देर सबेर प्लेटफार्म पर ट्रेन आ गई तो ट्रेन को देखते ही रोज के यात्रियों की पहली समस्या होती है कि किस बोगी में चढ़ें? 60 किमी की दूरी के लिए बर्थ रिजर्व तो होता नहीं। लगभग सभी ए सी क्लास के यात्री होते हैं जो जनरल की भीड़ में रोज चल सकते नहीं। रोज के यात्रियों के लिए रेलवे ने एम.एस. टी. की सुविधा प्रदान कर रखी है लेकिन नियमानुसार इन्हें ए. सी. क्या स्लीपर में बैठने की भी इजाजत नहीं होती। अब दूरी इतनी कम होती है कि स्लीपर में तो टी. टी. इग्नोर कर देते हैं लेकिन ए सी बोगी न खाली होती है न टी. टी. अनुमती ही देते हैं। रेलवे रोज के यात्रियों के लिए ऐसी कोच लगाए तो कहां तक लगाए? सुबह शाम के बाद बाकी समय इन बोगियों पर कौन बैठेगा? हां चाहे तो छोटी दूरी के यात्रियों के लिए एक ए सी/ स्लीपर चेयर कार लगा सकती है जिसमें एम एस टी बनाने का या यात्रा का किराया अधिक हो। यह भी हो सकता है कि 60 किमी के लिए एक इंटर सिटी एक्सप्रेस ट्रेन चले जो सुबह शाम आती जाती रहे। जौनपुर बनारस रूट पर तो इतने यात्री होते हैं कि हर घंटे ट्रेन पूरी तरह भर जाय। लगता है इस समस्या पर रेलवे का ध्यान कभी गया ही नहीं। यह होता तो रोज के यात्रियों को बेवजह की जलालत और रिजर्व क्लास को कभी कोई असुविधा न होती। अब रोज के यात्रियों की मजबूरी होती है कि स्लीपर में ही चढ़ें।
प्रायः सुबह कैंट बनारस आने वाली फ़ोट्टी नाइन अप ट्रेन बनारस में खाली हो जाती है और सभी को पर्याप्त स्थान मिल जाता है। लेकिन अब बोगी में चढ़ने के बाद दूसरी समस्या.. कहां बैठें? यात्री अधिक हैं और सभी के अपने अपने छोटे छोटे ग्रुप हैं। कोई बैठते ही तास खेलना चाहता है तो कोई देश की चिंता करते हुए ताजा खबर पर बहस करना चाहता है। टी वी में राजनैतिक बहस देखते देखते लोग इस राजनैतिक बहस के आदी हो चुके प्रतीत होते हैं। कोई बैठे बैठे ऊंघना/सोना चाहता है तो कोई ऊपर खाली बर्थ देखकर सोने के लिए लपकता है। कई यात्री ऐसे भी हैं जो इसी समय में दफ्तर के अधूरे काम पूरा कर लेना चाहते हैं। कोई मोबाइल में कल रात देखी अधूरी फिल्म पूरी कर लेना चाहते हैं। कोई इत्मीनान से अखबार के अक्षर अक्षर पी जाना चाहते हैं तो कोई वाट्स एप/ फेसबुक में अपना स्टेटस अपडेट करते पाए जाते हैं। जितने यात्री उतने मिजाज के! कोई एक गोल का यात्री दूसरे में बैठना नहीं चाहता। पूरी बोगी खाली मिले तो भी यह समस्या होती है कि कहां बैठें? हम तो बच्चों की तरह खिड़की वाली सीट पर बैठना पसंद करते हैं ताकि मौका मिलते ही एकाध तस्वीर खींच ली जाय।
लोहे के घर में बैठने के स्थान का चुनाव भी वैसे ही करना पड़ता है जैसे घर में हम कमरा या कमरे का एक कोना चुनते हैं। मन माफिक जगह मिल गई, साथी मिल गए तो सफ़र कब कटा पता ही नहीं चलता। यही भीड़ भाड़ वाली ट्रेन में मज़बूरी में एक कोना पकड़ कर बैठना पड़ा तो चेहरा देखने लायक होता है। शाम के समय अक्सर भीड़ भाड़ वाली ट्रेन मिलती है जिसमें कोई च्वाइस नहीं होता। जहां जगह मिल गई बैठ गए। धन्य भाग जो आसन पायो! वाला भाव रहता है।
