30.5.12
25.5.12
कन्या भ्रूण हत्या
कन्या भ्रूण हत्या पर खूब चिंतन हो
रहा है। भयावह आंकड़े प्रस्तुत किये जा रहे हैं। सभी यह मान रहे हैं कि यह जघन्य
अपराध है। इसके लिए स्त्री को या डाक्टर समुदाय
को दोषी ठहराया जा रहा है। जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। वह तो सीधे
गर्भ में प्रवेश कर कन्या की चित्कार सुन लेता है ! सुनता ही नहीं चित्कार को अपने दर्दनाक शब्दों में पिरोकर अभिव्यक्त
भी कर देता है... “कोखिये
में काहे देहलू मार?
काहे बनलू तू एतना लाचार?
कवन गलती बा हमार?”
जैसी मार्मिक पंक्तियों से माता को ही बच्ची की हत्या का आरोपी सिद्ध करता है!
सामाजिक संस्थाएं इस दिशा में अच्छा
कार्य कर रही हैं। जनता को नींद से जगा रही हैं। आंकड़े प्रस्तुत कर सचेत कर रही
हैं कि यह जारी रहा तो पुरूष-महिला अनुपात में गहरा असंतुलन हो जायेगा। भ्रूण का
लिंग परीक्षण कानूनन अपराध घोषित हो चुका है। लोगों को समझ में भी आ रहा है कन्या
भ्रूण हत्या गलत है। बावजूद इसके समस्या सुरसा के मुँह की तरह बड़ी और बड़ी होती
चली जा रही है। सुधार से उलट यह भी हो रहा है कि पिछड़े इलाके में रहने वाले लोग
जो जानते ही नहीं थे कि भ्रूण परीक्षण भी होता है वे शहरों में घूम कर अपने
रिश्तेदारों से पूछ रहे हैं...”ए
भाई जी! का सहिये में पता चल जाता है? हमार मेहरारू
तS बेटवा के चक्कर में चार गो बिटिया जन
चुकी है। फिरे बच्चा होने वाला है। तनि पता लगाइयेगा। लड़की होगी तो.....समझ रहे
हैं न।“ अब इसे क्या कहा जाय? ससुर के नाती, तू कुछो नाहीं कइला अउर चार गो
बिटिया पैदा होत चल गइलिन।
इसका मतलब यह नहीं कि लोगों की मूढ़ता
के चलते सामाजिक संस्थाएं जागरूकता अभियान बंद कर दें। लोग तो ऐसे ही होते हैं। उन्हें तो
सिर्फ अपना स्वार्थ, अपनी मजबूरी अपना फायदा दिखता है। लेकिन सामाजिक संस्थाओं में
चिंतकों के विचार पढ़ने/सुनने के बाद
मैं और भी चिंतित हो जाता हूँ ! यह प्रतीत
होता है कि उन्हें हत्या के पाप से अधिक भय इस बात से है कि पुरूष-महिला अनुपात
गड़बड़ा जायेगा। कहते तो नहीं लेकिन आभास मिलता है। लगता है कहना चाह रहे हैं,
अनुपात न गड़बड़ाये मतलब कुछ नुकसान न हो तो यह पाप किया जा सकता है। अधिक गलत
इसलिए है कि अनुपात गड़बड़ा जायेगा। गोया मानवीय संवेदना इस अनुपात के आंकड़े से
कम महत्वपूर्ण है!
पूरूष भी कमाल का जीव होता है! तब तक नहीं घबड़ाया जब तक उसे असंतुलन का एहसास
नहीं हुआ। तब तक सब ठीक-ठाक चल रहा था। घबड़ाया तब जब उसे असंतुलन का एहसास हुआ।
पुरूष घबड़ाया मतलब बुद्धिजीवी घबड़ाया। बुद्धि पुरूषों की थाती रही है। जब बुद्धि
का बंटवारा हो रहा था तो पुरूषों ने वहाँ भी कोई कुचक्र चला होगा और बुद्धि का
पिटारा ले उड़े होंगे! महिलाओं ने
हाय-तौबा मचाया तो माँ सरस्वती की धूमधाम से पूजा आरती करने लगे, “अरे! काहे नाराज होती हैं..? सभी बुद्धि तो हमे माँ से ही मिली है। सब आप ही
की कृपा है देवी।“ महिलाएँ खुश, “जीयो मेरे
लाल..!” बुद्धिजीवी घबड़ाया तो घबड़ाये
पुरूष। घबड़ाये तो चिंतित होने लगे, “हांय! महिलाएं कम हो रही हैं!” अब क्या होगा? हमारे पुत्रों की शादियाँ कैसे होंगी? भविष्य तो बिगड़ जायेगा हमारे बच्चों का। प्रकृति का संतुलन ही नष्ट
हो जायेगा!” गंभीर परिणाम सामने नज़र आने लगे।
जेल में डालो डाक्टरों को...ऐसी स्त्रियों पर धिक्कार है जो अपना ही अस्तित्व
मिटाने पर तुली हैं। बच्चे की चीख भी उनके कानों में नहीं पहुँचती कैसी माँएं हैं?
