वाराणसी और बलिया के बीच कई छोटी-छोटी नदियाँ मिलती हैं। राजवाऱी स्टेशन से आगे बढ़ते ही गोमती, नन्द गंज से पहले गांगी, गाजीपुर घाट के बाद बेसो, युसुफपुर के बाद मंगई और फेफना से पहले टौंस या तमसा। सभी छोटी-बड़ी ये नदियाँ आगे चलकर गंगा में मिलती हैं। पूरा इलाका काफी उपजाऊ है।
भोर होने वाला है। अँधेरा छंटने वाला है। पैसिंजर ट्रेन खरगोश की तरह उछलने के बाद चींटी की तरह रेंगने लगी। आ रहा है स्टेशन - कादीपुर।
अँधेरा तेजी से छंट रहा है। पैसिंजर ट्रेन फिर खरगोश की तरह उछलने के बाद जोर-जोर से हार्न बजाते हुए धीमी हो रही है। रजवारी स्टेशन है। चायवाला ठेले पर कोयले के चूल्हे को तेजी से हांक रहा है। धुआँ फैला है। उसकी चाय नहीं बन पायी।
भोर हो चूका है। ट्रेन औडिहार स्टेशन पर रुकी है। बिजली के तार पर बहुत से कौए बैठे हैं। प्लेटफोर्म में बहुत भीड़ है। पकौड़ी वालों की पकौड़ी छन चुकी है। सामने 3 नम्बर प्लेटफोर्म पर पानी की पाइप टूटी हुई है जिससे एक फुहारा-सा निकल रहा है। भीड़ का रेला, महिलाओं, बच्चों की कचर-पचर मेरे इर्द-गिर्द बढ़ती जा रही है। अब लोग बैठ गए हैं। कुछ यात्रि अखबार के टुकड़ों मे घूम-घूम कर पकौड़ी खा रहे हैं। ट्रेन ने सिटी बजा दी। घूम रहे लोग हडबडा कर ट्रेन में चढने लगे। एक अँधा भिखारी ढपली बजाते आ गया-दुर्गा भवानी हो, माई महरानी हो, दुखवा सुनावे कहाँ जाई माई?
सैदपुर भितरी यही नाम है स्टेशन का। भितरी में छोटी इ की मात्रा है। प्लेटफार्म नहीं दिख रहा है। सूरज अपनी किरणों को तेजी से धरती में पार्सल कर रहा है। धूप पीछे-पीछे भागी चली आ रही है।
तरांव से पहले कई गाँव आये। ट्रेन रुकी है। एक मालगाड़ी किसी उद्योगपति का माल लादे पैसिंजर ट्रेन को हिकारत की नज़रों से देखती, गुर्राती तेजी से निकल गयी। उसके जाते ही पैसिंजर ख़ुशी से किलकने लगी। यात्रियों ने मुक्ति की लम्बी सांस ली। लठ्ठा नमकीन वाला चीख रहा है-ताजा-ताजा हौ। खईबो करा घरे ले के जयिबो करा। ए भईया! केहू ना लेइ का हो?
इन दिनों ट्रेन के सफ़र में छोटे बच्चे की तरह खिड़की के पास बैठने के लिए मन मचलता है। जिधर देखो उधर धान की फसल लहलहा रही है। बीच-बीच में बाजरा सीना ताने खड़ा है। बिजली के तार पर बैठे, इधर-उधर उड़ते श्वेत-श्याम पंछियों के झुण्ड का कलरव फ़सल पकने की आहट दे रहा है। बंजर धरती पर भी खिले 'कास' को देखकर ऐसा लगता है जैसे अभी बर्फवारी हुई है।
माँ दुर्गा दो बार आती हैं। दोनों समय धरती की सुन्दरता देखते ही बनती है। हम अपनी दैनिक चिंताओं को भूल प्रकृति के इस सौगात से जुड़ सकें तो मन गुड़हल की तरह खिलने लगता है। यकीनन हमारे देश में नववर्ष दो बार आता है।
नंदगंज से पहले और बाद दो हाल्ट आते हैं। बासुचक और सहेड़ी हाल्ट। दोनों को पार कर ट्रेन मस्त चाल से भागी जा रही है। क्रासिंग का झंझट न हो तो पैसिंजर समय से पहुंचा सकती है। डबल लाइन का कार्य युद्ध स्तर पर किया जाना चाहिए। आजादी के इतने वर्षों बाद भी इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। ट्रेन आकुसपुर स्टेशन पर रुक गयी। अगला स्टेशन गाजीपुर है।
गाजीपुर स्टेशन में बड़ी धमाचौकड़ी है। सीट के लिए मारामारी है। कोई कूद कर ऊपर जा रहा है कोई थोड़ा घिसकने का आग्रह कर रहा है। गाजीपुर से बलिया जाने वाले डेली यात्री भी बहुत हैं। पैसिंजर में वैसे भी भीड़ रहती है, गाजीपुर के बाद कुछ ज्यादा हो गई है। एक महिला गोदी में बच्चा लिए खड़ी है। तीन और बच्चे उससे चिपके खड़े हैं। खिड़की में दो बच्चे एक दुसरे के ऊपर लदे हैं। एक बच्चा बाबूजी की गोद में जोर-जोर से अम्मा-अम्मा चीख रहा है। चार की सीट पर पाँच-छः यात्री बैठे हैं। इसी भीड़ में चना, लठ्ठा-नमकीन बेचने वाले भी आ-जा रहे हैं। कई महिलाएँ खड़ी हैं। इतनी संख्या में कि पुरुष यदि उनके लिए अपनी सीट छोड़ दें तो सभी खड़े नज़र आएंगे। रोज़ के यात्री जिन्हें प्रतिदिन 10 घंटे का सफ़र तय करना है वे तो इतनी सहृदयता दिखाने से रहे।
बाहर घूमने का मन कर रहा है लेकिन लौटने पर फिर सीट मिलने की उम्मीद नहीं है। सामने बच्चों के साथ बैठी ग्रामीण महिला भी मोबाईल में फोटू-सोटू देख-दिखा रही हैं। देश ने संचार के मामले में खूब तरक्की की है। कोई गाड़ी फिर गई। पैसिंजर फिर ख़ुशी के मारे उछलने लगी।
खेतों में शांति से दाने चुग रहे बगुले, कौए, कबूतर और दूसरे पंछी इंजन के हार्न से घबरा कर उड़ते हैं। इन उड़ते पंछियों के फ़ोटू खींचने का करता है मन। इस बात से बेखबर की हमारे दखल से दुखी हो, उड़ रहे हैं पंछी!