे चले अब बतावा तिवारी?

तिवारी के उत्तर.............

मिठाई के भूखा जमाना हो पाण्डे,
पसारे ली हथवा जनाना हो पाण्डे,
चुनावन में देखा प्रजा के ढिठाई,

कि नेता से कइसे उ जोहे मिठाई,
जहां भोट दारू के बदले दियाइ,
त कइसे ना रजवा सलाई जराई।

जहां बड़का कॉलेजवा पढ़ावे गद्दारी,
त कइसे ओराइ उहाँ के अन्हारी?
अब कइसे बता पइहें कवनो तिवारी,
कि अइसन देवारी कि कइसन देवारी।

16.10.16

सुबह की बातें-2


यह धमेख स्तूप है. आज सुबह उसी के सामने लगभग २०० मीटर की दूरी पर बैठा था बेंच्च पर. सोचा एक तस्वीर खींच लूँ. खुद ही खुद की. मैंने इस खुदी को नाम दिया 'खुद्दम' अंग्रेजी वाले इसे कहते हैं ..selfie . मैं और मेरा साया, कोई दूसरा आदमी नहीं था बेंच पर. और दूसरे बहुत से साथी थे. नीम के कई घने पेंड़, इसमें दौड़ते गिल्लू, शाख पर बैठे तोते, घांस पर फुदकती मैना, पीछे डीयर पार्क में हिरण, कौए, कबूतर, मोर और भी दूसरे पंछी. साया भी तब नजर आने लगा जब सूर्यदेव निकले. उजाला न हो तो साया भी साथ नहीं होता. दौड़ने और टहलने के बाद यहाँ बैठकर आदमी और आदमी की बातों से दूर पंछियों की बातें सुनना, मृगों के साथ कौओं की शरारत देखना अच्छा लगता है.

आज जब मैं आया तो सबसे पहले मोर अपने पंख फैलाकर उड़ भागा फिर गिलहरियाँ नीम की शाख पर छिपकली की तरह सर-सर दौड़तीं पत्तों में छुप कर मुझे देखने लगीं, काले कौए ने कांव-कांव करी और तोते फुर्र से उड़ गए! आदमी कितना हेय प्राणी होता है!!! जिसे देखते ही सब भाग खड़े होते हैं. मुझे लगता है कि सब मुझे पहचानने लगे हैं. कभी निडर हो कुछ पास भी आ जाते हैं लेकिन फिर भी उनका विश्वास अर्जित नहीं कर पाया. मानव तन में तो यह आजीवन संभव नहीं लगता. बड़े भाग मानुष तन पायो! उंह! क्या भाग्य जब ये अराजनीतिक प्राणी मुझ पर विश्वास ही नहीं करते?
...........
धूप निकल आई है। छाँव है घने नीम के नीचे। चहुँ ओर आनंद की वर्षा का आलम है। एक तोता नीम की शाख से हवा में तैरता हुआ अनार के पौधों के बीच-बीच से निकलता हुआ फिर नीम में गुम हो गया। जाते-जाते उसने खण्डहर पर बैठी कौवी को आँख मारी या टाँय से छेड़ दिया कि साथी कौआ देर तक उसी दिसा में मुँह कर काँव-काँव करता रहा। कौए के चोंच इतनी चौडा़ई में खुलते, बंद होते कि लगा खा ही जायेगा तोते को। तोते की तरफ से फिर टाँय-टाँय की आवाज आई और कौआ पंख फैलाकर उड़ता हुआ घुस गया उसी नीम के पेंड़ पर। इधर कौवीउड़ी और हिरण के गरदन के ऊपर बैठ उसके कान में कुछ कहने लगी। हिरण ने हौले-हौले मुंडी हिलाई। कौवी संतुष्ट हो कौए की तलाश में उधर ही उड़ चली।

मार्निंग वाक करने वाले जा चुके। लाउड स्पीकर से समझ में न आने वाली भाषा में बुद्ध की स्तुती सुनाई पड़ रही है। मैं मौन रह कर बुद्ध के संदेश याद करने का प्रयास कर रहा हूँ। यहाँ, धमेख स्तूप और बुद्ध मंदिर के आस-पास सुख ही सुख है, कहीं कोई दुखी नहीं। संसार में फैला दुख मनुष्य के कर्मों का फल है। जैसे बुद्ध को सत्य का ग्यान हुआ और उन्होने संसार में आनंद की वर्षा की वैसे ही मूढ़, अभिमानी मनुष्यों के कर्मो से दुसरे निर्दोष प्राणी भी दुखी होते हैं।
कुछ पर्यटकों का झुण्ड है पार्क में। कुछ जोड़े फोटू-सोटू खिंचा रहे हैं प्रेम से। कुछ लड़के बढ़िया कैमरा ले कर फोटोग्राफी कर रहे हैं। एक लड़का दौड़ता हुआ आया और बोला-अंकल-अंकल आपकी बहुत सुंदर तस्वीर खींची है हमने। हमने उनको धन्यवाद के साथ अपना फोन नम्बर दिया। फोटो आया तो बताऊँगा उन्हें कि मैं बेचैन आत्मा हूँ। अभी नहीं बताया नहीं तो समझते अंकल बेवकूफ बना रहे हैं।

वक्त ने कहा- मेरे पास घड़ी नहीं है!