लोभी मानसिकता बड़ी चालाकी से अपना अपराध दूसरों पर लादना
जानती है! लोभियों ने पहले तो स्त्री का जीना
दूभर किया। उसका लिखना-पढ़ना दुश्वार किया। उसे देवी की उपाधी से नवाजकर घर की
दासी बना लिया। दूसरे की पुत्रियों पर कुदृष्टि डाली। अपने ही घर में पुत्र और
पुत्रियों में भेद किया। पुत्रों को पढ़ाया तो पुत्रियों को चौका-बर्तन करना
सिखाया। पुत्रों को उनपर शासन करना सिखाया।
कन्याओं को पराया धन समझा। वस्तुओं की तरह दान करके कन्यादान महादान का ढोंग
रचाया। बहुओं पर घोर अत्याचार किये। उनसे वंश चलाने के लिए पुत्र की कामना करी।
पुत्र जन्म देने वाली बहू श्रेष्ठ तो कन्या को जन्म देने वाली को अपराधी ठहरा कर
उनके साथ उपेक्षा का व्यवहार किया। जब
विज्ञान ने इलाज के लिए मशीन ईजाद की, उन्हें पता चलने लगा कि हमारे
घर जिस बच्चे का जन्म होने वाला है वह एक कन्या है तो डाक्टर से साठ-गांठ करके उसे
गर्भ में ही मारना शुरू कर दिया। क्या है यह ? कौन दोषी है कन्या भ्रूण हत्या के लिए ? क्या स्त्री ? क्या डाक्टर ? बाकी सभी बड़े भले लोग हैं? शादी के वक्त अपने पुत्र के लिए लम्बी-चौड़ी
दहेज के समानो की लिस्ट थमाते जरा भी संकोच न करने वाले ये दहेज लोभी आज धर्मात्मा
बन उपदेश दिये जा रहे हैं कि महिलाएं ही इस पाप के लिए जम्मेदार हैं! कौन डाक्टर है जो बगैर आपके दबाव डाले बता देता
है कि भ्रूण में कन्या है ? कौन माँ ऐसी
है जो खुशी-खुशी अपने बच्चे को मारना चाहती है ? इसके लिए कोई
दोषी है तो वह है हमारा लोभ। लालची प्रवृत्ति सदवृत्ति को भी भ्रष्ट कर देती है।
विज्ञान का चमत्कार मानवता के हित में होता है लेकिन यदि यह लोभी हाथों में चला
गया तो मानवता को सबसे अधिक नुकसान भी यही पहुँचाता है।
लिंग भेद केवल महिला पुरूष अनुपात तक
ही सीमित नहीं है। मनुष्य के लोभ का जीता जागता उदाहरण हम दुधारू पशुओं में
प्रत्यक्ष देख सकते हैं। हम महिला-पुरूष के बिगड़ते अनुपात को तो देख पा रहे हैं
लेकिन पशुओं में बिगड़ रहे अनुपात का तो अनुमान भी नहीं लगा सकते! अब हमे अपने खेतों के लिए दो बैलों की जोड़ी
नहीं चाहिए। हमारे खेत अब ट्रैक्टर से जोते जाते हैं। बैल अब बेकार के जानवर हो
गये हैं। पैदा होते ही ऐसा वातावरण पैदा करो कि ये अपने आप मर जांय। हम गौ माता के
पुत्रों को बेशर्मी से मौत के घाट उतारते चले जा रहे हैं और गौ हत्या पर हो हल्ला
भी मचा रहे हैं ! क्या बछड़ों
के हत्यारों के पास यह नैतिक अधिकार शेष रह सकता है कि वे गौ माता की हत्या का
विरोध भी कर सकें ?
इस संदर्भ में मैं अपना एक छोटा सा
संस्मरण बताता हूँ। पूरी ईमानदारी से सच लिखने का प्रयास करता हूँ। काशी हिंदू
विश्वविद्यालय में एक दिन मार्निंग वॉक कर रहा था। जाड़े का दिन था । दैव संजोग की
गोशाला से अच्छी खासी संख्या में गायों के झुण्ड के साथ गाय चरा रहा एक ग्वाला मेरे से कुछ ही आगे चल रहा था। तभी
मैने देखा, वृक्षों के नीचे एक गाय का चितकबरा, बेहद खूबसूरत बछड़ा, धीरे-धीरे
रेंग पा रहा है। मुश्किल से एक दिन पहले पैदा हुआ होगा। मुझे लगा यह ग्वाला इसे
छोड़े जा रहा है। मैने आवाज लगाई, “का मालिक!
एहके इहाँ मरे बदे छोड़े जात हउआ?
यहू के लेहले जा।“
वह मेरी बात सुनकर तड़पकर बोला, “एहके हम नाहीं इहाँ छोड़ले हई। ऐहके आप इहाँ मरे
बदे छोड़ले हौआ !
एक दिन कS
भी नाहीं हौ !
खाली बछिये पलबा मालिक?
बछड़ा होई तS
अइसेही मरे बदे छोड़ देबा ?
दुई घंटा बाद देखिया,
कुक्कुर चबा जैहें एहके। बड़का बुद्धिजीवी
हौआ। बडमनई हउआ। पचास हजार से कम तS नाहीं कमात होबा! गैया पाले कS शौक हौ, बछड़ा होई तS खियाये के मारे फेंक देबा ओहके सड़क में? अरे फेंक देता बाकि एकाध महीना तS जीया लेहले रहता।“ उसकी
बात सुनकर मैं बुरी तरह सकपका गया। फिर बोला, “अच्छा!
तS ई तोहार नाहीँ
हौ !! हम समझली की
यहू तोहरे हौ, ए बदे पूछ लेहली।” वह बोला, “नाहीं मालिक, ई बछड़ा हमार नाहीं हौ। हम पढ़ल लिखल नाहीं हई
लेकिन एतना तS
जानिला कि एक दिन कS
बच्चा के अइसे नाहीं मरे बदे छोड़ल जाला। ई बड़मनई कS काम हौ। आप आज देखला, हम तs बहुत देखल करीला। गाय पाले कS शौक हौ लेकिन गाय कS बछड़ा हो गयल तS एक दिन खियाये में नानी मर जाला। अरे एकाध दुई
महिना जिया लेहले होता फिर तS
ऊ अपने चर खा लेत। बुरा मत मान्या,
हमें पढ़ल लिखल मनई कS
ई बेशर्मी बर्दाश्त ना होत। आपो पढ़ल लिखल हउआ ! जै राम जी की।
सोचिए! उस ग्वाले ने कितनी बड़ी बात कह दी!! “आपो पढ़ल लिखल हउआ!” कहते चला गया। इससे बड़ा कटाक्ष कुछ हो सकता
है? यह लोभ, यह अमानवीयता निर्धन, अभावग्रस्त, या शोषित, दीन हीन लाचार व्यक्तियों की नहीं है। यह हमारे
आप जैसे खाये पीये अघाये लोगों की क्षुद्रता है। यह हमारा ही
लोभ है जो वक्त बेवक्त सर चढ़ कर बोलता है। उस ग्वाले ने तो ऐसी-ऐसी गालियाँ दीं
जिसे हम लिख नहीं सकते। लेख पर अश्लीलता की तोहमत जड़कर लोग सरक लेंगे। मुद्दा
पीछे छूट जायेगा। मेरी समझ से कन्या भ्रूण हत्या के लिए यह लोभ ही मूल कारक है जो
कभी कन्या तो कभी बछड़े की हत्या के रूप के रूप में सामने आता है। आप लाख इधर-उधर
की बातें करके अपने जुर्म पर पर्दा डालने का प्रयास करो लेकिन सच यही है। एक दोहे
से अपनी बात समाप्त करता हूँ.....
