गर्मी से नींद उचट चुकी थी। अंधेरे में कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। बिजली कटी थी और इनवर्टर भी जवाब दे चुका था। प्यास के मारे बुरा हाल था। मोबाइल की रोशनी से फ्रिज खोल कर पानी की एक बोतल निकाला और खड़े-खड़े आधा पी गया। कुछ जान में जान आई। घड़ी देखी, रात के दो बज रहे थे। सोंचा, छत पर टहलते हैं!
मेरे घर की बाउंड्री से लगे पड़ोसी के सागवान, मेरे आंगन का आम और गेट के बाहर कॉलोनी की सड़क पर 'वन विभाग' द्वारा रोपे गए 'कंदब' के वृक्ष स्तब्ध खड़े थे। शाखों का झूमना, पत्तियों का ताली बजाकर खुशी का इज़हार करना, स्वागत करना, हाल-चाल पूछना तो दूर था, मुझे देखकर भी, चुपचाप भकुवाए खड़े थे ! छत के एक कोने में मरे सांप की तरह पसरी बेला की एक लतर को, चाँदनी की धुंधली सी रोशनी में देखा-- अधखिली कलियाँ सूख चुकी थीं। दूर-दूर तक फैले अंधियारे की नीरवता में, इन वृक्षों की काली आकृतियाँ, रह-रह कर भौंकते कुत्तों की आवाजें, झिंगुरों की झिन-झिन, नील गगन में छिटके तारे और दूर अधकटा पीला चाँद एक भयावह दृश्य उत्पन्न कर रहे थे।
टहलते-टहलते सोंचने लगा कि ये वृक्ष कितने असामाजिक हो चुके हैं ! न बोलना न बतियाना... चुपचाप खड़े रहना ! अनायास लगा कि कुछ कह रहे थे कटे चाँद से और सहसा मेरे आने की आहट सुन चुप हो गए। मैने सोंचा ये तो बताने से रहे, चाँद से ही पूछ लेते हैं। मेरे मन की बात जान चाँद ने बादलों की हल्की सुफेद चादर ओढ़ ली। मैने पूछा... कुछ तो कहो.. ये वृक्ष इतने खामोश क्यों हैं ? बादलों से निकलकर चाँद ने कहा- "ये मुझसे तुम्हारी और सूरज की शिकायत कर रहे थे। कह रहे थे, तुम तो इतने सुंदर हो, शीतल चाँदनी बिखेरते हो मगर दुष्ट सूरज आजकल दिनभर आग उगलता रहता है।" अब तुम्हीं कहो, जो खुद सूरज की रोशनी से चमकता हो, वह क्या ज़वाब दे! सूरज न हो तो मेरा क्या होगा जानते ही हो। ये भी तो मर जाएंगे बिना धूप के। इतना कहकर चाँद मौन हो मुस्कुराने लगा। मैने हंसकर पूछा, " और मेरी... ? मेरी क्या शिकायत कर रहे थे ?" चाँद कुछ कहता कि अचानक हवा बहने लगी और वृक्षों में सरसराहट शुरू हो गई। आम, बेला, कदंब सभी एक स्वर में चीखने लगे। ठूंठ की तरह खड़े सागवान, हौले-हौले गरदन हिला कर उनकी बातों का समर्थन करने लगे।
सभी एक स्वर से चीख रहे थे- "तुम भी कम बदमाश नहीं हो ! हमें लगा कर छोड़ दिया सूरज की आग में जलने के लिए ? खुद तो हर घंटे पानी पीते हो और हमें प्यासा रख छोड़ा है ! जानते हो कल एक 'बुलबुल' प्यास के मारे तड़प-तड़प कर मर गई। पंछियों की चहचहाहट अच्छी लगती है मगर पानी का एक घड़ा रखना जरूरी नहीं समझते छत पर। फल-फूल और छाँव चाहते हो हमसे मगर यह नहीं समझते कि इन्हें भी प्यास लगती होगी गर्मी में। हम तुम्हारी निष्ठुरता से बहुत दुःखी हैं।
मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ। दरअसल बिजली इतनी कम आती है कि सुबह-शाम जब भी घर में रहता, 'बिजली आई' देखते ही 'समरसेबल' चला कर पौधों को पानी देने के बजाय, कम्प्यूटर चलाने में ही व्यस्त हो जाता। अचानक इस बात का एहसास हुआ कि ब्लाग में संवेदना बिखेरते-बिखेरते खुद कितना संवेदनहीन हो चुका हूँ ! यह एक दुखद एहसास था। जिन पौधों-पंछियों से इतना प्यार करता था उनके प्रति इतना लापरवाह कैसे हो गया ! मुझे लगा कि इंसान को अपने शौक में इतना नहीं डूब जाना चाहिए कि वह इंसानियत ही भूल जाय। मैने सभी से क्षमा-प्रार्थना की और वादा किया कि कल से यह भूल नहीं होगी।
पंछियों की चहचहाहट से मेरा ध्यान भंग हुआ। मैने देखा, अंधेरा छंट चुका था। सुबह हो चुकी थी।
Laajawab!!!!!
