यहाँ से वह इतनी ऊँचाई पर थी कि उसका एक हाथ से घास के मुट्ठे को पकड़ना, दूसरे हाथ से काटना और नटों की तरह संतुलन बनाये हुए दूसरी कम ऊँची पहाड़ी पर फेंक देना ही देखा जा सकता था. उसके नाक-नक्श यहाँ से नहीं दिख रहे थे किन्तु यह तय था कि वह गठीले ताम्र देह वाली बंदरों सी पहाड़ी पर उछलती घसियारिन, एक नवयौवना थी.
आदमी के लिए नारी का यौवन ही आकर्षण का केन्द्र बिंदु होने के लिए पर्याप्त होता है किन्तु इस निर्जन स्थान पर, घाघरा-चोली पहने उसका हैरतअंगेज ढंग से घास काटना ही मेरी धड़कन बढ़ाने का एकमात्र कारण था . अब गिरी तब गिरी कि संभावना से भयाक्रांत, घाटी के सम्पूर्ण सौंदर्य को विस्मृत कर, मैं अपलक उसे ही निहारने लगा....!
धीरे-धीरे मुझे विश्वास हो गया कि यह उसका दैनिक कर्म है. इसके हाथ-पांव इतने सधे ढंग से थिरकते हैं कि यह कभी गिर ही नहीं सकती . अब मेरे लिए कौतूहल का विषय यह था कि इतने ऊँचे खड़े पहाड़ की सपाट दीवार पर अपना संतुलन बनाये खड़ी यह गिलहरी, अपने ही द्वारा गिराये गये घास के ढेर तक कैसे पहुँचेगी ? कहीं किसी पहाड़ी गुफा में घुसकर आँखों से ओझल तो नहीं हो जायेगी !
विचारों की श्रृंखला में कुछ और भी विचार जुड़ने लगे. यूँ देखा जाय तो हर जगह पाई जाती हैं 'घसियारिन'. अपने पूर्वी उत्तरप्रदेश के मैदानी इलाकों में, पश्चिम समुन्द्र तटीय गाँवों में, दक्षिण में या फिर हिमालय कि इन घाटियों में . मैं इनकी मेहनत की तुलना करने लगा और तुलनात्मक ढंग से यह निष्कर्ष निकाला कि सबसे कठिन होता है पहाड़ों का जीवन और सबसे मेहनती होती हैं पहाड़ों की स्त्रियाँ. भोर से रात तक पशुओं के चारे से लेकर शराबी पति के लिए रोटी-बोटी के प्रबंध में जुटी, दुरूह श्रम बड़े मनोयोग से करती रहती हैं. पीठ पर बोझ, माथे पर पसीना मगर होठों पर कभी खत्म न होने वाली मुस्कान. हवा का हल्का सा झोंका भी इन पहाड़ी कामकाजी स्त्रियों को ढेर सारी खुशियाँ दे जाता है.
इन पहाड़ी घाटियों में ऐसे स्थानों पर जहाँ जगह का फैलाव ज्यादा होता है, अपने ही द्वारा बहाकर लायी हुई गोल-सुडौल पत्थरों के छोटे-बड़े टुकड़ों में इन नदियों की धाराओं की शिल्पकारी देखी जा सकती है. इन पथरीले मैदानों में नदी की धाराएँ, कई भागों में विभक्त होकर बहने लगती हैं. बिखरने के क्रम में इन धाराओं की रफ्तार भी कम हो जाती है. जगह-जगह बन गये चौड़े-गहरे गड्ढों में पानी गहरा हो जाता है जहाँ मछलियाँ तैरती रहती हैं. इन मछलियों को तैरते देख कर ऐसा लगता है मानों स्वर्ग से उतरकर परियाँ जलक्रीड़ा में निमग्न हैं. आगे जाकर ये बिखरी धाराएँ पुनः एक स्थान पर, दक्षिण भारतीय सुहागन स्त्री की लम्बी वेणी की तरह गुंथकर, एक हो जाती हैं. एक होकर सर्पाकार नदी तेजी से मैदानी इलाकों की ओर भागने लगती है.
घाटियों में आवागमन की सुविधा के लिए लकड़ी या लोहे की चादरों को मोटे-मोटे तारों से बांधकर, दो ऊँची पहाड़ियों से जोड़ दिया जाता है. इस प्रकार एक स्थायी पुल का निर्माण हो जाता है जहाँ से लोग यदा-कदा, एक या दो की संख्या में गुजरते देखे जा सकते हैं.