पड़वा मारें खेत में, बिटिया मारें
पेट
मानवता की आँख में, भौतिकता की रेत।
.................................................................................................
12.5.12
मैं तो आम हूँ
वह नीम है
मैं तो आम हूँ।
मैं तो आम हूँ।
फागुन में बौराती हूँ
चैत में
जनती हूँ टिकोरे
तपती हूँ
वैशाख-जेठ की दोपहरी
आता है मौसम
तपती हूँ
वैशाख-जेठ की दोपहरी
आता है मौसम
मेरा भी
नहीं रहती
अनाथ
फल लगते ही
मिल जाते हैं
कई नाथ !
डाल में
लगते ही
टिकोरे
बाग में
छा ही जाते हैं
छिछोरे
देते हैं
प्यार का सिला
मारते हैं पत्थर
लूटते हैं
दोनो हाथों से
दोनो हाथों से
फेंकते हैं
चखकर
चखकर
कहते हो
तुम मुझे पुलिंग
किंतु नारी के समान हूँ
तुम मुझे पुलिंग
किंतु नारी के समान हूँ
मैं तो आम हूँ।
मेरा मालिक
जब नहीं संभाल पाता मुझे
सौंप देता हैं
दूसरे को
पूरे का पूरा
एक मुश्त
दूसरा
भोगता है मुझे
किश्त दर किश्त!
मैं हार नहीं मानती
मिट्टी मिलते ही
फिर से
अंकुरित होना चाहती हूँ।
मेरे लिए
चलती हैं लाठियाँ
बहते हैं खून
सुख की खान हूँ
सुख की खान हूँ
मैं तो आम हूँ।
जलती हूँ
जलायी जाती हूँ
काटकर
जलायी जाती हूँ
काटकर
फूँक सकते हो तुम मुझे
हवन कुण्ड में
पूर्ण पवित्रता के साथ
पूर्ण पवित्रता के साथ
नहीं....
श्राप नहीं दुँगी
तुम्हारा घर
पवित्र कर जाऊँगी
नफरत नहीं
प्रेम करती हूँ सबसे
जन जन की शान हूँ
प्रेम करती हूँ सबसे
जन जन की शान हूँ
मैं तो आम हूँ।
एक टीस
उठती है उर में
पीपल, नीम के पास
जाते हैं ज्ञानी
मेरे पास
आते हैं
कभी लोभी
कभी कामी
आपके शौक की पहचान हूँ !
मैं तो आम हूँ।
एक टीस
उठती है उर में
पीपल, नीम के पास
जाते हैं ज्ञानी
मेरे पास
आते हैं
कभी लोभी
कभी कामी
आपके शौक की पहचान हूँ !
मैं तो आम हूँ।
.......................................
नोटः ( चित्र गूगल से साभार)
नोटः ( चित्र गूगल से साभार)
गंगा चित्र-5
गंगा में पानी है कम
बीच धार में सभी तैर नहीं रहे, कुछ आराम से खड़े भी हो जा रहे हैं।
परिंदों को दाना खिलाना भी क्या कमाल का शौक है!
सुबह-ए-बनारस देखने उड़ कर आये ये विदेशी मेहमान
क्या मस्ती है!
कितनी नावों में कितने जोड़े!
मैं एक ही स्थान पर बैठा हूँ..नावें बदल रही हैं।
इसके पास मेरे से बढ़िया कैमरा है!
सभी तश्वीरें आज सुबह की हैं।
5.5.12
घोड़े पै हौदा औ हाथी पै ज़ीन
पिछली पोस्टों में गंगा के चित्र दिखाते-दिखाते राजा चेतसिंह के किले की कुछ तश्वीरें दिखाई । इन तश्वीरों को देखते हुए मुझे स्व0 शिवप्रसाद मिश्र 'रूद्र' की 'बहती गंगा' की याद हो आई। आप ने नहीं पढ़ी हो तो अवश्य पढ़ लें। राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, 731, दरियागंज, नई दिल्ली से प्रकाशित इस उपन्यास का परिचय इसी पुस्तक में बच्चन सिंह के माध्यम से इस प्रकार से दिया हैः इस उपन्यास में काशी के दो सौ वर्षों (1750-1950) के अविच्छिन्न जीवन-प्रवाह को अनेक तरंगों में प्रस्तुत किया गया है। प्रत्येक तरंग(कहानी) अपने- आप में पूर्ण तथा धारा-तरंग-न्याय से दूसरी से संबद्ध भी है। ....इसका धन्यार्थ यह भी है कि तमाम विसंगतियों में भी इतिहास की धारा निरन्तर आगे की ओर प्रवहमान है। गंगा के इस प्रवाह में तैरते हुए काशी की मस्ती, बेफिक्री, लापरवाही, अक्खड़ता, बोली-बानी का अपना रंग है।
इसी उपन्यास से एक तरंग (कहानी) पढ़ाने का मोह जगा तो इसे यहाँ टंकित किये दे रहा हूँ। यह कहानी आपको तत्कालीन राजनैतिक स्थिति का आभास देने के साथ-साथ काशी वासियों के जीवन में गहराई से घुले पिंगल वाणी (तीखे कटाक्ष) और इस पिंगल की वज़ह से उत्पन्न होने वाले हाहाकारी हास्य की प्राचीन परंपरा से भी अवगत कराती है। ध्यान से पढ़ें तो इस कहानी में बहुत आनंद है। प्रस्तुत है कहानी....