ReplyDeleteभैय्या , यहा भी यही हाल है । लाँन मे गुड़हल के पेड़ पर बुलबुल ने तीन अंडे दिए । घर और पड़ोस के बच्चे देख देख के खुश थे । अण्डे से बच्चे भी निकल आए थे । कितना आनन्द सबको .....
ReplyDeleteअपार .दोनो बुलबुल भी खुश ...... तीनो बच्चे भी उड़ने को बेताब ।.......रात बीती सबेरे घोसला नीचे टूटा पड़ा था ...,..
बुलबुल जोड़े ने कहाँ नही ढूँढा . खूब चिंचियाए ..,..
उस दिन किसी ने घर मे खाना ,..,उदासी
आपका आलेख प्रशंसनीय ।
इंसान को अपने शौक में इतना नहीं डूब जाना चाहिए कि वह इंसानियत ही भूल जाय।
ReplyDeleteवाह पाण्डे जी , घुमा फिर कर कितनी सही बात कही है।
ब्लोगिंग का एक दुष्परिणाम यह भी हो सकता है।
बेशक प्रकृति की तरफ भी हमारा फ़र्ज़ बनता है।
वाह! बहुत खूब! आपकी सिफ़ारिश पर आज से ही पक्षियों के पानी का इंतजाम करता हूं!
ReplyDeletesamvedansheel vykti hai aap ek ek rachana ye pragat karatee hai.
ReplyDeleteaap ke yanha sadak ke pedo ko panee dene municipality kee van nahee aatee hai kya ?
सुन्दर अभिव्यक्ति ...देवेन्द्र भाई बदलते नजरिये , संबंधों और संवेदनाओं पर बहुत बड़ी बात कह डाली आपने ! पर ऐसा क्यों है कि जब भी आप बिजली का ज़िक्र करते हैं तो मुझे लगता है कि कोई मेरे जख्मों को कुरेद रहा है !
ReplyDeleteहा...हा...हा...बहुत ठीक लिखा है आपने ,मजा आ गया .आप तो चेता गए मगर औरों का क्या होगा ,जो टी वी और कम्पूटर के कारण और सब कुछ भूलते जा रहे हैं.
ReplyDeleteअच्छा याद दिलाया। देखूं, गर्मी के मौसम में चिड़ियों के लिये रखी खपड़ी मं पानी भरा है या नहीं!
ReplyDeleteबहुत सुंदर जी जब जागो तभी सवेरा सही कहा आप ने ओर कल सुबह ही इन्हे पानी जरुर देवे, वेसे इस ब्लांग का नशा हम सब को कम करना चाहिये.
ReplyDeletesahi baat hain.
ReplyDeletehum swaarth ki sabhi hado ko paar kar chuke hain.
vichaar karne yogya.
