25.9.19

बिना चीनी की चाय

बिना चीनी की चाय और 
प्रातः भ्रमण की आदत को देख,
मेरे एक सहकर्मी ने 
मन ही मन मान लिया,
मुझे मधुमेह है!

एक दिन लंच में उसने मुझे
रसगुल्ले खाते देखा!
डिनर के बाद
बर्फी उड़ाते देखा!!!
तो उससे रहा न गया..
मेरी तरफ तंज कसते हुए
सांकेतिक भाषा में
मुझे सुनाते हुए, दूसरे से 
कहने लगा...
कुछ लोग शुगर के मरीज हैं,
दिनभर 
चाय तो बिना चीनी की पीते हैं,
सुबह/शाम, दोनो टाइम, मिठाई उड़ाते हैं!

मैं शुगर का मरीज तो हूँ नहीं,
समझ ही नहीं पाया कि बन्दा,
किस पर तंज कस रहा है!
उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए बोला..
हाँ, यार!
कुछ लोग बड़े दोगले किस्म के होते हैं!
उनके खाने के दांत कुछ, 
दिखाने के कुछ।

अब तो उसके धैर्य का बांध ही टूट गया,
मेरी तरफ उँगली हिलाते हुए,
गुस्से में बोला..
मैं आपकी ही बात कर रहा हूँ मिस्टर!
दिन में आप 
रसगुल्ला नहीं खा रहे थे?
डिनर में, 
बर्फी नहीं काट रहे थे?

अब जाकर, 
बात मेरी समझ मे आई! 
समझने के बाद 
खूब हंसी आई।
हँसते हुए ही पूछा...
आपको किसने कह दिया 
कि मुझे मधुमेह है?
वो थोड़ा सम्भला, फिर पूछा..
तब बिना चीनी की चाय, क्यों पीते हो?
मैने तपाक से उत्तर दिया...
बिना चीनी की चाय इसलिए पीता हूँ 
कि मिठाई खा सकूँ!
आपने शुरू से ध्यान रखा होता तो आज
आप भी मिठाई खा रहे होते 
और वैसे भी
रोज मिठाई कौन खिलाता है?
दिनभर 
पानी में चीनी घोल कर
चाय ही पिलाता है।

अब माथा पीटने की बारी
मेरे मित्र की थी...
यार! मुझे शुगर है,
हम मजबूरी में घूमते हैं, बिना चीनी की चाय पीते हैं,
मिठाई खाने की तो सोच भी नहीं सकते।
आपकी आदतों को देखकर लगा..
आपको शुगर है!
गलत कह दिया हो तो क्षमा करना।

मैंने कहा..
इसमें आपकी कोई गलती नहीं है
वैसे भी
चॉकलेट, रसगुल्ला, लौंग लता, सुमन लता, माधुरी, रस माधुरी..
मेरा मतलब हर मिठाई को,
बिना चीनी की चाय पीने वाले बुढ्ढों से
सावधान रहना चाहिए!
क्योंकि ये 
मौका मिलते ही,
मिठाई पर हाथ साफ कर लेते हैं।
..........

21.9.19

लोहे का घर-57

पहले सुबह होती थी, शाम होती थी, अब लोहे के घर में, पूरी रात होती है। वे दिन, रोज वाले थे। ये रातें, साप्ताहिक हैं। बनारस से जौनपुर की तुलना में, बनारस से लखनऊ की दूरी लंबी है। रोज आना जाना सम्भव नहीं है। ये रास्ते सुबह/शाम नहीं, पूरी रात निगल जाते हैं और उफ्फ तक नहीं करते!