"का गुरू ! पालागी !" लोटन बहेलिये ने नागर गुरू को कबीर चौरा की ओर से आते देख हाथ जोड़कर कहा।
इसी उपन्यास से एक तरंग (कहानी) पढ़ाने का मोह जगा तो इसे यहाँ टंकित किये दे रहा हूँ। यह कहानी आपको तत्कालीन राजनैतिक स्थिति का आभास देने के साथ-साथ काशी वासियों के जीवन में गहराई से घुले पिंगल वाणी (तीखे कटाक्ष) और इस पिंगल की वज़ह से उत्पन्न होने वाले हाहाकारी हास्य की प्राचीन परंपरा से भी अवगत कराती है। ध्यान से पढ़ें तो इस कहानी में बहुत आनंद है। प्रस्तुत है कहानी....
घोड़े पै हौदा औ हाथी पै ज़ीन
"का गुरू ! पालागी !" लोटन बहेलिये ने नागर गुरू को कबीर चौरा की ओर से आते देख हाथ जोड़कर कहा।
"मस्त रहS!" नागर ने आशीर्वाद देते हुए लोटन के पीछे देखा कि पीठ पर हौदा लिए एक घोड़ा और ज़ीन-कसा एक हाथी खड़ा है। उन्हें राजा के पच्चीस-तीस सिपाहियों ने घेर रखा है। उसने लोटन से पूछा, "का हाल-चाल हौ? ई कैसन तमासा बनउले हौअS?"
लोटन नागर के समीप बढ़ आया और हँसकर धीरे से बोला, "राजमाता कS हुकुम हौ, अउर का? सुनलS कि नाहीं, कम्पनी बहादुर भाग गैल?
नागर की उत्सुकुता बढ़ गई। उसने लोटन का हाथ थामकर, जहाँ आजकल ज्ञानमंडल-यन्त्रालय का भवन है, वहीं बने एक चबूतरे पर बिठा दिया। नगर में चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। दो दिन से तरह तरह की अफवाहें उड़ रही थीं। राजा चेतसिंह से जुरमाना वसूल करने के लिए वारेन हेस्टिंग्स स्वयं कल कलकत्ता से काशी आया था। राज्य की सेना अकर्मण्य होकर हाथ पर हाथ धरे बैठी थी और नगर-निवासी निरूत्साह थे।
चबूतरे पर बैठकर लोटन ने धीरे-धीरे धीमे स्वर में नागर को बताया कि सबके घबराए रहने पर भी राजमाता पन्ना ने अपना दिमाग कैसे ठीक रखा। ग़ली-ग़ली में लड़ाई के लिए उन्होने सब महाजनों को बुलाकर किस तरह अपने घरों में दस-दस, बीस-बीस सिपाही छिपा रखने के लिए राज़ी किया और किस तरह इन तैयारियों की खबर पाकर वारेन हेस्टिंग्स रातोंरात चुनार भाग गया ! हाथ की उँगली से सामने इशारा करते हुए उसने कहा, "अब न पता चलल, गुरू ! सहेबवा वही भूसा वाली कोठरी में लुकल रहल। जब हम ई खबर राजमाता के देहली त ऊ कहलिन कि बस यही मौका हौ। हाथी पर जीन कस दS अउर घोड़ा पर हउदा, जेम्में मालूम होय कि सहेबवा घबराय के भागल हौ। एतनै से बनारसिन के फेर जोस आय जाई। सुनSन गुरू, लड़िकवा का चिल्लात हौ अन ! अउर ओहर देखS लबदन सहुआ आपन बाल-बच्चा लेहले कहाँ जात हौ ! एसारे के हियाँ गइली त कहवाय देहलस कि घरे नाहीं हौअन। तनी पूछीं कि घरे नाहीं रहल तS अब आय कहाँ से गयल ?" लोटन चबूतरे से कूदा। नागर ने भी उसका अनुकरण किया।
इतने में बेलगाम घोड़े की तरह चंचल और गुलाब के फूल-सी रंगीन, छरहरी सहुआइन ने जेवरों की पिटारी और भी ज़ोर से बगल में दबाते हुए बिजली की तरह चमककर कहा, "मर किनौना !"
माँग और माथे पर सिन्दूर की मोटी-सी तह जमाए और सिर पर आवश्यक वस्त्रादि से भरी कम्बल की गठरी उठाए, हथिनि-सी भारी-भरकम बड़ी सहुआइन ने मेघगर्जन किया, "बज्जर परै !"
बड़ी सहुआइन के बीस-वर्षीय रोग-कातर पुत्र सुदीन और छोटी सहुआइन की नौ-वर्षीय पुत्री 'गौरा' ने क्षितिज के दो छोरों की तरह अपनी माताओं की प्रतिध्वनि की और 'तमाखू के पिंडा' उनके पिता लबदन साब 'रह तो जा, सारे' कहते हुए उन लड़कों पर बरस पड़े जो जुलूस बनाए जा रहे थे-
घोड़े पै हौदा औ हाथी पे ज़ीन
जल्दी से भाग गैल - !
सपरिवार सावजी इससे अधिक नहीं सुन सके। उन्होने समझा कि लड़के उन पर व्यंग्य कर रहे हैं, जेवर की पिटारी को हौदा और कम्बल को ज़ीन बताकर उनकी पत्नियों को घोड़ी और हथिनी कह रहे हैं। सावजी ने मन-ही-मन बिना सुने ही लड़कों के नारों की अधूरी पंक्ति भी पूरी कर ली थी। उन्हें विश्वास हो गया था कि 'जल्दी से भाग गैल' के बाद 'लबदन सुदीन' ही है। वह सचमुच घर छोड़ कर भाग भी रहे थे। व्यंग्य सोलह आने सही समझ कर उन्हें क्रोध हो आया। वह जुलूस में सबसे पासवाले एक छोटे-से लड़के पर हाथ का डंडा चला बैठे और एक हाथ चलाने के बाद चबूतरे पर टेक लेकर हाँफने लगे। लकड़ी आते देख लड़का छलका, फिर भी छोर छू जाने से छिलोर-सी लग गई। सावजी को पागल समझकर उधर लड़का हँसने लगा और इधर सावजी साँड की तरह डकराकर रो पड़े।
उनके गाल पर करारा तमाचा पड़ा था। हिलते हुए दो दाँत बाहर छिटक पड़े थे। मुँह से रक्त की क्षीण धारा-सी बह रही थी। उन्होने आँख उठाकर देखा कि नागर गूरू सामने खड़े पूछ रहे हैं, "लड़िका के काहे मरले ! बोल !"