दुखी इन्सान ने कहा  
मेरा वक्त ख़राब चल रहा है
वक्त हँसने लगा
 
उसने कहा
वो वाला समय कितना अच्छा था!
वक्त फिर हँसने लगा

उसने ईश्वर से प्रार्थना किया
हे प्रभु!
मेरा वक्त ख़राब चल रहा है, अच्छा कर दो!
मेरा प्रसाद स्वीकार करो

पुजारी ने प्रसाद चढ़ा कर आशीर्वाद दिया
पंडित जी ने
लम्बी पूजा कराई और दक्षिणा लेने के बाद बोले
तुम्हारा कल्याण हो
तुम्हारे अच्छे दिन आने ही वाले हैं

वह खुश हो गया
उसके साथ
पंडित जी भी खुश हुए
पुजारी भी खुश हुआ
और तो और
मंदिर के बाहर खड़े
सदा रोते रहने वाले
भिखारी ने भी
अपने गंदे हाथ पसारे
उसने
भिखारी को भी
खुशी-खुशी एक रूपया दिया
और आगे बढ़ गया  

वक्त  
पागलों की तरह
ठहाके लगाने लगा!!!
मैंने पूछा
कितनी देर से ठहाके लगा रहे हो
कुछ पता भी है ?

वक्त ने कहा-
मेरे पास घड़ी नहीं है!
और...
फिर ठहाके लगाने लगा.
.............

10.10.16

मैं मार्निंग वॉक पर था.

धूप
अभी आई नहीं थी धरती पर
प्यास
अचकचा कर जगी और
दौड़ने लगी

पंछी दाने के लिए
चौपाये
चारे के लिए
मनुष्य
अपने और पालतू पेट के लिए
घरों से निकलने लगे

दूसरे भी नज़ारे थे
कोई तेज-तेज चल रहा था
कोई दौड़ रहा था
और कोई
अजीब-अजीब आवाजें निकालते हुए
रह-रह कर
दोनों हाथ हवा में
लहरा रहा था
यह भूखे-प्यासे की नहीं
खाये, पीये, अघाये लोगों की दौड़ थी
मगर इनमें भी
कोई तृप्त नहीं था

उस प्यास की
कोई एक मूरत होती तो
तस्वीर खींच कर
दिखा देता
मेरे हाथ में कैमरा था
मैं मार्निंग वॉक पर  था.

8.10.16

लोहे का घर-21

धुलि-धुलि धरती
पानी भरे खेत
उड़ते बगुले
खुला-खुला आकाश
लोहे के घर की खिड़की से
दूर-दूर
क्षितिज में दिखते
घने वृक्षों तक
जहाँ तक जाती है नज़र
आनंद ही आनंद
राधे-कृष्ण-राधे कृष्ण।
..........................................


