23.12.13

फेसबुक से..

इधर बहुत दिनो से कुछ अच्छा नहीं लिख पाया। थोड़ा बहुत फेसबुक में ही सक्रीय रहा। वहाँ लिखे अपने कुछ स्टेटस जो मुझे अच्छे लगे यहाँ सहेज रहा हूँ....


पतंग

उड़ रही हैं पतंगें
लगा रही हैं ठुमके
लड़ रहे हैं पेंचे
कट रही हैं
गिर रही हैं
लूटने के लिए
बढ़ रहे हैं हाथ
मचा है शोर…
भक्काटा हौsss

जब नहीं होती
हाथ में कोई डोर
हाथ मलते हुए ही सही
आपने भी महसूस किया होगा...
कि उड़ने में
ठुमके लगाने में
पेंच लड़ाने में
कटने में
और
कटकर फट जाने/लुट जाने में
पतंग का कोई हाथ नहीं होता ।
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अकेले में...

अकेले में
चीनियाँ बदाम 
फोड़ता हूँ 
कभी कोहरा
कभी 
रजाई ओढ़ता हूँ।
तू 
‘दिसम्बर’ की तरह
नहीं मिलती मुझसे
मैं 
‘दिगम्बर’ की तरह
नाचना चाहता हूँ।

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बसंत की आहट

इस पार से उस पार तक 
कोहरा घना था 
सूरज का 
आना-जाना मना था
उड़ रहे थे
साइबेरियन पंछी
सुन रहा था
मौन
आ रही थी
बसंत की आहट
बह रही थी नदी
कल-कल-कल।
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14.12.13

बहुत दिनो के बाद....


बिटिया हॉस्टल से घर आई
बहुत दिनो के बाद
मैं भी दूर शहर से आया
बहुत दिनो के बाद
ठाकुर जी के बरतन चमके 
बहुत दिनो के बाद
सभी फूल इक थाल सजे हैं
बहुत दिनो के बाद
पत्नी ने पकवान बनाये
बहुत दिनो के बाद
महरिन घर का रस्ता भूली
बहुत दिनो के बाद 
चूहे उछल-उछल कर नाचे
बहुत दिनो के बाद
बिल्ली ने की ताका-झांकी
बहुत दिनो के बाद
चर्खी चिड़ियाँ चीख रही थीं
बहुत दिनो के बाद
घर को गहरी नींद आ गई
बहुत दिनों के बाद
बाबा! तेरी याद आ गई 
बहुत दिनो के बाद।
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4.12.13

रोज़ के यात्री



सुबह-शाम
टेशन-टेशन दौड़ते हैं
ट्रेन के
आने-जाने का समय पूछते हैं
कभी पैसिंजर
कभी सुपरफॉस्ट पकड़ते हैं
पैसिंजर पकड़कर दुखी
सुपरफॉस्ट में चढ़कर प्रसन्न होते हैं

रोज़ के यात्री
धीरे-धीरे
जान पाते हैं
कि वे
जिस ट्रेन में सवार हैं
वह पैंसिजर नहीं है
सुपरफॉस्ट भी नहीं
इसकी गति निर्धारित है
इसमें
बस एक बार चढ़ना
इससे                            
बस एक बार
उतरना होता है
यह किसी स्टेशन पर नहीं रूकती
बस..
खिड़की से देखकर होता है आभास
कि वह बचपन था
यह जवानी
अब आगे बुढ़ौती है
कब चढ़े
यह तो
सहयात्रियों से जान जाते हैं
उतरना कहाँ है ?
कुछ नहीं पता।

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1.12.13

मैं अकेला हूँ !



नौकरी से बंधा हूँ
घर छोड़
शहर के एक छोटे से कमरे की चौकी पर पड़ा हूँ
मैं अकेला हूँ!

जिस्म जिंदा है
इसका प्रमाण
हवा में उड़ते मच्छर हैं
जो रगों में दौड़ते
लहू से बंधे हैं।

कमरे में
रोशनदान के पास
मकड़ी के जाले हैं
जाले से
कीट-पतंगे
कीट-पतंगों से छिपकली बंधी है

आदमी के पेट में नहीं
जमीन पर
चूहे दौड़ते हैं
चूहों का अपना पेट, अपनी भूख होती है
इस सच के अलावा
मेरे गले में
एक बड़ा-सा झूठ बंधा है
मैं अकेला हूँ!

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