"ए सारे से पूछS कि ई भागत काहे रहल ?" लोटन बहेलिये ने कहा।
लबदन साव विकट संकट में पड़े। आज उनकी सालगिरह क्या आई कि खासी 'गरह-दसा' आ गई। सवेरे से ही घर में जो किचकिच चली उसने साँझ होते-होते यह रंग दिखाया। उनका लड़का 'फिरंग रोग' से पीड़ित था। उसके मुँह में छाले पड़ गए थे। सावजी 'फिरंग रोग' का अर्थ नहीं जानते थे, परन्तु सन्देह करते थे कि यह रोग कैसा होता है और यह समझते थे कि है वह बहुत ही घृणित। इसलिए सवेरे आँख खुलते ही बेटे का मलिन मुख देख उनका जी खट्टा हो गया। उन्होने क्रोध से घूरते हुए बेटे को देखा। बेटे ने समझा कि पिता इशारे से उसका हाल पूछ रहे हैं। उसने विश्व की सारी करूणा अपनी मुख-मुद्रा में बटोरते हुए पिता की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए रूँधे हुए गले से कहा, "बाबू, थूकत नाहीं बनत; बड़ा कष्ट हौ।"
मन की सारी घृणा और क्रोध को पिघले सीसी-सी प्रतप्त वाणी में घोलते हुए बाप ने उत्तर दिया, "तोसे थूकत नाहीं बनत तS नाहीं सही। दुनियाँ तो तोरे मुँह पर थूकत हौ।"
बेटे ने जब यह जवाब सुना तो मुँह बनाकर वहाँ से हट गया। परन्तु उसकी जननी ने, जो पास ही बैठी मसाला पीस रही थी, इतनी ही बात पर महाभारत मचा दिया; ऐसे पैने-पैने वचन-बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी कि सावजी का कलेजा जर्जर हो उठा। उन्होने जलकर कहा, "कलमुँही, भैंस ! बिहाने-बिहाने काने के जड़ी चरचराए लगल।"
बड़ी सहुआइन ने भी उसी वज़न में जवाब दिया, "निगोड़ा, कुक्कुर, निरबसा, बिहाने-बिहाने लड़िका के कोसै लग गयल। जे बिहाने एकर नाँव ले ले, ओके दिन-भर अन्नकS दरसन न होय !"
बात कुछ अंश तक सही थी। साव के सूमपन के कारण वास्तव में लोग सवेरे उनका नाम नहीं लेते थे। इसीलिए सहुआइन की यह बात उनके कलेजे में बरछी की तरह चुभ गई। वर्षगाँठ का झमेला न होता तो वह कुछ उत्तम-मध्यम किए बिना कदापि न मानते । परन्तु पूजन के समय दोनों पत्नियों का साथ ग्रन्थि-बन्धन आवश्यक था। अतः बड़ी सहुआइन के मुँह फुलाने की आशंका से उनके हाथ-पैर फूल गए। उन्होंने कड़वे काढ़े-सा अपमान पीते हुए भी पत्नी को मनाना आरम्भ कर दिया। छोटी सहुआइन ने भी आकर सपत्नी को समझाया, "आखिर कहलन तS अपने बेटवा के न, कोई पराए के तो नाहीं ! जाए द !"
अन्ततः बड़ी सहुआइन शान्त हुई। घर का वातावरण पुनः साधारण हुआ। सावजी पूजा-पाठ के फेरे में पड़े। नगर में दो दिन से हड़ताल रहने के कारण बेचारे नवग्रह-पूजन और हवन सामग्री भी न मँगा पाए थे। पड़ोसियों से माँग-जाँचकर किसी तरह समान भी जुटाया तो पंडित ने पूजा करने आने से इन्कार कर दिया। कहला भेजा, "नगर की स्थिति ठीक नहीं है, राजा अपने ही महल में बंद हैं, मलिच्छों की सेना सड़क पर चक्कर लगा रही है। मैं ऐसा घनचक्कर नहीं कि चौखट के बाहर पैर रखूँ। यदि प्राण संकट में डालकर जाऊँ भी तो 'सीधा' तो डेढ़ दमड़ी का मिलेगा न !"
साव ने जो यह बात सुनी तो उनके भी छक्के छूट गए। वह स्वयं अनगढ़, अनवसर और बेहूदी वार्ता को ही खरी-खरी कहना समझते थे। उन्होंने जो पंडितजी का निखरा-निखरा सन्देश सुना तो खरा बोलने का हौसला पस्त हो गया। उधर छोटी सहुआइन को पंडित के उत्तर से अपना सौभाग्य-सूर्य अस्त हुआ प्रतीत हुआ। वह अस्त-व्यस्त हो उठीं। साव की तम्बाखू के पिंड-जैसी काली और स्थूल काया से आग की रेखा के समान सटते हुए उन्होंने गद्गद गले से कहा, "तोहई न रहबS तS धन रह के का करी ? दूसरा पंडित बोलावS।"
पाँच पैसे का 'सीधा' देने का वचन देने पर दूसरा पंडित आया। दोनों पत्नियों के साथ गाँठ बाँधकर साव ने सावधानी से मन्त्र पढ़ते, दक्षिणा के स्थान पर जल चढ़ाते, पूजा समाप्त की। हवन आरम्भ हुआ। घी की कमी से आग दहक नहीं रही थी। गौरा पंखे से आग सुलगा रही थी। सहसा चिनगारियाँ उसके हाथ और मुँह पर आ पड़ीं। सबके मुँह से सहानुभूतिसूचक ध्वनि हुई, परन्तु सावजी ने हँसते हुए छोह-भरी वाणी में कहा, "बिटिया, एक चिनगारी में तो तू धीरज छोड़ देहलू। जब सती होएके होई तब तू का करबू?"