(waise mere ghar par sardi-garmi 24 ghante paani-chuggaa available rehtaa hain.)
thanks.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
बहुत अच्छी लगी आपकी बैचेनी(संवेदनशीलता)।
ReplyDeleteहमें सबक लेना चाहिये।
आभार
रात के अँधेरों से एक सबेरा निकाल लाये । सुन्दर ।
ReplyDeleteKitna sahi likha hai..prakruti ki or hamari zimmedariyan sach me bhool rahe hain!
ReplyDeleteबहुत खूब!
ReplyDeleteठहर कर फिर आउंगा - बतलाऊँगा !
ReplyDeleteअभी तो बस इतना ही कहूंगा कि मैंने जो सोचा था और निवेदन किया था
उसको सुन्दर ढंग से फलीभूत होते देख रहा हूँ ...
निराला जी की इस पंक्ति में मेरे विश्वास(आपके प्रति सहज ही उपजे)को भी देखिएगा ---
'' और भी फलित होगी यह छवि .... '' !
सटीक और सार्थक लेखन..बहुत बढ़िया लिखा है...जब जागो तभी सवेरा
ReplyDeleteअचानक इस बात का एहसास हुआ कि ब्लाग में संवेदना बिखेरते-बिखेरते खुद कितना संवेदनहीन हो चुका हूँ !
ReplyDeleteसटीक और सार्थक।
sach baat kahi aapne...lekin aaj ham paid paudho se to kya apne rishto se bhi la-parwah hote ja rahe hai...aur vo b sirf is anterjal ki vajeh se.bahut acchhi post..aur acchhe shabdo ka chunav.badhayi.
ReplyDeleteवाह इतना घुमा फिरा कर निशाने पर चोट की है कि मतलब की बात बड़ी चतुराई से कह गये..हमें तो चाँद और पेड़ो की भाषा ही नही आती..वरना हम भी कुछ पेड़ों मे पानी डालते..वैसे ऊपरवाले को बोल दिया था..सो रोज़ दो-चार बादलों के टैंकर भर के भेज देता है..सबकी सिंचाई हो जाती है..
ReplyDeleteजब जागो तभी सवेरा सही कहा आप ने.सटीक और सार्थक लेखन
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पढ़ कर मुझे अपनी एक पुरानी पोस्ट याद आ गयी, पर वो पेड़ और रिश्तों पर थी
ReplyDelete"कभी यहाँ जंगल थे
पेड़ों की बाँहें
एक दूसरे के गले लगतीं
कभी अपने पत्ते बजाकर
ख़ुशी का इज़हार करतीं
कभी मौन हो कर
दुःख संवेदना व्यक्त करतीं
न जाने कैसे लगी आग
सुलगते रहे रिश्ते
झुलसते रहे तन मन
अब न वो जंगल रहे
न वो रिश्ते."
आपकी इस पोस्ट ने सचमुच सोचने पर मजबूर कर दिया.मैंने तो एक एक कर के सब चेक किया.
१ पक्षियों को पानी दिया -सबेरे ही उनका बर्तन मांज कर पानी भरा
२ पक्षियों को खाने को दिया -हाँ
३ पौधों को पानी दिया - हाँ सबको नहला दिया
४ ब्लॉग पर आने के पहले सब काम कर दिया -हाँ
५ ब्लॉग पर एक हफ्ते में एक से ज्यादा पोस्ट डाली - नहीं कभी नहीं
मैंने अपना रिपोर्ट कार्ड आपको दे दिया .मुझे लगता है कि एक कागज़ पर लिख कर कहीं कमरे में लगा दूँ तो याद रहेगा. अब कोई रोज़ रोज़ तो आपका ब्लॉग खोल कर इन बातों को पढ़ कर इत्मिनान नहीं कर सकता क्योंकि आप कहेंगे कि लो फिर काम छोड़ कर लगीं करने ब्लोगिंग हा.... हा ...
