29.1.13

थका मादा



देर शाम
सब्जियों का भारी झोला उठाये
लौटते हुए घर
चढ़ते हुए
फ्लैट की सीढ़ियाँ
सहसा 
कौंध जाती है ज़ेहन में
पत्नी के द्वारा दी गई 
सुबह की हिदायतें
और
ज़रूरी सामानो की लम्बी सूची...!

आते ही ख़याल
भक्क से उड़ जाती है
(घर को सामने देख भूले से आ गई)
चेहरे की रंगत
और वह 
अगले ही पल 
भकुआया
दरवज्जा खटखटाते काँपता
देर तक
हाँफता रहता है।

उस वक्त, वह मुझे
थका कम 
मादा अधिक नज़र आता है!

शायद इसीलिये
दफ्तर से देर शाम घर लौटने वाला
थका माँदा नहीं,
थका मादा कहलाता है।

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27.1.13

चश्मा



चश्मा ले लो, चश्मा!

हिंदू चश्मा
मुस्लिम चश्मा
अगड़ा चश्मा
पिछड़ा चश्मा
अनुसूचित जाति का चश्मा
जन जाति का चश्मा
भांति-भांति का चश्मा

चश्मा ले लो, चश्मा!

इस चश्मे को पहन के नेता
पहुँचे संसद हाल में
इस चश्मे को पहन के 'नंदी'
साहित्य के आकाश में
इस चश्मे के बिना अब तो
पढ़ना-लिखना मुश्किल है
इस चश्मे के बिना अब तो
रोजी-रोटी मुश्किल है

चश्म ले लो, चश्मा!

आदमी वाला मुखौटा
चेहरे पर तो जंचता है
बिन इस चश्मे को पहने वह 
अंधे जैसा दिखता है
बच्चे के पैदा होते ही
दौड़ौ, उसको पहनाओ
कहीं देख ना ले वह दुनियाँ
बाद में उसको नहलाओ

सभी दुखों की एक दवा है
पहनो और पहनाओ तुम
होड़ लगी है सबमे देखो
कहीं पिछड़ ना जाओ तुम

चश्मा ले लो, चश्मा!

प्रथम परिचय में तुमसे
चश्मा पूछा जायेगा
सिर्फ आदमी बतलाना
किसी काम न आयेगा
चश्मा एक हुआ तो समझो
यारी तेरी पक्की है
चश्मा अलग हुआ तो समझो
यारी बिलकुल कच्ची है।

चश्मा ले लो, चश्मा!

जैसी देखो भीड़ खड़ी है
तुम झट वैसे हो जाओ
कई किस्म के चश्मे रख लो
वक्त पे सबको अज़माओ
सब ताले की कुंजी भी मैं
चाहो तो दे सकता हूँ
पैसा थोड़ा अधिक लगाओ
बड़े काम आ सकता हूँ
धर्मनिरपेक्षता नाम है उसका
सबके संग खप जाता है
इसको पहन के जो चलता है
बुद्धिमान कहलाता है।

चश्मा ले लो, चश्मा!
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22.1.13

ये नेता हैं या मच्छर हैं...!

फेसबुक में अक्षरों को पढ़ता हूँ। नेताओं पर लिखे स्टेटस को पढ़ता हूँ तो लगता है नेता भी मच्छर की तरह हैं। अक्षर-अक्षर मच्छर नज़र आते हैं। सोचा क्यों न इन पर एक कविता लिखी जाय!

नेता

ये नये किस्म के मच्छर हैं
कुछ उल्टे-पुल्टे अक्षर हैं
ये सीधे हैं तो 'गुंडे' हैं
गर उलट गये तो 'डेंगू' हैं।

ये ठहरे पानी में उगते
फिर अनायास बढ़ जाते हैं
ये जिनको काटा करते हैं
वे मिट्टी में गड़ जाते हैं।

ये पहले चरण पकड़ते हैं
फिर सीने से लग जाते हैं
जब असली नेता बनते हैं
तब खून चूसकर जीते हैं।

ये भेष बदलना जाने हैं
ये देश निगलना जाने हैं
मरते नहीं  आलआउट से
ये ज़हर निगलना जाने हैं।

पहले  भी थे, थोड़े थे
नासूर नहीं बस फोड़े थे
जो गुंडे थे वे गुंडे थे
जो मच्छर थे वे मच्छर थे।

वे जिनके एक इशारे पर
हम शीश कटाया करते थे
अपनी इस पावन धरती पर
ऐसे नेता भी रहते थे।

जनता से पहले खुद बढ़कर
वे अपनी जान लुटाते थे
बस एक नस्ल के होते थे
गर नेता थे तो नेता थे।

तुम ढूँढो ऐसी नस्लों को
ये कहीं खतम ना हो जायें
कल बच्चे गर इतिहास पढ़ें
तब खुद पर वे ना शरमायें।