लोहे का घर न होता तो जिंदगी कितनी विरान होती सुबह नाश्ता करके बैठो, साथियों से हाय-हलो करो, गांव की ताजी-ताजी हवा लो, हरी-भरी थरती को देखो और किस्मत हो तो और-और मजे भी लूट लो।
शाम दफ्तर से जितने भी थके-मादे छूटो, #ट्रेन में बैठते ही थकान गायब! अपने गोदी में लिटा कर झूला झुलाती, लोरी सुनाती ले जाती है ट्रेन। लोहे के घर के अलावा यह सुख क्या आपको अपने घर में मिल सकता है? कोई है जो आपको घर में इतना प्यार करे?
आप मजाक समझ रहे हैं और मैं सच्चाई बयान कर रहा हूँ। यकीन न आ रहा हो तो घर से 60 किमी दूर अपना ट्रांसफर करवा लो। और भी कई फायदे हैं दूर रहने के। कोई आफिस के काम के लिए आपको कभी तंग न करेगा। छुट्टी में जब घर में रहेंगे तो पूरे घर के रहेंगे।
सरकार को भी लाभ है। जब दफ्तर में होंगे, तो पूरे दफ्तर के बने रहेंगेे। दिन में आफिस से उठ कर न बच्चों की फीस जमा कराने जायेंगे न पत्नी के आदेश पर घर का समान पहुँचाने। पता चला घर में काम लगा है और जनाब भाग-भाग कर घर ही जा रहे हैं काम देखने।
आज अभी का हाल बताऊँ। सभी लेटे-लेटे झूल रहे हैं अलग-अलग बर्ध में। रूट डाइवर्टेड ट्रेन मिली है। पूरी बोगी खाली है। सामने लेटे आदमी की तोंद क्या मस्त हिल रही है! उधर बैठे सफेद दाढ़ी वाले की लम्बी दाढ़ी शांति का संदेश दे रही है। वीडियो देख आनंद विभोर हैं संजय जी। मिर्जा को छोड़ कोई और बेचैन नहीं दिखता पूरी ट्रेन में। जब से लेटा है जाने क्या लिख रहा है अपने मोबाइल में!
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क्यों लेटा वो आदमी? जैसे करेंट लग गया हो! मुझे लेटता देख दौड़ कर लेट गया!!! यह मेरी बर्थ है।
मैने कहा-आओ भाई लेटो। पूरी बर्थ तुम्हारी है, पूरा लेटो। उसके उठने से जो जगह खाली हुई वहाँ मैं बैठ गया। वो इतमिनान से लेट गया। लेटा है पर मुझे ही देख रहा है। लेटने के बाद भी उसे सुकून नहीं है। उसकी निगाहों में गहरी शंका है- बैठा आदमी इतना खुश क्यों है! मैं बैठा-बैठा लिख रहा हूँ, वो लेटा-लेटा मुझे देख रहा है। मेरे बैठने से पहले इसी स्थान पर वो बैठा था। शायद इतना खुश न था। अभी भी खुश नहीं दिखता! शायद सोच रहा है कि बैठ कर भी यह आदमी इतना खुश क्यों है?
अपनी #ट्रेन देर से रूकी है। भंडारी से चलने के बाद रुक गई। अभी एक स्टेशन भी नहीं चली और रुक गई। रुक गई तो रूक गई। अब किसकी ताकत है कि इसे चला दे? सरकारी है । कोई अरबारी-दरबारी तो है नहीं। जब मर्जी होगी तब रुकेगी, जब मर्जी होगी तब चलेगी। क्या मजाल कि आप प्रश्न करें! कोई यूरोपियन ट्रेन तो है नहीं कि लेट करने का कारण बतायेगी और हर्जाना भरेगी। भारतीय है। प्रभु जी की है। भक्तों को भगवान के निर्णय पर प्रश्न करने का क्या अधिकार?
अब चल रही है। चल क्या रही है, भाग रही है। लगता है झुंझलाकर चल रही है। पटरियाँ ऐसे बदल रही है कि पटरी छोड़ देगी! हे प्रभु! गुस्सा मत करो। आराम-आराम से चलो। न रुको न भागो। बनारस पहुँचा दो। हम क्या, पाकिस्तान भी घबड़ा गया है आपकी इस चाल पर।
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लोहे के घर को तपाना शुरू कर दिया सूर्य देव ने। धूप खिड़की से घुस कर पास बैठे यात्री को छू-छा कर आ/जा रही है। कोई शरारती लड़का शीशा चमका रहा हो जैसे! जहाँ बैठा हूँ वहाँ का माहौल बड़ा सभ्य टाइप का गुमसुम-गुमसुम, उदासी भरा है। 5 बुजुर्ग, 3 मजदूर और एक युवा हैं। युवा अखबार पढ़ने मे व्यस्त है, बुजुर्ग कुछ चिंतित दिखते हैं और मजदूर झपकी ले रहे हैं। कल शाम का माहौल कितना जुदा था!
कल शाम बड़ी भीड़ थी ट्रेन में। बमुश्किल जहाँ बैठ पाया था उसके ऊपर की द़ोनो बर्थ पर लड़कों का झुण्ड बैठा था। देख कर अंदाज लगाना मुश्किल था कि पढ़ने वाले लड़के हैं या कोई वानरी सेना! जूता पहने, इस बर्थ से उस बर्थ पर टांगे फेंके मोबाइल में गाना बजा रहे थे मगर कोई गाना सुन नहीं रहा था, सभी बोले जा रहे थे। नीचे से किसी ने हल्के से टोका-जूता तो उतार दो! तो झट उतार कर पंखे के ऊपर रख दिया। अब हवा के साथ धूल भी नीचे झरती रही और वे हा-हा, ही-ही करते रहे।
अपनी बर्थ से कुछ आगे चिड़ियों का झुण्ड बैठा था! जब चहचहाहट कान में गई तो बात साफ हुई। वे भी लगातार बोलते रहने वाली लड़कियाँ थीं। उनकी चहचहाहट लड़कों के ठहाकों से टकरातीं और प्रफुल्ल हो, लौटकर कानों में मिश्री घोलतीं। वे किसी कालेज की स्पोर्ट टीम के बच्चे थे जो किसी कम्पटीशन में भाग ले कर लौट रहे थे। वास्तविकता जान उनकी शरारतों पर गुस्से की जगह प्यार आने लगा था।
यह उम्र ही ऐसी है। इस उम्र में कुत्ते की टेढ़ी पूँछ देख कर भी हँसी आती है। पढ़ लिख कर भाग्य से नौकरी लग गयी तो फिर इनको हमारी तरह पटरी पर दौड़ना ही है। अभी बेपटरी हैं, ठीक हैं। झोला भर हँसी लिए घूम रहे हैं रस्ते में
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भंडारी स्टेशन जौनपुर में भोले बाबा की आरती खतम हुई । अब भजन शुरू हुआ...'सुखी रहे संसार, दुखी रहे न कोय' तक पहुँचते-पहुँचते गोदिया का एनाउंस शुरू हो गया। भक्त पाठ के बाद परसादी भी खा चुके। #गोदिया नहीं आई. अभी समय नहीं हुआ आने का। लगता है आज ठीक समय पर ही आयेगी। वरना 20 मिनट बिफोर रहती थी। इधर 'सुखी रहे संसार' खतम उधर गोदिया प्लेटफार्म पर। मगर हाय! अभी तक इंजन दिखा भी नहीं। इस #ट्रेन की प्रतीक्षा में पूरी टीम है जो कल की फिफ्टी में थे जिसमें चोरी हुई थी। अब दिख रहा है इंजन। हारन भी सुनाई पड़ रहा है। आ रही है गोदिया।
गोदिया आई तो हम सब मूंगफली खाने लगे। कोई खाता और छिलके सहेज कर रखता, कोई बार-बार खिड़की से बाहर फेंकने के लिए उठता। #मोदी जी ने मूंगफली खाने का मजा किरकिरा कर दिया! वो भी क्या दिन थे जब हम पूरी बोगी में छिलके उड़ाया करते थे! अब वे सीन देखने हों तो पैसिंजर की यात्रा करनी पड़ेगी। एक्सप्रेस में तो साफ-सफाई का इतना बवेला मचा है कि लोग छिलके फेंकने से लजाने लगे हैं। एक महिला मेरी बात सुन कर हँसने लगी-अच्छेे त हौ कि साफ-सफाई हौ। केतना अच्छा लगत हौ!
इस ट्रेन में शांति का माहौल रहता है, फिफ्टी में त्योहार का असर दिखता है। बिहार और पश्चिम बंगाल जाने वाले यात्री खूब होते हैं फिफ्टी में। बैठने भर की जगह भी नहीं मिलती। इसमें खूब जगह है। ताव से चल रही है पटरी पर। रोज के यात्री खुश हैं कि 5 दिनों की छुट्टी मिली है। हम सोच रहे हैं कि पूरे 5 दिन लोहे के घर से जुदा रहना पड़ेगा, क्यों न लम्वी यात्रा का प्रोग्राम बनाया जाये! आखिर 5 दिन कटेगा कैसे? क्यों न #आलूफैक्टरी की संभावनाओं पर शोध किया जाय इन छुट्टियों में?
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25.9.16

सुबह की बातें


खामोश हैं, वृक्ष सभी। आंगन में झरे नहीं हैं एक भी पत्ते। चल रही सांसें बता रही हैं कि हवा है। शिकायत के स्वर में चहक रहे हैं पंछी। अखबार वाला दे गया है अखबार। देर से खुली है नींद। दिल में उतर रहा है शुभ प्रभात.