पंडित हक्का-बक्का होकर साव का मुँह निहारने लगा। गौरा बिना कुछ समझे हँसने लगी, परन्तु उसकी माँ का जी जलने लगा। बाहरी आदमी के सामने लड़ तो नहीं सकती थी उसने झनककर साव के दुपट्टे से अपनी चादर की गाँठ खोल दी और चमककर खड़ी हो गई। साव भी अपनी भूल समझ गए, पर तीर हाथ से छूट चुका था। वह असहाय की तरह छोटी सहुआइन का मुँह निहारने लगे। बड़ी सहुआइन ने सौत का हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा, "आखिर कहलन तS अपनै बिटिया के न ! कोई पराए के तS नाहीं जाए दS। और खुली गाँठ फिर से बाँध दी।
छोटी सहुआइन ने वक्र-दृष्टि से सौत को देखा, परन्तु कुछ बोली नहीं। हवन बिना और किसी दुर्घटना के समाप्त हो गया। परन्तु साव के सिर की गर्दिश अभी तक समाप्त न हुई थी। वह भोजन करने बैठे कि लोटन बहेलिये ने गली में से आवाज दी, "सावजी हो, हे लबदन साव !"
लबदन साव ने झरोखे से नीचे झाँका। देखा कि राजा चेतसिंह का अंगरक्षक लोटन बहेलिया ज़री की डोरी पड़ी और सोना-जड़ी कत्तीदार पगड़ी सिर पर रखे, हरा अंगरखा पहने, कमर में गुलाबी फेंटे से तलवार फँसाए, हाथ में फरसा लिए उन्हें आवाज़ दे रहा है। उन्होंने धीरे से गौरा को बुलाकर कहा, "बिटिया, कह दे, बाबू घरे नाहीं हौअन !" उसने सिर निकालकर पिता की बात दोहरा दी।
"लौटेंतS कह दिहे ड्योढ़ी पर आवैं। राजमाता कS हुक्म हौ।" बहेलिये ने कहा और पैर आगे बढ़ाया। राजमाता के इस सन्देश में साव को अनभ्र वज्रपात की ध्वनि सुनाई पड़ी। उन्हें आशंका हुई कि यह बुलाहट उनसे रूपया ऐंठने के लिए हुई है। वह चिन्ता में पड़ गए।
लबदन साव ने 'रामदाने कS लेडुआ पैसा में चार' की बानी बोलते हुए काशी की गलियों में घूम-घूमकर व्यापार आरम्भ किया था और कौड़ी-कौड़ी जोड़कर नखास पर हलवाई की दुकान खोली थी। ज्यों-ज्यों उनका उदर स्फीत होता गया त्यों-त्यों बाज़ार में उनकी दर चढ़ती गई और वह दमड़ी पर चमड़ी निछावर कर बैठे। उसी पैसे पर राजा की दृष्टि लगी देख वह बिलकुल ही घबड़ा उठे। छोटी सहुआइन ने उन्हें सन्त्वना दी, संकट से बचने का रास्ता बताया और कहा, "घबड़ैले काम न चली। रूपया-पैसा जमीन में गड़ल हौ, ओकर कउनो चिन्तै नाहीं। दूर चारठे गहना जउन उप्पर हौ ओके ले लS अऊर कुछ कपड़ा-लत्ता संघे बान्ह लS । चल् चलS हमरे नइहर। ई आफत पटाय जाई तS लउट आए।"
साव को बात पसंद आ गई। वह बोरिया-बँधना बाँध अपनी ससुराल कर्ण-घंटा की ओर चले। परन्तु रास्ते में यह कांड हो गया। उन्होंने समझ लिया कि अब जान किसी प्रकार नहीं बचती। इसलिए बहेलिए की बात सुनकर उन्होंने आँसू-भरी दृष्टि से एक बार नागर की ओर देखा और फिर लाठी की तरह सीधे उन दोनो के चरणों पर गिर पड़े।
नागर को दया आ गई। परन्तु कर्कश स्वर में पूछा, "बोल, बोल, लड़िका के काहे मरले ?" साव ने पड़े-पड़े ही हाथ जोड़कर उत्तर दिया, "हमारा तनिकौ दोष नाहीँ हौ, गुरू ? हमरे भागे पर लड़िकवा हमार हँसी उड़ावत रहलन।"
"तोहार हँसी उड़ावत रहलन ?" नागर ने आश्चर्य में पड़कर पूछा। वह समझ ही नहीं पा रहा था कि वारेन हेस्टिंग्स के पलायन की बात से साव की हँसी कैसे उड़ाई गई ! साव ने लज्जावश अपनी पत्नियों के सम्बन्ध में घोड़ी और हथिनि-विषयक अपनी कल्पना पर परदा डाल दिया। केवल इतना ही कहा, "तोहऊँ तS सुनत रहलS गुरू ! लड़िकवा का कहत रहलन ?"
"का कहत रहलन, तोहई कहS," नागर बोला।
झेंप-भरी दृष्टि से इधर-उधर देखते हुए साव ने इतना ही कहा, "ले अब का कहीं! लड़िकवा यही तS कहत रहलन-
'घोड़े पै हौदा औ हाथी पै ज़ीन
जल्दी से भाग गइल़ै लबदन सुदीन।' "
नागर और लोटन दोनों ठठाकर हँस पड़े। नागर ने कहा, "धत्तेरी की! साहु का समझSला कि जीनकS तुक सुदीन के सिवा अउर कुछ होई नाहीं सकत। जा भाग हियाँ से!" नागर ने साव को ठोकर लगाई और स्वयं आगे बढ़ा। लड़कों की भीड़ ने नारा लगाया-
"घोड़े पै हौदा औ हाथी पै ज़ीन
जल्दी से भाग गैल वारेन हेस्टीन।"
सावजी ने मुँह बनाकर कहा, "ऐं!"