लखनऊ छपरा एक्सप्रेस है। लखनऊ से रात 9 के आसपास चलती है और सुबह 6 के बाद पहुंचाती है। छः घण्टे का सफर 9 घण्टे में पूरा करती है। इतना मार्जिन समय है कि लगभग समय से चलती और समय पर ही पहुंचाती है। पटरियों की खटर पटर का शोर, एक्सप्रेस ट्रेन की तरह तेज नहीं सुनाई पड़ता। झूला झुलाते, रुकते-रुकाते, आराम-आराम से चलती है यह ट्रेन।

अच्छा है। जितने समय में पहुंचा सको, पब्लिक को उतना ही समय बताओ। ये क्या कि बताया पाँच घण्टा और पहुँचाया 9 घण्टे में। इस ट्रेन के लिए रेलवे की यह इमानदारी,
काबिलेतारीफ है। 6 घण्टे के सफर को 9 घण्टा बताती है और 9 घण्टे में पहुँचा भी देती है। सोते-सोते सफर कट जाय तो इससे बड़ा भाग्य और कहाँ! इसीलिए मैं इस ट्रेन से आना/जाना पसंद करता हूँ। सोना ही तो है, घर में सोओ या लोहे के घर में। 

स्लीपर बोगी है। साप्ताहिक यात्रा में ए.सी. बोगी अधिक खर्चीली है। अभी मौसम अनुकूल है, अधिक गर्मी/सर्दी हुई तो देखा जाएगा। वैसे आप इसे मध्यम वर्गीय कृपण सोच कहने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन जितना सहन हो सके उतना मौसम के साथ रहना, हर दृष्टि से अच्छा है। 

जहाँ लाभ है वहीं, स्लीपर में चलने के नुकसान भी हैं। स्लीपर में ही चलने का परिणाम था कि एक दिन, पाण्डे जी का दाहिने पैर का चप्पल गुम हो गया था और बाएँ पैर के चप्पल को पहने, लंगड़ाते-लंगड़ाते घर पहुँचे थे। इस उम्मीद में कि आते/जाते कभी दाएँ पैर का चप्पल किसी पटरी के किनारे पड़ा मिल गया तो उठाकर ले आएंगे और बाएँ पैर के चप्पल के बगल में रखकर उससे बोलेंगे..लो! अब जोड़े से रहो, खुश रहो, मस्त रहो। हाय! बाएँ पैर का चप्पल आज भी अपने साथी की प्रतीक्षा कर रहा है। ए. सी. बोगी में, स्लीपर बोगी की तरह, छोटे स्तर की चोरियाँ नहीं होतीं, वहाँ अक्सर ऊँचे लोग ही सफर कर पाते हैं!

ऊँचे लोगों की बात चली तो बाबाओं की याद हो आई। आजकल बाबाओं की चर्चा फिर सुर्खियों में है। ये बाबा बड़े कृपालू होते हैं। अपनी ख्याति बनाए रखने के लिए समय-समय पर अपना डंडा/झण्डा गाड़ कर, फहरा ही देते हैं। बाबा के पकड़े जाने की खबर सुनकर मैने अपने एक ब्राह्मण मित्र से कहा..क्या बाबा! यह क्या हो रहा है? (इधर पूर्वान्चल में ब्राह्मणों को बाबा कहने का चलन है।) मित्र नाराज हो कर बोले..जेतना धरइले हौउवन ओहमें केहू बाबा ना हौ, सब नकली बाबा हैं। 

ट्रेन आराम-आराम से चल रही है। अगल बगल के लोग अपने विद्वता का खजाना चुक जाने के बाद, अपने-अपने सिंगल बर्थ में लेट चुके हैं। बोगी में बाथरूम/दरवाजे के पास का एक बल्ब जल रहा है, शेष पूरी बोगी के बल्ब बुझाए जा चुके हैं। थोड़ी देर पहले दो सुरक्षाकर्मी तहकीकात करते हुए गुजरे थे। उनको इस प्रकार सचेत होकर ड्यूटी करते देख मन प्रसन्न हो गया। सरकार को मध्यमवर्गीय बोगियाँ के यात्रियों की भी चिंता है। इससे यह उम्मीद जग गयी कि यह चिंता एक दिन जनरल बोगी तक भी पहुँचेगी। भले अपने पालतू कुत्ते, बकरियों या सायकिल के साथ हों, आखिर जनरल बोगी में भी  मनुष्य ही सफर करते हैं। वे भी इसी देश के प्राणी हैं। यह देश उनका भी है।