अपने कॉलोनी में अशोक, कदम्ब और सागवान के वृक्ष लगे हैं. घर में प्रवेश द्वार की ओर अशोक, नीबू, बेला के अलावा एक गुड़हल का बूढा पौधा है जो अब फैलकर छत में भी पत्ते गिराने लगा है. वृक्ष अच्छे लगते हैं मगर इससे झरने वाले पत्ते अच्छे नहीं लगते. घर की तो जैसे तैसे सफाई हो जाती है मगर घर से बाहर कालोनी में रोज-रोज साफ़ करना संभव नहीं.कोई सफाई कर्मी कालोनी में नहीं आता. पहले कूड़ा उठने वाला आता था एक महीने से वो भी नहीं आ रहा. मैंने जमादार से एक झाड़ू बनवाई है. जब मैं झाड़ू लगाता हूँ तो अगल-बगल के लोग ललचाई नज़रों से मेरी झाड़ू को देखते हैं मगर कोई झाड़ू के लिए पैसे खर्च करना नहीं चाहता. कोई छोटी झाड़ू डंडे में बांध कर चलाता है तो कोई दस मिनट झाडू लगाने के बाद कमर पकड़ कर बैठ जाता है.कालोनी में झाड़ू लगाने वाले सेवानिवृत्त बुजुर्ग लोग हैं. किसी युवा के पास इस बेकार के काम के लिए फुर्सत नहीं है. आज छुट्टी थी तो सोचा स्वछता अभियान चलाया जाय.

एक घंटे पसीना बहाकर घर और आसपास के इलाकों की सफाई कर दरवाजे पर खडा ही हुआ था कि हवाओं को शरारत सूझी. झाड़ू लगाने तक तो शांत थे, सफाई होते ही तेज-तेज बहने लगे. सूखे पत्तों के ढेर उड़ने लगे. नए पत्ते झमाझम झरने लगे. दस मिनट में ही कालोनी की सड़क फिर वैसी हो गई जैसी झाड़ू लगाने से पहले थी. जब हवाएं प्रतिकूल हो जांये तो आपकी मेहनत का यूं ही कबाड़ा हो जाता है. झाड़ू लगाने से अच्छा है फेसबुक का मजा लिया जाय और बढ़िया-बढ़िया आदर्श बघारा जाय. :


बैठा हूँ धमेख स्तूप-सारनाथ के सामने लोहे की लम्बी कुर्सी पर। पसीना बहाने के बाद अब एहसास हो रहा है कि हवा बह रही है। घने नीम के वृक्षों से स्तूप और स्तूप से वृक्षों पर बैठ छुपन-छुपाई खेलते, गाते दूसरे पंछियों की तरह गा रहे हैं कौए भी।मार्निंग वाक करने वाले जा चुके हैं घूम-घाम कर। अब गाजे-बाजे के साथ आ रहे हैं बुदध के भक्त और स्कूल से भाग कर आये कमसिन जोड़े। सभी प्रेम में है। मुझसे 5-5 फीट की दूरी पर, अगल-बगल बेंच पर दोनो तरफ बैठे हैं एक-एक जोड़े। उनकी तस्वीरें खींचना अच्छी बात नहीं लेकिन शब्द चित्र तो उतार ही सकता हूँ। वे भी निश्चिंत प्रेमालाप कर रहे हैं। खुश हैं कि बुढ्ढा समझदार है, हमारी फोटो नहीं खींच रहा।
बायीं ओर का जोड़ा ठीक-ठाक है, दोनो बालिक हैं। सामान्य कपड़ों मे हैं। कुछ खा-पी रहे हैं। मुझे इनसे कोई परेशानी नहीं। परेशानी दाहिनी ओर बैठे जोड़े से है। दाहिनी ओर बैठा लड़का सामान्य ड्रेस मे है लेकिन लड़की स्कूल ड्रेस में! समस्या उनके प्रेम से नहीं, स्कूल के ड्रेस मे है। कालेज भी नहीं, स्कूल ड्रेस में!!! मुझे लगता है यह अपराध है। अपने साथ, अपने घर वालों के साथ और स्कूल के साथ भी। इस अपराध को रोकने की जिम्मेदारी किसकी है?

सन्डे के दिन मॉर्निंग वॉक के बाद फुर्सत में जब नीम के पेड़ के नीचे बैठता हूँ तो ऊपर शाख पर बैठे तोते मुझे खूब मन की बात सुनाते हैं। मुझे उनकी बातें टांय-टांय के सिवा कुछ समझ में नहीं आती। मैं तोतों को अपने पैरों के छाले दिखाता हूँ। वे देखा, अनदेखा कर उड़ जाते हैं। वे हरदम इतनी ऊँचाई से उड़ते हैं कि मेरे छाले देख ही नहीं पाते। मैं सोचता हूँ जब मेरे छाले नहीं देख पाते तो उनके कैसे देख पाएंगे जो पत्थर तोड़ते हैं!