अरे..! यह क्या...!! मैं विचारों की श्रृंखला में इतना निमग्न हो गया कि कौतुहल बनी अपनी 'घसियारिन' को ही भूल गया....!!! वस्तुतः मैं जान ही नहीं पाया कि कब और कैसे वह नीचे वाली पहाड़ी पर उतर गयी और शंकु के आकार की एक बड़ी सी टोकरी में घास के ढेर को भरकर, पीठ पर लादे, सर झुकाये, सधे हुए क़दमों से पुल पार करने लगी ! पुल से गुजरते हुए उसने मेरी ओर ऐसे उपेक्षा से देखा कि मानों मैं कोई ग्रासोफर हूँ और वह एक मेहनती चींटी .
मुझे लगा कि पहाड़ों का असली सौंदर्य तो इन पहाड़ी स्त्रियों के जिस्म से निकलने वाली पसीने की उन नन्ही-नन्ही बूदों में ही छुपा है जो पुल पर से गुजरते वक्त नदी की धारा में मिलकर कहीं गुम हो जाती हैं.
( चित्र गूगल से साभार )
bhai wah badaa hi jiivant varnan kiya hai aapne
ReplyDeleteश्रम-सीकरों से ही रचती-बसती है सृष्टि और निखरता है सृष्टि का सौन्दर्य !
ReplyDeleteप्रवाहपूर्ण लेखन ! कुछ पंक्तियाँ तो अद्भुत..उदाहरणार्थ समापन !
प्रविष्टि का आभार !
चाचा जी ..एक सोचनीय प्रसंग...प्रस्तुत रचना निराला जी की वो तोड़ती पत्थर की याद दिलाती..एक ग़रीब और दुनिया के सारे सुखचैन के अभाव में अपनी छोटी सी दुनिया में सब कुछ भूल जाने वाली औरत की कहानी है ये घसियारिन..उत्तर प्रदेश ही नही बहुत सारे कृषि प्रदेशों में औरत का एक रूप ये भी है....जिसे आपने अपने शब्दों में बहुत सुंदर ढंग से व्यक्त किया ..बढ़िया आलेख...बहुत अच्छा लगा...सुंदर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई ..प्रणाम चाचा जी
ReplyDeletewaah jabardast...chitr guzar gaye aankhon ke saamne se
ReplyDeleteगजब का सौन्दर्यबोध और सृष्टि बोध है आपका ?
ReplyDeleteमंत्रमुग्ध करती पंक्तियाँ ...
ReplyDeleteकुछ मैं भी लिख दू इस तिलिस्म पर ...
श्रम स्वेद से नहाई ...मिटटी की क्यारी बनती ...
घसियारानें घास छिलती ...
गुनगुनाएं मेरी कविता तो ही इनकी सार्थकता ...
.... उसने मेरी ओर ऐसे उपेक्षा से देखा कि मानों मैं कोई ग्रासोफर हूँ और वह एक मेहनती चींटी .
ReplyDeletebahut kuch kah diya!
भई पांडे जी , पहले तो आपके ब्लॉग की मनमोहक हैडर तस्वीर , फिर पहाड़ी नदी की ये दिलकश फोटो , उस पर पहाड़ी घसियारिन की रोमांचक कथा। आज तो सुबह सुबह दिल्ली की गर्मी से राहत सी महसूस हो रही है ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर वर्णन किया है आपने सारे दृश्य का । सच है उनकी जिंदगी में मेहनत का पसीना उनके सौन्दर्य में चार चाँद लगा देता है । आभार ।
अत्यन्त ही सजीव वर्णन एक साधारण सी दिखने वाली घसियारन का । कभी हमें भी यदि पहाड़ों पर घसियारिन दिखी तो आपके ब्लॉग की बहुत याद आयेगी ।
ReplyDeleteश्रम स्वेद और सौन्दर्य से भरी आपकी सृजनशीलता को प्रणाम !
ReplyDeleteबहुत रोचक प्रसंग...
ReplyDeleteवाह,अद्भुत.
ReplyDeleteबहुत सुंदर चित्र खींचा आप ने धन्यवाद
ReplyDeleteGreat........