यात्रा में एक और मजेदार घटना घटी। रात के बारह बजे के बाद जब हम सो गए तो एक झगड़े के शोर से नींद टूट गई। ट्रेन अयोध्या में रुकी हुई थी। यहाँ से चार यात्री चढ़े थे। यात्रियों में एक महिला, दो प्रौढ़ और एक युवा था। युवक ने बाल मुड़ा रखा था और सफेद धोती/कुर्ता पहने था। सीधे सादे, ब्राह्मण परिवार के दिखने वाले ये लोग मेरे लोअर बर्थ के ऊपर 'अपर बर्थ' वाले यात्री से झगड़ रहे थे...यह मेरी बर्थ है, उठो! ऊपर सोया यात्री चार लोगों द्वारा अचानक कोचे जाने पर बेहद घबराया/झल्लाया हुआ था... नहीं, यह मेरी ही बर्थ है। यह देखो, टिकट! S4 59. मेरा टिकट भी देखो..S4, 59,60,61,62। झगड़ा बढ़ता जा रहा था। 

दोनो पार्टी एक ही बर्थ के लिए झगड़ रही थीं, दोनो का दावा था कि यह बर्थ मेरी है! दोनो टिकट होने का दावा भी कर रहे थे!!! रेलवे से ऐसी गलती कभी हो ही नहीं सकती कि एक ही बर्थ के दो कन्फर्म बर्थ रिजर्व कर दे! पहले तो झगड़ा सुनता रहा, फिर झल्ला कर बोला..आप लोग शांत हो जाइए, ऐसा हो ही नहीं सकता, अपना- टिकट दिखाइए! दोनो के पास वाकई इसी ट्रेन नम्बर, इसी कोच और इसी बर्थ का टिकट था! यह कैसे सम्भव है? अपनी बुद्धि भी एक पल के लिए चकराई फिर PNR NO. चेक करने लगा।

उफ्फ! मौके पर नेट भी काम नहीं करता। मैं बोला..ऐसा हो नहीं सकता, नेट काम नहीं कर रहा नहीं तो मैं बता देता कि यह किसका बर्थ है आप लोग टी. टी. को बोलाइये, आपस में मत झगड़िए, टी.टी. के पास चार्ट होता है, बात साफ हो जाएगी। इतने में सुरक्षाकर्मी टी.टी. को ले आया।

टी.टी. चार्ट देखकर बताया कि यह बर्थ उसी यात्री की है जो पहले से सो रहा था। उसे बर्थ दिलाकर टी.टी. ने अयोध्या से चढ़े यात्री से पूछा..आप ने कोई टिकट कैंसिल कराया है?  युवा बोला..हाँ, कराया है, लेकिन मेरा 6 बर्थ था, दो कैंसिल कराया, चार तो होनी चाहिए न? उसने झोले से और टिकट निकाला। टी.टी. ने समझाया..वो वाली बर्थ कैंसिल हुई है, जिसके लिए आप झगड़ रहे थे। आपकी ये , ये, ये और ये वाली चार बर्थ है। जाइए! अपनी बर्थ पर सोइये। 

मामला हल होने पर सभी यात्री हँसने लगे और फिर बाद का सफर आराम से कट गया। 

15.9.19

बारिश

आज बादल घिर रहे हैं
खूब  बारिश हो रही है
शाम तक सूखा था मौसम
रात बारिश हो रही है।

एक घर था हमारा
गङ्गा किनारे, संकरी गलियाँ
तल का कमरा राम जी का
मध्य में माता पिता थे
छत में था एक कमरा
जिसमें रहते पाँच भाई
और इक छोटी बहन भी
जब भी होती तेज बारिश
काँपता था दिल सभी का
ज्यों टपकता छत से पानी
खींच लेते आगे चौकी
बौछार आती खिड़कियों से
खींच लेते पीछे चौकी
तेज होती और बारिश
छत टपकता बीच से भी
अब कहाँ जाते बताओ?
इधर जाते, उधर जाते
भीगकर पुस्तक बचाते