अभी शाम का समय है। देहरा से आने वाली लेट #दून मेरे समय पर मिल गई। आया था#मरुधर पकड़ने प्लेटफार्म पर दून खड़ी हारन बजाती मिली! मानो कह रही हो.. बैठना हो तो बैठो वरना मैं तो चली। इसके चलते ही मैं भी तपाक से चढ़ गया। बहुत भीड़ है हर बोगी में। कलकत्ता जाने वाले बंगाली यात्री भरे पड़े हैं। पूरे घर में बंगाली ही सुनाई पड़ रही है। मेरे सामने बैठे एक रोज के यात्री Rajiv Singh जी मुझे लिखता देख बोर हो चुके हैं। आपको पढ़ कर बोर होने के लिए धन्यवाद।
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जाड़े की शाम जल्दी ढल जाती है। लोहे के घर में सूर्यास्त देखने नहीं मिलता। आमने सामने बर्थ पर दो महिलाएं, दो बच्चे हैं। अभी जफराबाद से #ट्रेन चली है। दो चार रोज के यात्री और आ गए इस बोगी में। बंगाली परिवार है। बच्चे शैतानी और महिलाएं खूब शोर कर रही हैं। इतनी जल्दी-जल्दी, तेज-तेज बोल रही हैं कि कुछ समझ में नहीं आ रहा। देहरादून घूम कर अब जा रही हैं बनारस घूमने। घर कलकत्ता में है। हरा मटर देख कर बच्चे ललचिया गए और दस दस टका के दो दोने खरीद ही लिए इन्होंने। मेरा मन कर रहा था कि हरे मटर की खामियां बताकर मना कर दूं लेकिन चुप ही रहा। सभी मटर खाते हुए न जाने किस बात पर लगातार हंसे जा रहे हैं!
दोनों महिलाओं ने एक बच्चे को पूरी तरह नंगा कर दिया है! बच्चे को पॉटी करना है। इस जाड़े में भी रेल के सफ़र में छोटे बच्चे के स्वेटर, शर्ट उतार कर पॉटी कराना कुछ पल्ले नहीं पड़ा। मन में कई प्रश्न उठ रहे हैैं। ऐसा क्या धार्मिक होना कि बच्चे को नंगा कर टॉयलेट भेजा जाय! ठंड लग गई तो?
मैंने पूछा..यह क्या जरूरी था?
एक महिला ने उत्तर दिया..हम लोग ऐसे ही जाता!
बड़ा हुआ तो?
गमछा पहन कर जाता। घर में पूजा होता है न! इसीलिए।
आप लोग ब्राह्मण हैं?
हां।
यह तो रेल है, यात्रा के समय इतना क्या धार्मिक रहना!
हम लोग मानते हैं, ऐसे ही चलता है।
अब हमें अपना बचपन याद आया। अपने घर में भी जब तक पिताजी थे यही हाल था। टॉयलेट जाना हो तो एक बनारसी लाल अंगोछा पहन कर जाना पड़ता था। बाहर निकल कर नहाना पड़ता था। भोजन के लिए पीढ़ा और शोला जरूरी होता। वे अपने बचपन के दिन थे। अब नदी में बहुत पानी बह गया। नहाना तो आज भी रोज होता है लेकिन ऐसी कोई पाबन्दी नहीं। सफ़र में तो बिल्कुल भी नहीं। मैं तो भूल ही चुका था इस परंपरा को। न बच्चों पर प्रतिबन्ध लगाया न होश संभालने पर खुद माना। आज इस ब्राह्मण बंगाली परिवार के एक बच्चे को नंगा हो कर पॉटी करने जाते देख याद आया। रूढीवादी परंपराएं संस्कृति का हिस्सा बन जाती हैं। कितने परिवारों ने इसे सहेज कर रखा है, कितने मेरी तरह समय के साथ भूल चुके! बेंगाली परिवार अपने में मगन है और मैं अपने विचारों में उलझा हुआ।
दिल ने जब-जब, जो-जो चाहा, होठों ने वो बात कही है। सही गलत है, गलत सही है। लीक छोड़ कर चलना या फिर एक लीक पर चलना ठीक? क्या गलत है, क्या सही है?
किसी प्लेटफार्म पर देर तक रुकने के बाद फिर पटरी पर चलने लगी अपनी गाड़ी। भारत की सभी परम्पराओं को देखना, समझना, याद करना हो तो #रेल में सफ़र करना जरूरी है। लोहे के घर में पूरा भारत रहता है।
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लोहे के घर में एक यात्री फोन में बात कर रहा है.. 'भाई आया था, मिठाई लाया था..दो किलो कोई अकेले थोड़ी न खाएगा! ...सब रखे हैं झोले में।' उधर की कोई बात सुनाई नहीं दे रही। हां, हूं कर रहा है बस। अब किसी को समझा रहा है.. रश भी होता है, लेट भी होता है..