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18.1.13

घोंघा

कुछ घालमेल हो रहा है। चित्रों का आनंद लेते-लेते कविता बन जा रही है। अपने ब्लॉग "चित्रों का आनंद" में गंगा जी की कुछ तस्वीरें लगाने लगा तो एक कविता अनायास बन गई। अब उसे यथा स्थान यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ।


घोंघा

कभी
तुममे था
जीवन !
रेत कुरेदने पर 
निकल आये हो 
बाहर।

अब खाली हो
असहाय
खालीपन के
एहसास से परे

बन चुके हो
खिलौना
खेलते हैं तुम्हें
रेत से बीन-बीन
बच्चे

ढूँढता हूँ तुममें
जीवन
काँपता हूँ
भरापूरा
अपने  खालीपने के
एहसास से!

मैं
घोंघा बसंत।
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10.1.13

क्या अच्छा पड़ोसी होना मेरी ही जिम्मेदारी है?

गतांक.. कुत्ते से आगे......( पहले वाली न पढ़ी तो कृपया पढ़ने के बाद इसे पढ़ें )


अभी कुछ वर्षों पहले की बात है
मेरे पड़ोसी के कुत्ते
इतने ताकतवर हो गये थे
कि उन्होने अपने घर में ही विद्रोह कर दिया!
अपने मालिक को घर से बाहर निकाल दिया
और अपने नेता को
पूरे घर का मालिक बना दिया !

शुरू में तो मैने इसका विरोध किया
लेकिन फिर
उनके घर का आंतरिक मामला मानकर
उसे ही
घर का मालिक मान लिया।

एक दिन
अपने घर के सदस्यों की इच्छाओं की परवाह किये बगैर
अपने घर बुलाया
अच्छा से अच्छा खाना खिलाया
ताजमहल घुमाया
घर का वह कोना भी दिखाया
जहाँ वह
झगड़े से पहले पैदा हुआ था
क्या 'पिल्ले' की तरह
कूँ कूँ कर
नाचा था वह खुश होकर!

मुझे लगा
अब तो इसे सदबुद्धि आ ही जायेगी
घंटो उससे बात की
समझाता रहा
"भाई!
मुझे तुम्हारे घर के कुत्ते
बहुत परेशान करते हैं
उनसे कहो
मुझ पर भौंकना बंद कर दें।"

मगर अफसोस
जाने से पहले
वह मुझ पर भी
भौंकता हुआ चला गया!

क्या अच्छा पड़ोसी होना
सिर्फ मेरी ही जिम्मेदारी है?

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9.1.13

कुत्ते


मुझे
जितना क्रोध
अपने पड़ोसी के कुत्तों पर आता है
उससे कम
पड़ोसी पर नहीं आता !
उसे इन्हें
रखना तो आता है
संभालना नहीं आता।

जब भी मैं
ताजी हवा के लिए खिड़कियाँ खोलता हूँ
या सुबह के स्वागत में पलकें बिछाये
उनिंदी आँखों से बैठता हूँ
ये मुझ पर
अनायास भौंकने लगते हैं!

मेरे घर की छत
उरी की पहाड़ियाँ तो नहीं
जो मुझे
यहाँ भी झेलनी पड़ती है
इतनी फज़ीहत!

ऐसा भी नहीं
कि जब ये आपस में
एक दूसरे के खून के प्यासे हो
लड़ते-मरते हैं
मैने इन्हें नहीं बचाया

इन सबके बावजूद
आखिर क्यों काटना चाहते हैं
मेरी गर्दन?
क्यों पकड़ना चाहते हैं
मेरी बाहें?
और क्यों सहता रहता हूँ मैं यह सब!!

क्या अच्छा पड़ोसी होना
सिर्फ मेरी ही जिम्मेदारी है?

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8.1.13

सामंतवादी!


एक हाथी
देश में
शान से घूमता है!

ठहरता है जिस शहर
चिंघाड़ता है..
"मेरे विरोधी कुत्ते हैं
मुझ पर अनायास भौंकते हैं
मैं उनकी परवाह नहीं करता!"

विरोधी बौखलाते हैं
भक्त
मुस्कुराते हैं।

हाथी
भारत या इंडिया में
अपने से नहीं चलता
उसे कोई महावत चलाता है
महावत और कोई नहीं
हमारी सामंतवादी सोच है

जिसे हमने
सदियों से
हाथी की पीठ पर बिठा रखा है!

यह वही सोच है
जो महिलाओं को
कभी घर से बाहर निकलते
काम करते
अपने पैरों पर खड़े होकर
मन मर्जी से जीवन जीते
नहीं देखना चाहती।

यह सोच
कभी हाथी पर
कभी पोथी पर
कभी नोटों की बड़ी गठरी पर सवार हो
सीने पर मूंग दलने
चली आती है।
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