फिर ये बादल घिर रहे हैं
खूब  बारिश हो रही है
शाम तक सूखा था मौसम
रात बारिश हो रही है।

है यहाँ लाचार बारिश
मजबूत है अपना ठिकाना
वातानुकूलित कोठरी है
है असम्भव छू के जाना

मन मगर बेचैन मेरा
घिर रहा यादों का डेरा
तेज होती और बारिश
याद आता घर वो मेरा

हम नहीं रहते वहाँ पर
घर मगर वैसे बहुत हैं
निश्चिंत हैं हम बारिशों से
काँपने वाले बहुत हैं

काश!सबके पक्के घर हों
काश सब खुशियाँ मनाएँ
घिर के आए जब बदरिया
नाचें, कूदें, झूमें, गाएँ।

आज बादल घिर रहे हैं
खूब  बारिश हो रही है
शाम तक सूखा था मौसम
रात बारिश हो रही है।
...........................


10.9.19

अधिकार और कर्तव्य

सरकारी नौकरों को
काम के बदले
वेतन दिया जाता है
लेकिन वे
इससे संतुष्ट नहीं होते
अधिकार ढूँढते हैं!
जबकि
उनके हिस्से की
कानूनी वसीयत में,
अधिकार शब्द
होता ही नहीं,
दायित्व होता है।

कुछ तो
बड़े खुशफहमी में जीते हैं
दायित्व को,
अधिकार की शराब में
घोलकर पीते हैं।

ज्यों-ज्यों
दायित्व बढ़ता जाता है
त्यों-त्यों
अधिकार का नशा
चढ़ता जाता है।

सरकारी दफ्तर के
चतुर्थ श्रेणी महोदय भी
जब अपने सारे अधिकार जता कर
तृप्त हो जाते हैं
तभी फरियादी की मुलाकात
बड़े साहब से
करवाते हैं।

बड़े साहब मतलब
बड़े अधिकारी
जब वे
अपने सारे अधिकार आजमा कर
असहाय हो जाते हैं
तभी कृपा कर
फरियाद को पँख लगाते हैं
सुनहरी कलम से
प्रार्थना पत्र पर
अपनी 'चिड़िया' बिठाते हैं।

साहब की चिड़िया
बैठते ही
फरियाद को पँख लग जाता है,
उड़ने लगता है!
उड़ते-उड़ते
बड़े बाबू के टेबल पर जाकर
बैठ जाता है।

बड़े बाबू भी
कर्तव्य को अधिकार समझते हैं
अपनी चिड़िया बिठाने से पहले
फरियादी का
इन्तजार करते हैं!

धीरे-धीरे
पूरा दफ्तर
जब अपने-अपने हिस्से के
अधिकार के नशे का
सेवन कर लेता है
तब जाकर
फरियादी को
(हौसला शेष रहा तो)
अपना अधिकार
मिल पाता है।

अधिकार का नशा
शराब से खतरनाक होता है
शराब तो
पीने वाले को ही नुकसान पहुंचाती है
लेकिन अधिकार
कभी-कभी
फरियादी को भी
मौत के घाट उतार देता है।

अधिकार के नशे की लत
बड़ी भयानक होती है
उतरती तभी है
जब
उम्र निकल जाती है
या नौकरी
छूट जाती है।

दायित्व से
जान पहचान हो,
दोस्ती हो,
तो कुर्सी से उतरने के बाद भी
व्यक्ति
अकेला नहीं होता
उसके पास
असंख्य
तृप्त फरियादियों की
दुआएँ होती हैं
जमीन पर पैदल चलता है
तो भी लोग
झुककर
दुआ-सलाम करते हैं
राम-राम करते हैं
पीठ पीछे
चर्चा आम करते हैं..
बड़ा अच्छा अधिकारी था।
................