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नोटः बहती गंगा पुस्तक से साभार।
मन की सारी घृणा और क्रोध को पिघले सीसी-सी प्रतप्त वाणी में घोलते हुए बाप ने उत्तर दिया, "तोसे थूकत नाहीं बनत तS नाहीं सही। दुनियाँ तो तोरे मुँह पर थूकत हौ।"
बेटे ने जब यह जवाब सुना तो मुँह बनाकर वहाँ से हट गया। परन्तु उसकी जननी ने, जो पास ही बैठी मसाला पीस रही थी, इतनी ही बात पर महाभारत मचा दिया; ऐसे पैने-पैने वचन-बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी कि सावजी का कलेजा जर्जर हो उठा। उन्होने जलकर कहा, "कलमुँही, भैंस ! बिहाने-बिहाने काने के जड़ी चरचराए लगल।"
बड़ी सहुआइन ने भी उसी वज़न में जवाब दिया, "निगोड़ा, कुक्कुर, निरबसा, बिहाने-बिहाने लड़िका के कोसै लग गयल। जे बिहाने एकर नाँव ले ले, ओके दिन-भर अन्नकS दरसन न होय !"
बात कुछ अंश तक सही थी। साव के सूमपन के कारण वास्तव में लोग सवेरे उनका नाम नहीं लेते थे। इसीलिए सहुआइन की यह बात उनके कलेजे में बरछी की तरह चुभ गई। वर्षगाँठ का झमेला न होता तो वह कुछ उत्तम-मध्यम किए बिना कदापि न मानते । परन्तु पूजन के समय दोनों पत्नियों का साथ ग्रन्थि-बन्धन आवश्यक था। अतः बड़ी सहुआइन के मुँह फुलाने की आशंका से उनके हाथ-पैर फूल गए। उन्होंने कड़वे काढ़े-सा अपमान पीते हुए भी पत्नी को मनाना आरम्भ कर दिया। छोटी सहुआइन ने भी आकर सपत्नी को समझाया, "आखिर कहलन तS अपने बेटवा के न, कोई पराए के तो नाहीं ! जाए द !"
अन्ततः बड़ी सहुआइन शान्त हुई। घर का वातावरण पुनः साधारण हुआ। सावजी पूजा-पाठ के फेरे में पड़े। नगर में दो दिन से हड़ताल रहने के कारण बेचारे नवग्रह-पूजन और हवन सामग्री भी न मँगा पाए थे। पड़ोसियों से माँग-जाँचकर किसी तरह समान भी जुटाया तो पंडित ने पूजा करने आने से इन्कार कर दिया। कहला भेजा, "नगर की स्थिति ठीक नहीं है, राजा अपने ही महल में बंद हैं, मलिच्छों की सेना सड़क पर चक्कर लगा रही है। मैं ऐसा घनचक्कर नहीं कि चौखट के बाहर पैर रखूँ। यदि प्राण संकट में डालकर जाऊँ भी तो 'सीधा' तो डेढ़ दमड़ी का मिलेगा न !"
साव ने जो यह बात सुनी तो उनके भी छक्के छूट गए। वह स्वयं अनगढ़, अनवसर और बेहूदी वार्ता को ही खरी-खरी कहना समझते थे। उन्होंने जो पंडितजी का निखरा-निखरा सन्देश सुना तो खरा बोलने का हौसला पस्त हो गया। उधर छोटी सहुआइन को पंडित के उत्तर से अपना सौभाग्य-सूर्य अस्त हुआ प्रतीत हुआ। वह अस्त-व्यस्त हो उठीं। साव की तम्बाखू के पिंड-जैसी काली और स्थूल काया से आग की रेखा के समान सटते हुए उन्होंने गद्गद गले से कहा, "तोहई न रहबS तS धन रह के का करी ? दूसरा पंडित बोलावS।"
पाँच पैसे का 'सीधा' देने का वचन देने पर दूसरा पंडित आया। दोनों पत्नियों के साथ गाँठ बाँधकर साव ने सावधानी से मन्त्र पढ़ते, दक्षिणा के स्थान पर जल चढ़ाते, पूजा समाप्त की। हवन आरम्भ हुआ। घी की कमी से आग दहक नहीं रही थी। गौरा पंखे से आग सुलगा रही थी। सहसा चिनगारियाँ उसके हाथ और मुँह पर आ पड़ीं। सबके मुँह से सहानुभूतिसूचक ध्वनि हुई, परन्तु सावजी ने हँसते हुए छोह-भरी वाणी में कहा, "बिटिया, एक चिनगारी में तो तू धीरज छोड़ देहलू। जब सती होएके होई तब तू का करबू?"
पंडित हक्का-बक्का होकर साव का मुँह निहारने लगा। गौरा बिना कुछ समझे हँसने लगी, परन्तु उसकी माँ का जी जलने लगा। बाहरी आदमी के सामने लड़ तो नहीं सकती थी उसने झनककर साव के दुपट्टे से अपनी चादर की गाँठ खोल दी और चमककर खड़ी हो गई। साव भी अपनी भूल समझ गए, पर तीर हाथ से छूट चुका था। वह असहाय की तरह छोटी सहुआइन का मुँह निहारने लगे। बड़ी सहुआइन ने सौत का हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा, "आखिर कहलन तS अपनै बिटिया के न ! कोई पराए के तS नाहीं जाए दS। और खुली गाँठ फिर से बाँध दी।
छोटी सहुआइन ने वक्र-दृष्टि से सौत को देखा, परन्तु कुछ बोली नहीं। हवन बिना और किसी दुर्घटना के समाप्त हो गया। परन्तु साव के सिर की गर्दिश अभी तक समाप्त न हुई थी। वह भोजन करने बैठे कि लोटन बहेलिये ने गली में से आवाज दी, "सावजी हो, हे लबदन साव !"