पंछियों को पहचानता नहीं हूँ। इनको सुनता खूब हूँ, देखता भी हूँ मगर इनको इनके नाम से नहीं जानता। मोर की चीख, कोयल की कूक, कौए की काँव-काँव, बुलबुल का चहकना, तोते की टें, टें, कबूतरों की गुटर-गूँ और गौरैया की चहचहाहट तो समझता हूँ मगर इनके अलावा बहुत से पंछी हैं जिनके गीत तो सुनता हूँ, नाम नहीं जानता। नाम का न जानना मेरे आनंद लेने में कोई समस्या नहीं है। आनन्द लेने के मामले में मैं बहुत स्वार्थी रहा हूँ। कभी नाम जानने का प्रयास ही नहीं किया बस गुपचुप इन पंछियों के संगीत सुनता रहा। यही कारण है कि आज तक मैं इन पंछियों का नाम नहीं जान पाया। समस्या अभिव्यक्ति में है। आनंद देने में है।

शायद अपने पूर्वांचल में पंछियों के सबसे अधिक मुखर होने का यही मौसम है। भोर में...मतलब भोरिये में..लगभग 4 बजे के आस-पास..एक चिड़िया मेरे इकलौते आम की डाली पर बैठ कर सुरीले, तीखे स्वर में चीखती है। तब तक चीखती है जब तक मैं जाग न जाऊँ! जाग कर मैं उसी को सुनता रहता हूँ। कभी सोने का मन हो तो भगा कर फिर लेटा हूँ। वह फिर चीखी है..तब तक जब तक अजोर न हो जाय! मैं उसका नाम नहीं जानता। जानता तो बस एक वाक्य लिखता और आप समझ जाते कि मैं किस चिड़िया की बात कर रहा हूँ!

सारनाथ पार्क में मोर और कोयल के साथ संगत करती है एक चिड़िया। ऐसा लगता है जैसे जलतरंग बजा रहा है कोई! एक दूसरी प्रजाति वीणा की झंकार की तरह टुन टुनुन टुनुन ..की तान छेड़ती है। अब मुझे इन पंछियों के नाम मालूम होते तो आपको बताने में सरलता होती। फलाँ चिड़िया ने राग मल्हार गाया, फलाँ ने राग ...अरे! बाप रे!!! मुझे तो राग के नाम का भी ज्ञान नहीं। :(

कई बार और मजेदार बात हुई है। मॉर्निंग वॉक के समय पंछियों को खूब बोलते हुये सुन मैंने राह चलते ग्रामीण से पूछा है-दद्दा बतावा! आज चिरई एतना काहे गात हइन ? दद्दा ने जवाब दिया है-गात ना हइन। पियासल हइन, चीखत हइन! अब आप बताइये, कवियों के कलरव गीत पर अकस्मात सन्देह होगा या नहीं?
मिर्जा कहते हैं -पण्डित जी मैं आपको फूलों, पत्तियों और वृक्षों के नाम बताता हूँ, बाकी आपका काम है। अधिक पूछने पर बनारसी संस्कार दिखाते हुये झल्लाने लगते हैं-देखा! ....मत चाटा। ई नाम में का रख्खल हौ? मजा ला। कवि क ..आंट मत बना।
बड़ी समस्या है। अब मान लीजिये मुझे सबका नाम पता होता और लिख भी देता तो क्या आप समझ पाते कि मैं किस पंछी की बात कर रहा हूँ?। घने नीम के नीचे लेटना ही सुखद है, यहाँ तो नीम के कई वृक्ष हैं। दायें बाएं, दूर और दूर। नीम की शाख में तोतों के झुण्ड के झुण्ड तंय-टांय कर रहे हैं। 
सतियानास! धमेख स्तूप के पीछे बने जैन मंदिर से लाऊड स्पीकर से भजन बजने लगा! उनका ईश्वर प्रसन्न हो रहा होगा लेकिन मेरे आनंद में अब खलल पहुँच रहा है। सवा सतियानास! पीछे बुध्द मंदिर से भी लाउडस्पीकर बजने लगा! बुद्धम शरणम् गच्छामी! जय हो... बुद्ध कितने प्रसन्न हो रहे होंगे! 

24.9.16

लोहे का घर-20


एक झपकी सी लगी थी लोहे के घर में। बर्फिली पहाड़ियों से दिखते कास के फूल लहुलुहान हो गये थे सहसा! आ गया होऊँ जैसे युद्ध के मैदान में। नहीं, शामिल नहीं था किसी आत्मघाती दस्ते में। ऐसे दस्ते बनाने की मनाही है अपने देश में। पार कर रहा था पाक अधिकृत कश्मीर का आखिरी दर्रा अकेले ही। खलबली थी पाक खेमे में। ये कौन कर रहा है बमों की बारिश! बह रही थी खून की नदी। कर रहा था मेघ गर्जन। बिछी थी पाकिस्तानी सैनिकों की लाशें। गिन रहा था पागलों सा...एक हजार, दो हजार, तीन हजार.......सोलह हजार, सत्रह हजार..बस्स!!! इतने ही थे तुम्हारे? बहुत उछल रहे थे सत्रह को मारकर! आओ...और आओ...अब तो शुरू हो चुका है युद्ध।
विपरीत दिशा से आ रही दूसरे #ट्रेन की चीखती क्रासिंग से ध्यान भंग हुआ। धत्त! यह तो पागलपन है। कैसे-कैसे सपने आने लगे हैं दिन में भी! मिर्जा! ये कहाँ आ गये हम? कब आयेगा अपना पड़ाव?

