4.11.15

आक्रोश और बुद्धिजीवी

सभी के भीतर आक्रोश है। यह मनुष्य होने की निशानी है। आक्रोश की अभिव्यक्ति सभी अपनी-अपनी क्षमता, अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार करते हैं। कर्मचारी अपने बॉस के सामने पूंछ हिलाता है मगर जब साथियों के साथ जब चाय पी रहा होता है तो हर चुश्कि के साथ अपने बॉस के खिलाफ ज़हर उगलता रहता है। यहाँ उसकी सिर्फ जीभ हिलती है,पूँछ गायब हो जाती है। अधिकारी शासन में बैठे उच्चाधिकारियों को कोसता है तो उच्चाधिकारी भी मंत्रियों के फरमान से परेशान हो मातहतों पर आक्रोश स्थानांतरित कर रहे होते हैं। छात्र शिक्षकों का उल्टा-पुल्टा नाम धर, आपस में हंसी उड़ा कर अपना गुस्सा उतारते हैं तो शिक्षक व्यवस्था को कोसकर । कोई खुश नहीं, सभी आक्रोशित,सभी दुखी। घर में पत्नी पति से, पति पत्नी से, बच्चे पिता से तो पिता बच्चों से नाराज। परिवार नियोजन ने भाइयों-भौजाइयों, ननद-देवरानियो वाले आक्रोशित चेहरे छीन लिए हैं वरना घर की दहलीज में घुसते ही दादा-दादी की आँखों में रिश्तों की अनेकों दीवारें पहले ही दिखने लगती हैं ।

बुद्धिजीवी सदियों से आक्रोश अभिव्यक्त करते रहे हैं। इनके आक्रोश से सरकारें डरती रही हैं। जब भी अधिक खतरा हुआ इस पर सेंसर की कैंची चली है। आपातकाल लगा कर भी अभिवयक्ति को प्रतिबंधित किया गया है। आजकल वरिष्ठ, पुरस्कृत और सम्मानित साहित्यकार आक्रोश अभिव्यक्त कर रहे हैं। उनकी अभिव्यक्ति पर कोई प्रतिबंध नहीं है। वे चाहें तो कलम के वार से सरकार को घायल कर सकते हैं मगर उन्होने दूसरा रास्ता चुना है। वे अपना सम्मान लौटा रहे हैं! जैसे अंग्रेजी सरकार के जमाने में पुरस्कार लौटाए जा रहे थे वैसे ही आजकल पुरस्कार लौटाए जा रहे हैं!  एक ने लौटाया तो दूसरे को लगा कि हम पीछे रह गए! होड़ सी मची है।  अब पाठक परेशान! क्या करें? कोई पुरस्कार लौटाने वालों का समर्थन कर के उनको सम्मानित कर रहे हैं तो कोई सम्मानित लेखकों की पुरस्कृत पुस्तकें लौटाने में जुटे हैं! शायद उन्हें यह लग रहा है कि जैसे साहित्यकारों के सम्मान लौटाने से सरकार का अपमान हो रहा है वैसे ही पुस्तकें लौटाने से साहित्यकार का अपमान होगा! मतलब पढ़ने लिखने वाले लोगों का आत्मविश्वास डिगा सा दिखता है। उन्हें अपनी बुद्धि और कलम से इतर यह रोल जियादा प्रभावशाली लग रहा है! 

लेखकों के देखा देखी दूसरे सम्मानित कलाकार भी पुरस्कार वापस कर रहे हैं! इस वापसी अभियान को देख कभी-कभी लगता है एक ही विचार धारा के लोग देश में अधिक पुरस्कृत हुए हैं! योग्यता का चयन ज्ञान को देखकर नहीं, विचारधारा को देख कर किया गया था। शायद अब देश में दूसरी विचार धारा बह रही है जो इनका पहले की तरह सम्मान नहीं कर रही है। 

इस वापसी अभियान से परेशान सरकार परेशान न होने का दिखावा कर रही है। वह इसे विपक्ष का षड़यंत्र बताती है। वह पूछती है तब ये लोग कहाँ थे जब यह हुआ था, जब यह हुआ था और जब यह हुआ था? इन सब के बीच यदि कोई वास्तव में हैरान परेशान है तो पढ़ा-लिखा आम आदमी। वह यह नहीं समझ पा रहा है कि साहित्यकार राजनीति के शिकार हो गए हैं या साहित्य छोड़ राजनीति कर रह हैं ! रोटी, कपड़ा, मकान, बच्चों की शिक्षा, दवाई, शादी, सड़क, न्याय जैसी तमाम बुनियादी आवश्यकताओं के बीच बुद्धिजीवियों का यह आक्रोश आम आदमी के लिए समझना तो दूर पढ़ना भी मुश्किल है। फिर प्रश्न उठता है कि इस आक्रोश से फायदा किसे और नुकसान किसे उठाना पड़ रहा है? कहीं इस झगड़े से हमने देश को विदेशी बुद्धिजीवियों के सामने हास्यास्पद स्थिति में लाकर तो खड़ा नहीं कर दिया!