लबदन साव ने झरोखे से नीचे झाँका। देखा कि राजा चेतसिंह का अंगरक्षक लोटन बहेलिया ज़री की डोरी पड़ी और सोना-जड़ी कत्तीदार पगड़ी सिर पर रखे, हरा अंगरखा पहने, कमर में गुलाबी फेंटे से तलवार फँसाए, हाथ में फरसा लिए उन्हें आवाज़ दे रहा है। उन्होंने धीरे से गौरा को बुलाकर कहा, "बिटिया, कह दे, बाबू घरे नाहीं हौअन !" उसने सिर निकालकर पिता की बात दोहरा दी।
"लौटेंतS कह दिहे ड्योढ़ी पर आवैं। राजमाता कS हुक्म हौ।" बहेलिये ने कहा और पैर आगे बढ़ाया। राजमाता के इस सन्देश में साव को अनभ्र वज्रपात की ध्वनि सुनाई पड़ी। उन्हें आशंका हुई कि यह बुलाहट उनसे रूपया ऐंठने के लिए हुई है। वह चिन्ता में पड़ गए।
लबदन साव ने 'रामदाने कS लेडुआ पैसा में चार' की बानी बोलते हुए काशी की गलियों में घूम-घूमकर व्यापार आरम्भ किया था और कौड़ी-कौड़ी जोड़कर नखास पर हलवाई की दुकान खोली थी। ज्यों-ज्यों उनका उदर स्फीत होता गया त्यों-त्यों बाज़ार में उनकी दर चढ़ती गई और वह दमड़ी पर चमड़ी निछावर कर बैठे। उसी पैसे पर राजा की दृष्टि लगी देख वह बिलकुल ही घबड़ा उठे। छोटी सहुआइन ने उन्हें सन्त्वना दी, संकट से बचने का रास्ता बताया और कहा, "घबड़ैले काम न चली। रूपया-पैसा जमीन में गड़ल हौ, ओकर कउनो चिन्तै नाहीं। दूर चारठे गहना जउन उप्पर हौ ओके ले लS अऊर कुछ कपड़ा-लत्ता संघे बान्ह लS । चल् चलS हमरे नइहर। ई आफत पटाय जाई तS लउट आए।"
साव को बात पसंद आ गई। वह बोरिया-बँधना बाँध अपनी ससुराल कर्ण-घंटा की ओर चले। परन्तु रास्ते में यह कांड हो गया। उन्होंने समझ लिया कि अब जान किसी प्रकार नहीं बचती। इसलिए बहेलिए की बात सुनकर उन्होंने आँसू-भरी दृष्टि से एक बार नागर की ओर देखा और फिर लाठी की तरह सीधे उन दोनो के चरणों पर गिर पड़े।
नागर को दया आ गई। परन्तु कर्कश स्वर में पूछा, "बोल, बोल, लड़िका के काहे मरले ?" साव ने पड़े-पड़े ही हाथ जोड़कर उत्तर दिया, "हमारा तनिकौ दोष नाहीँ हौ, गुरू ? हमरे भागे पर लड़िकवा हमार हँसी उड़ावत रहलन।"
"तोहार हँसी उड़ावत रहलन ?" नागर ने आश्चर्य में पड़कर पूछा। वह समझ ही नहीं पा रहा था कि वारेन हेस्टिंग्स के पलायन की बात से साव की हँसी कैसे उड़ाई गई ! साव ने लज्जावश अपनी पत्नियों के सम्बन्ध में घोड़ी और हथिनि-विषयक अपनी कल्पना पर परदा डाल दिया। केवल इतना ही कहा, "तोहऊँ तS सुनत रहलS गुरू ! लड़िकवा का कहत रहलन ?"
"का कहत रहलन, तोहई कहS," नागर बोला।
झेंप-भरी दृष्टि से इधर-उधर देखते हुए साव ने इतना ही कहा, "ले अब का कहीं! लड़िकवा यही तS कहत रहलन-
'घोड़े पै हौदा औ हाथी पै ज़ीन
जल्दी से भाग गइल़ै लबदन सुदीन।' "
नागर और लोटन दोनों ठठाकर हँस पड़े। नागर ने कहा, "धत्तेरी की! साहु का समझSला कि जीनकS तुक सुदीन के सिवा अउर कुछ होई नाहीं सकत। जा भाग हियाँ से!" नागर ने साव को ठोकर लगाई और स्वयं आगे बढ़ा। लड़कों की भीड़ ने नारा लगाया-
"घोड़े पै हौदा औ हाथी पै ज़ीन
जल्दी से भाग गैल वारेन हेस्टीन।"
सावजी ने मुँह बनाकर कहा, "ऐं!"
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नोटः बहती गंगा पुस्तक से साभार।
2.5.12
गंगा चित्र-4
सुनिये ! क्या कहते हैं गंगा घाट के ये परिंदे।
देखा न ! हमारा परिवार कितना बड़ा है !! कितने बड़े महल में रहते हैं हम !!! तुम शायद नहीं जानते। यह महाराजा चेतसिंह का किला है। इसका निर्माण काशी राज्य के संस्थापक राजा ‘बलवंत सिंह’ ने कराया था। घाट और महल शिवाला मोहल्ले में है इसलिए इसे ‘शिवाला घाट’ भी कहते हैं। 1781 में अंग्रेजों से युद्ध में हारकर काशी नरेश ‘चेतसिंह’ किला छोड़कर भाग गये थे। तब से लगभग सवा सौ साल तक यह अंग्रेजों के अधीन रहा। फिर 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में महाराजा ‘प्रभु नारायण सिंह’ ने यह किला पुनः प्राप्त कर लिया। है न शानदार ? सैकड़ों वर्षों से गंगा की बाढ़ झेल रहा है मगर जस का तस खड़ा है। तुमने वृक्षों को काट दिया। अब गंगा के घाट हमारे घर बने हैं। सुना है तुम सब गंगा मैया के भी पीछे पड़े हो ! कितने मूर्ख हो !! यह नहीं रहेंगी तो हम क्या, तुम भी नहीं बचोगे।
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