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एक झोले में सब कुछ है। अपड़ा-कपड़ा, भगवान और दूसरे झोले में पानी का जग, खाने का सामान। उम्र 75 साल, भेष साध्वी का। जौनपुर से चढ़ी हैं, काशी जाना है। कहीं रामायण से आ रही हैं। शरीर कमजोर नहीं है, तनकर बैठी हैं। 14 बरस से छोड़ दी हैं घर-द्वार। बोले जा रही हैं...जब नहीं रहे भतार तो साथ हैं भरतार। वही भरता है, वही तार से तार जोड़ता है। पूछता हूँ...बीमार पड़ गईं तो? तपाक से दाहिने हाथ की तरजनी ऊपर कर बोलती हैं... वो नहीं है? वो नहीं देखेगा? मरने से पहिले हमको चारपाई पर रखेगा? बीमार करेगा तो कहाँ रहेगा? करेगा न कुछ व्यवस्था। पूर्ण आत्म विश्वास से भरी सुना रही हैं शिव भजन...आदि शंभु स्वरुप मुनीवर, चंद्र शीश जटा धरम....।
कोई नहीं है साथ, कोई नहीं घर बार, साथ है तो ईश्वर के प्रति गहरी आस्था, भक्ति और इसी के प्रभाव से दमकता, चमकता चेहरा। 'लोहे का घर' रोज कुछ नया दिखाता है, रोज कुछ नया सुनाता है।

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हवा में ठंडक है। गोधुली बेला में लोहे के घर की खिड़की से दिख रहे हैं झूमते आम्र वृक्ष। एक लड़का तेज साइकिल चलाकर भागा जा रहा है पगडंडी-पगडंडी। रोज के यात्री खुश हैं कि लेट है फरक्का। बोगी में भीड़ नहीं है। तेजी से बदल रहे हैं दृष्य। कुछ बड़े हो गये हैं धान। अभी उन्होने नहीं पहनी हैं बालियाँ। बरगद की जटा पकड़ कर झूल रहे हैं गांव के किशोर। धीमी हो रही #ट्रेन। लम्बे सरपत और फूले कास के बीच साइकिल के पीछे भाई को बिठा चली जा रही है सांवरी। आ गया जफराबाद। यहाँ भी खड़े हैं रोज के यात्री।
पानी वाले बादलों से घिरा है आकाश। दूर कहीं हो रही होगी बारिश। फिर रफ्तार पकड़ रही है अपनी ट्रेन। बूँदा-बांदी, झमा झम बारिश में बदल गयी सहसा! बंद हो गयीं घर की खिड़कियाँ। शीशे पर रेंगने लगीं बूँदें। अब मजा नहीं दे रही बारिश। बंद हो गई हैं लोहे के घर की खिड़कियाँ। घर मे उमस है, खेतों में जश्न मना रहे हैं कौए। भीतर लोग संभावित भारत पाकिस्तान युद्ध की कर रहे हैं चर्चा। कोई कह रहा है-होगा, कोई कह रहा है-कभी नहीं होगा। बाहर मस्त हैं परिंदे। लहलहा रही है धान की फसल। युद्ध चाहने वाले नहीं जानते कि शीशे पर तेजी से रेंग रही पानी के बुल्लों सी पल में मिट जायेंगी लाखों जिंदगी।
अब रूक चुकी है बारिश। खुल गयी हैं घर की खिड़कियाँ। अंधेरा ओढ़कर सोने के मूड में आ रही है धरती। परिंदे लौट चुके हैं अपने-अपने घंरौंदे में। सुखा रहे होंगे पंख। पटरी पर भाग रही है अपनी ट्रेन। हमारे खेतों को, परिंदों को एटमी हथियारों की नजर न लगे।
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पटरी पर भागता लोहे का घर। बिन जाली की आपात कालीन खिड़की। तेज हवा से फरफर उड़तीं मेरी जुल्फें। काश! तुम होती मेरी सीट पर और सामने बैठा मैं तुमहें निहारता रहता। बाहर अंधेरा है, न चाँद न चाँदनी। दूर कंकरीट के घरों में जुगनू की तरह टिमटिमाते बल्ब ही दिखाई दे रहे हैं। भीतर, बोगी में, बैठे-बैठे ऊँघ रहे हैं दो थकेमांदे।
चीखती, चिल्लाती रूक गयी ट्रेन। किसी ने चेन पुलिंग की है। पहले से 11 घंटे लेट है। किसी का करम फूटा, किसी का सोया भाग्य जगा। सही होती तो अपने को कहाँ मिल पाती! अब इस पिटी#ट्रेन के साथ इतनी छेड़-छाड़! यह अच्छी बात नहीं। फिर रफ्तार पकड़ लिया। शायद कह रही है-मेरी चाल तो यह है, मुँएं चलने दें तब न!
फिर चेन पुलिंग! यह तो हद है यार। कोई है? अरे! इस ट्रेन का नाम 'सदभावना' है। इसके साथ इतनी दुर्भावना क्यों? नान स्टाप को बार-बार स्टाप क्यों करते हो भाई? इस नीति से तो कोई सरकार अच्छे दिन नहीं ला सकती।
दफ्तर से लौटता, ट्रेन में बैठे-बैठे ऊँघता, थका-मांदा प्राणी ट्रेन रूकने पर चौंक कर जागता, कुछ भुनभुनाता, इधर-उधर देखता फिर ऊँघने लगता है। मुझे इनमें साक्षात #प्रभु के दर्शन हो रहे हैं। जागो सरकार! जागो। ट्रेन पर चल रही है मगर सबकुछ ठीक ठाक नहीं घट रहा। शरारती तत्व बार-बार चेन पुलिंग कर रहे हैं।
अच्छे भले रोमांटिक मूड का सतियानास कर दिया इस ट्रेन ने।

17.9.16

राजनीति

मिर्जा को शिकायत है कि हम राजनीति पर नहीं लिखते! मैं पूछता हूँ- राजनीति में लिखने लायक शेष बचा ही क्या है ? कीचड़ में कंकड़ फेकना और एक दूसरे के मुख पर उछालने की उमर नहीं रही। बचपन में करते थे लंठई मगर इतनी तो तब भी न होती थी।

अपने पास न बड़ा कुनबा, न धार्मिक कट्टरता, न जातिवादी मानसिकता, न आम आदमी सरीखी खास बनने की भूख और न पैसा ! राजनीति में जाने के एक भी गुण नहीं। जहाँ जा ही नहीं सकते उसके बारे में क्या लिखना! मेरे लिखने से किसी का ह्रदय परिवर्तित  हो जाये, कठिन तप करके  इतनी योग्यता भी नहीं .  फिर लिखना ही क्यों? जो विषय अपना नहीं उस पर दिमाग क्यों चलाना? सुबह किसी निर्णय से प्रभावित होकर कुछ लिख दिया, शाम को निर्णय वापस! लिखा हुआ गुण, गोबर हो गया! क्या फायदा?