दूसरा यात्री भी मोबाइल में घुसा हुआ है। वह ढूंढ-ढूंढ कर वाट्स एप के मैसेज पढ़ रहा है और वीडियो देख रहा है। नीचे वाली बर्थ पर चार और यात्री हैं। एक अभी खैनी रगड़ कर फ्रेश होने गया है। बाकी तीन कोई कांड करने का मूड बना रहे हैं! एक और यात्री है जो साइड अपर बर्थ पर लेट कर मोबाइल में फिलिम देख रहा है।
चार यात्रियों में एक यात्री जो फ्रेश होने गया था, लौट कर आ गया है। अब चारों में इशारे हो रहे हैं..यहीं कार्यक्रम कर दिया जाय? मैं सशंकित उन्हें देख रहा हूं। एक ने बैग से बीकानेरी आइटम निकाला! दूसरे ने बोतल!!! एक हमें देख थोड़ा लजाया। दाहिने हाथ के अंगूठे को मुंह के पास ले जाकर इशारे से बताया..हम लोग लेंगे थोड़ा! हम केवल मुस्कुरा के रह गए। ओह! तो यह कांड करने वाले थे ये लोग!
कार्यक्रम चालू है। प्लास्टिक के गिलास में ढल चुकी है शराब और पानी मिलाकर बन रहा है पैग। आसपास का माहौल शांत और इस कार्यक्रम के लिए सर्वथा अनुकूल है। कोई कह रहा है..बड़ी तीखी नमकीन है! कोई कह रहा है..धीरे धीरे! जल्दी क्या है? लेकिन चारों ने जल्दी जल्दी कार्यक्रम पूरा किया। बोतल खिड़की से बाहर और शराब पेट में। अब सभी ज्ञानी हो चुके हैं। एक को अधिक चढ़ चुकी है। तीनों को ज्ञान बांट रहा है। बीच बीच में लोग प्रश्न कर रहे हैं..
मुसलमान मछली कैसे हलाल करता है?
मछली तो पहले से हलाल होती है, उसको हलाल नहीं करना पड़ता।
चाइना विश्व की सबसे गंदी जगह है। वहां कीड़े मकोड़े सब खाते हैं। कुत्ते बिल्ली क्या, आदमी को भी खा जाते हैं।
आदमी को भी?
हां, आदमी को भी। चाइना विश्व में सबसे गंदी जगह है।
खाने के मामले में कोई टीका टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। जिसे जो पसंद है वो खाए। एकचुल में हिंदू को माछी, मुर्गा और बकरा ही खाना चाहिए। नियम से खाना चाहिए। झटके वाला खाते हैं तो झटके वाला खाओ!
कुछ भी अनर्गल बतिया रहे हैैं चारों। यह अच्छा है कि पीने के बाद भी देश की चिंता नहीं कर रहे। राजनीति की बातें नहीं कर रहे। गुजरात चुनाव की भी बात नहीं कर रहे। सब खाने की ही बात कर रहे हैं। लगता है पीने के बाद इन्हें भूख लग रही है। भूखे पेट कोई देश की चिंता नहीं करता। सिर्फ खाने की ही बात करता है।
मेरा अंदाजा सही निकला। एक ने कहा..खाना निकालो! टिफिन खुल गए। मैं उनके पास से हटकर सामने के लोअर बर्थ पर बैठ गया जहां एक यात्री फोन से बातें कर रहा था। वह अभी भी उसी से धीरे धीरे बात कर रहा है! अब उधर की आवाज भी सुनाई पड़ रही है। उधर कोई महिला है। पक्का उसकी पत्नी नहीं है। कोई पत्नी से इत्ती देर कैसे बात कर सकता है भला!
सामने चारों शरीफ दारूबाज चुपचाप खाना खा रहे हैं। बातें तो मछली, मुर्गा और बकरे की कर रहे थे लेकिन इनकी टिफिन से निकला.. वही आलू की भुजिया और पराठें! अखबार बिछा है और चारों खाए जा रहे हैं। इन्हे खाता देख अपनी भी भूख जाग रही है। रात के सवा नौ बज चुके और अब आने वाला है बनारस।