यकीन मानिए बहुत कुछ कह दिया आपने और बहुत खूबसूरती से कह डाला. ऐसी छोटी छोटी बातें यदि हम एक दूसरे से कहते रहें तो शायद हम अपने आप को जाँच सकें कि हम कहाँ खड़े हैं और कितने सुधार कि कहाँ जरुरत है बहुत बहुत आभार
@ छत के एक कोने में मरे सांप की तरह पसरी बेला की एक लतर को,
ReplyDeleteचाँदनी की धुंधली सी रोशनी में देखा-- अधखिली कलियाँ सूख चुकी थीं।
------------- रात के दो बजे के इर्द-गिर्द की नीद का टूटना , आत्मात्मक बेचैनी
और माहौल की अफ्सुर्दगी को व्यक्त करने के लिए ऐसी पंक्तियों से बेहतर
क्या होगा !
अन्यत्र भी आपकी पंक्तियों का प्रसंग-साम्य रुचिकर लगा !
यह हरियाला-व्यंग्यविनोद भी कम मारक नहीं है !
@ अचानक इस बात का एहसास हुआ कि ब्लाग में संवेदना बिखेरते-बिखेरते
खुद कितना संवेदनहीन हो चुका हूँ !
------------- बिना हरियाली की और लौटे कल्याण कहाँ है .. ब्लॉग वगैरह तकनीकी
मामले हैं इनका 'फ़टाफ़ट-यांत्रिक-विधान' है , यहाँ संवेदना बिखर सकती है , पर
संवेदना के प्राणवान होने के लिए तो 'हरियाले-विधान' की ओर
उन्मुख होना होगा !
बाकी पहले की बातों को फिर आगे जोड़ लिया जाय ................. / आभार !
सार्थक पोस्ट....
ReplyDeleteहमारी छत पर तो पंछियों के लिये दाना-पानी साल भर अनवरत चलता है
एक बात और कि जब टैम्प्रेचर ४० से ऊपर हो तौ पंछियों के पानी में थोड़ा गुड़ और साबुत या पिसा नमक मिला देना चाहिये क्योंकि इससे लू नहीं लगती और डिहाइड्रेशन का खतरा भी टलता है पंछी इसे शौक से पीते हैं
शानदार लेखन.. या इसे एक मन्थन कहना सही होगा..
ReplyDeleteइंसानियत न भूले कोई...!
ReplyDeleteसार्थक पोस्ट.
मौदगिल जी ने भी ज्ञानवर्धन किया.
हाँ,योगेन्द्र जी ने अच्छी जानकारी दी. थोड़ा सा गुड और नमक.
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया और सही लिखा है आपने! सुन्दर और सार्थक लेख! उम्दा प्रस्तुती!
ReplyDeleteवाह ... आपने अपनी बात कहने का जुदा अंदाज़ निकाला है ... सच है संवेदनाएँ ख़त्म नहिहोनी चाहिएं ......
ReplyDeleteati uttam ........
ReplyDelete'इंसान को अपने शौक में इतना नहीं डूब जाना चाहिए कि वह इंसानियत ही भूल जाय'
ReplyDelete- यदि ऐसा हो जाय तो यह दुनिया स्वर्ग बन जाय.
"संवेदनाएँ अभी भी है आपकी पोस्ट ये ही बताती हैं..."
ReplyDeleteगद्य पर भी आपकी पकड़ उतनी ही मजबूत ...बहुत बड़ी बात हौले से कह गए ...
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी आपकी बैचेनी।
ReplyDelete"टहलते-टहलते सोंचने लगा कि ये वृक्ष कितने असामाजिक हो चुके हैं ! न बोलना न बतियाना... चुपचाप खड़े रहना !"
ReplyDeleteरात में दरख्तों की ख़ामोशी का बड़ा ही बेहतरीन विम्ब तैयार किया है आपने.......रात में बत्ती गुल होने की आपबीती और उस दौरान का चिंतन सचमुच बड़ा ही रोचक है......शानदार पोस्ट !
samvedansheeltase bhari kisi bhi mahatva purn ko bina kahe hi logo tak gaharai se apni baat pahun chana aapki shreshyh kala ka hi praman hai.
ReplyDeletepoonam
बहुत बढिया लेख । आभार
ReplyDeleteएक बार फ़िर पढ़ा और फ़िर अच्छा लगा। जय हो।
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