मेरे इतना कहने पर भी मिर्जा मानता नहीं, कुनमुना कर एक शब्द हवा में उछालता  है....समाजवाद ? मैं कहता हूँ-चुप कर मिर्जा! मरवायेगा क्या? हम अमर नहीं, मर सकते हैं। समाजवाद कभी साकार न होने वाला वह सपना है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हर युवा को झकझोरता रहेगा, बुढ्ढे कहते रहेंगे कि समाजवाद की बड़ी लड़ाई उन्होंने ही लड़ी थी. अब आज के युवकों में वो बात कहाँ! और पीढ़ी दर पीढ़ी राजनेता समाजवाद के तवे को गर्म करते रहेंगे, इस पर अपने घर की रोटियाँ सेंकते रहंगे। न पूँजीवादियों की कमी होगी देश में न समाजवादियों की। पुरानी शराब नई बोतल में आती रहेगी। 

मिर्जा! मुझे रहने दे। मुझे उगते सूरज और चहचहाते पंछियों की बात करने दे, सफर का आनंद लेने दे। मंजिलें उनको मुबारक जो राज करते देश में। मुझे गोबर पाथती महिला, पशुओं के चारे के लिए सर पर बोझ ढोती घसियारिन, स्कूल जाते बच्चे और मजदूरी करते, काम पर जाते लोगों में विश्वकर्मा भगवान की एक झलक देख लेने दे। अपने जीवन संघर्ष के बाद शेष बचे दो पल इन्हीं सब में गुजर जाने दे। व्यक्ति के गुणों में राजनीति एक चमत्कार है। इससे बनती देश की सरकार है। इसे दूर से नमस्कार करने में भलाई है मिर्जा, चल!  यहाँ से निकल। इनकी नजर पड़ गई तो तू  गोल, हम लम्बे हो जायेंगे।

13.9.16

कुम्हार


कुल्हड़ हैं,
पुरुवे हैं,
दिये भी हैं
लोग
मिट्टी से
जुड़े भी हैं

अभी है
बनारस की मस्ती
अभी है
कुम्हारों की बस्ती.

श्रम कठिन,
सिमटता बाजार है
गरदन में
लटकती तलवार है
फैलते शहर,
सिमटते खेत,
गायब हो रही मिट्टी
मिट्टी ही
कच्चा माल है
अब इनका
बुरा हाल है
यही
विश्वकर्मा हैं,
यही
मजदूर हैं
सुख-सुविधाओं  से
कोसों दूर हैं

मेरे सामने
इक दरकता पुल है,
आ रही
अंधी गाड़ी है
और
कुछ कर न पाने की
लाचारी है.

अभी तो...
कुल्हड़ हैं,
पुरुवे हैं,
दिये भी हैं
लोग
मिट्टी से
जुड़े भी हैं.
....................

11.9.16

मैं न देखता तो....

एक चिड़िया बैठी
नीम की शाख पर
झर गया
एक पत्ता
न चिड़िया चहकी
न आवाज हुई
मैं न देखता तो
पता ही नहीं चलता
आप न पढ़ते तो
जान ही नहीं पाते
एक गिलहरी
ढूंढ रही है
डस्टबीन में
खाना
कुछ पा लिया है उसने
मुँह में दबाकर
भाग गई
खामोशी से
मैं न देखता तो
पता ही नहीं चलता
आप न पढ़ते तो
जान ही नहीं पाते
छांह
रेंगने लगी घांस पर
भाग रहा है
आकाश में
बादल का एक टुकड़ा
मैं न देखता तो
पता ही नहीं चलता
आप न पढ़ते तो
जान ही नहीं पाते
नंगे पांव
दौड़ती आई
एक बच्ची
बैठ गयी बेंच पर
देखने लगी
आँखें फाड़कर
तार पर बैठी चिड़िया को
चमकने लगा
उसका चेहरा
गजब थी
उसके चेहरे की
खुशी!
मैं न देखता तो
पता ही नहीं चलता
आप न पढ़ते तो
जान ही नहीं पाते
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9.9.16

