बनारस की गलियों में तरह-तरह की शैतानियाँ देखने को मिलती थीं। एक गली के चबूतरे पर प्रौढ़ सरदार 'भइयो' बैठता था। जिस घर से सटा यह चबूतरा था उस घर में एक लड़का रहता था। लड़का थोड़ा हचक कर चलता था इसलिए लोग उसे लंगड़ कहते थे। लड़के का नाम शंकर था। उसकी दो बहनें थीं...एक सांवली और एक गोरी। उसके पिता जी काम तो बनिया का करते थे लेकिन चंदन-मंदन लगा कर खूब भक्ति भाव से रहते थे। भइयो, चबूतरे पर बैठ कर दिन के समय बड़े तरन्नुम में एक गीत गाता था...
काली माई करिया
भवानी माई गोर
शिव बाबा लंगड़
पुजारी बाबा चोर।
कहना न होगा कि उसका गाया यह गीत उनके परिवार को ज़हर की तरह चुभता। इसके कारण आये दिन झगड़ा होता रहता। शंकर चीखता..
ई का गात हउआ? तोहें शरम नाहीं लगत?
सरदार कहता.."काहे? हम तोहे तs कुछो नाहीं कहली..! हम त भजन गात हई।"
मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि इस गाने का कोई दूसरा भी अर्थ भी हो सकता है!
................