लोहे का घर -19


लिटा कर अपने बर्थ में कहता है लोहे का घर-थके हो, आराम करो। खुशी न दे सको जमाने को तो दर्द के किस्से भी नहीं कहते।
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इंजन मजबूत हो, पटरियाँ सलामत तो तूफान से भी नहीं डरता। अंधेरे में भी चलता, प्यार से सुलाता, झूला झुलाता है 'लोहे का घर'। थके हो तो सो जाओ, ताकत है तो आपस में खूब बहस करो और मूड है तो जुड़ जाओ आभासी दुनियाँ से। जो मर्जी सो करो यह घर ऐसा, जिसमे नहीं कोई घर वाली, नहीं कोई घर वाला। कंकरीट का नहीं लोहे का है। यहाँ टिकट है तो कोई तंग नहीं करता।
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चलते-चलते धीमी हो रही है #ट्रेन की स्पीड। पटरियों की खटर-पटर सुनाई पड़ रही है। शायद कोई स्टेशन आने वाला है। यह सुपर फास्ट है, छोटे-मोटे टेसन को अंगूठा दिखाने के लिए धीमी होती है, ग्रीन सिगनल पाते ही हवा से बातें करने लगती है। रूकना तो कोई नहीं चाहता छोटे स्टेशनो पर मगर सब सुपर फास्ट नहीं होते । बहुतों की जिंदगी पैसिंजर की तरह रेंगने मे ही कट जाती है।
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कुछ दिनो की उमस भरी गर्मी के बाद मौसम सुहाना है। टिप-टिप बारिश का आनंद लेते हुए आ गये अपने 'लोहे के घर' में। पैसिंजर #sjv 50 मिनट विलम्ब से छूटी कैंट स्टेशन से। पूरी#ट्रेन में बिखरे हैं मूंगफली के छिलके। इसमे बैठो तो भारत के मिजाज का पता चलता है। दो बर्थ को अखबार से साफ कर बैठ गये रोज के यात्री। गमछा खुल गया। जम गई तास की चौकड़ी। #समय और #स्वच्छता ठेंगे पर। न तुम सुधरो न हम सुधरेंगे।
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खेत तो खेत स्टेशन भी डूबा है अंधेरे में! #ट्रेन चली तो किसी ने कहा -जफराबाद था। जफर आबाद कब हुआ भाई! दो गज जमी न मिल सकी....।
सत्तर साल की आजादी के बाद भी अंधेरे मे डूबे स्टेशन दिख ही जाते हैं। सारी रौशनी बड़े शहरों ने हड़प ली है शायद।
अंग्रेजों के जमाने का है जलाल गंज का पुल लेकिन थरथराता नहीं है। धड़धड़ा कर गुजर जाता है लोहे का घर। थोड़ी रौशनी है जलालगंज स्टेशन में। कोई अंधेरे मे डूबा, कहीं थोड़ी रौशनी और कोई रोशनी से चकाचौंध! बड़ी बेइंसाफी है यह। समाजवाद के झुनझुने मालगाड़ी पर लदे हैं क्या भाई! #किसान फिर अंधेरे में।
अब रफ्तार पकड़ी है ट्रेन ने। पटरियाँ बदलती है तो ऐसा लगता है जैसे झूला झुला रही है। घर के भीतर रौशनी है। रौशनी मे दिख रहे हैं ऊंघते, मुर्झाये हुए चेहरे। पता नहीं कौन सी मंजिल है सबकी! सफर में दुखी हैं, मंजिल पर पहुँच कर क्या उखाड़ लेंगे! इनसे तो बाहर का अंधेरा ही भला। दूर दिखते टिमटिमाते दिए ही भले। अंधेरों से जूझती जुगनू की रौशनी अच्छी।
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लोहे के घर मे सुबह-सुबह, बैठे-बैठे सोते हुए आदमी को देख मन कैसा तो बेचैन हो गया। लगा कि गलत सीट पर बैठ गये। तभी संजय जी का फोन आया-आवा गुरू! डाक्टर साहब क वीडियो चालू हौ।
एस-2 मे बैठे हैं डाक्टर साहब। लोअर बर्थ में स्पीकर से मोबाइल टिकाये बजा रहे हैं पुराने फिल्मी गीत। आवाज दे कहाँ है, दुनियाँ मेरी जवाँ है। ....ले के पहला-पहला प्यार, भर के आँखों में खुमार, जादू नगरी से आया है कोई जादूगर...।
बाहर हरी-भरी थरती, पटरी पर चलता लोहे का घर और भीतर डाक्टर साहब का मस्त वीडियो। स्पीकर और फोन इतना बढ़िया कि लग रहा घर मे टी.वी देख रहा हूँ। कहाँ वह मनहूस सोता हुआ आदमी, कहाँ ये मस्ती बिखरते डाक्टर साहब!
दरअसल सभी तरह के लोग होते हैं दुनियाँ में, बात सिर्फ इतनी सी है कि आप किसके पास बैठे हैं!।
बज रहा है गीत.....
सब कुछ सीखा हमने ना सिखी होशियारी, सच है दुनियाँ वालों हम हैं अनाड़ी।
सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है....अकड़ किस बात की प्यारे, खुदा के पास जाना है।...
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बाहर वही अंधेरा, भीतर वही शोर। पटरी पर भागता 'लोहे का घर', घर जाते रोज के यात्री। कोई काहू मे मगन, कोई काहू मे मगन। कोई मोबाइल नेटवर्क मे व्यस्त, कोई फालतू की नोंक झोंक मे। कोई-कोई कान मे तार ठूँस देख रहा है फिलिम।
जलालगंज स्टेशन पर रुकी है #ट्रेन। स्टेशन में भी अंधेरा है। क्यों रूकी थी, नहीं पता। रूकी थी तो दुखी थे, चलने पर खुश हुए सभी। जिंदगी की गाड़ी भी जब रूकती है तो घबड़ा जाता है आदमी। समस्या खतम होते ही प्रसन्न हो जाता है। जितनी बड़ी समस्या, उतनी बड़ी खुशी। बड़े सुख की चाहत हो तो बड़े दु:ख को सहने के लिए कलेजा मजबूत करना होता है। यही नहीं कर पाता आम आदमी। पैसिंजर की तरह जो रेंग कर चलते हैं, बार-बार दुखी होते हैं। सुपर फास्ट वालों की जिंदगी में ठहराव की दूरी थोड़ी लम्बी होती है।
यात्री अब थोड़ी बेचैनी मे हैं। जो खुशी ट्रेन पकड़ते समय इनके चेहरों पर थी, खत्म हो चुकी है। अब व्यग्रता है। घर जल्दी पहुँचने की बेचैनी है। मंजिल पास आने का एहसास हो चुका है। आपस की हँसी-ठिठोली खतम हो चुकी है। घर के काम याद आ रहे हैं। आफिस की चिंता से मुक्त हुए अभी बहुत समय नहीं बीता कि घर की चिंता सवार हो गई! खुशी, पटरी के उस पार बिजली के तार पर बैठी शरारती चिड़िया की तरह, पल में ओझल हो जाती है। जिंदगी की ट्रेन/ खुशी के प्लेटफार्म पर/ अधिक देर रूक ही नहीं पाती है।
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