ReplyDeleteDivine simplicity.
ReplyDeleteघसियारिन का चित्र आँखों के सामने खिंच गया.नटों की तरह या गिलहरी की तरह संतुलन बनाना या फिर चींटी की तरह मेहनती होना.रचना किसी पहाड़ी घाटी पे बने पुल की तरह पाठको को (अपनी) घसियारिन :-) से जोडती है.
ReplyDeleteअभिव्यक्ति को समझने के प्रयास में आप पूर्णतया सफल रहे
सजीव चित्रण किया है आपने।
ReplyDeleteघसियारिन में आपका आबजर्बेशन अच्छा लगा, श्रीकांत वाले लेख को पढने के लिए उस चित्र पर जब हाथ सा बनता है तब मैं उसे क्लिक करता हूं तब एक लेंस सा बनता है फिर उसे क्लिक करता हूं तो मैटर बडा हो जाता है इसके बाद अगर फिर क्लिक करते हैं तो फिर छोटा हो जाता है,अगर पढ सकें तो बताएं
ReplyDeleteआपके ब्लॉग के विषयों की विविधता की दाद देनी होगी...कि हर रविवार की पोस्ट के बारे मे पहले ही उत्सुकता शुरू हो जाती है.. विशेषकर आप जितनी सहजता से गंभीर बातें कर जाते हैं विषय को बोझिल बनाये बिना..यह खासियत मुझे हमेशा आकर्षित करती है!..यह पोस्ट ही इसका शानदार उदाहरण है..श्रम का सौंदर्य...और उसकी सार्थकता को उसके मूल मे जा कर देखना..और उन स्थितियों से तादात्म्य स्थापित करना एक सजग विचारक की पहचान है!!..पहाड़ के दुरुह जीवन के बीच सहजता से सामंजस्य बिठा लेना स्त्री की निस्सीम शक्ति और साहस को परिलक्षित करता है....सो पसीने बूंदों के यह आभूषण जीवन की दुरुहताओं पर श्रम की विजय के प्रतीक हैं!!..वैसे तो धाराओं का वेणियों सा गुँथ कर एक हो जाना भी मजेदार लगा !!
ReplyDelete..और लगता है कि गर्मियों का मजा किसी हिल स्टेशन से लिया जा रहा है :-)
अपूर्व भाई-
ReplyDeleteसबसे पहले तो आभारी हूँ आपका और सभी का जिन्होंने तहे दिल से मेरा उत्साहवर्धन किया.
मैं गर्मियों का मजा किसी हिल स्टेशन पर नहीं ले रहा हूँ बल्कि पूरी सामर्थ्य के साथ बनारस की गर्मी, बिजली की कटौती, सड़कों के खस्ता हाल और बीएसएनएल के सर्वर डाउन के दंश को झेल रहा हूँ.
'घसियारिन' तो आज से ३-४ वर्ष पहले लिख कर भूल गया था....जब मैं हिल स्टेशन का आनंद ले कर लौटा था. स्थान का नाम जानबूझकर नहीं लिखा कि मुझे सभी हिम खंड के सामाजिक जीवन में कमोबेस समानता दिखती है..भाषा, रंग-रूप का भेद भले हो मगर पहाड़ों का जीवन बहुत कठिन है. २-४ दिन घूम कर लौट आना अलग बात है लेकिन वहाँ रहकर जीवन-यापन करना अत्यधिक कष्टप्रद है.
भला हो भाई अमरेन्द्र जी का कि उनके लेख हिम के आँचर से ताक-झांक पढ़कर 'घसियारिन' की याद हो आई वरना यह अभी कहीं दबा होता.
लेखक खुद नहीं जानता कि वह क्या है..यह तो पाठक तय करते हैं कि वह क्या है और उसे क्या होना चाहिए.
आप सभी का स्नेह ही मुझे पठनीय लिखने लायक बना सकेगा.
..आभार.
आज आपके ब्लॉग पर नज़ारा बिलकुल बदला हुआ है.पढ़ कर ऐसा लगा मानो कोई पिक्चर देख रहे हों हर एक बात प्रकृति के क़रीब और उससे हर हाल में मेल खाती हुई बिलकुल सजीव चित्रण
ReplyDeleteआभार
साहब !
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि में अपनी प्रविष्टि को पूर्ण/पक्व होते देख रहा हूँ | घसियारिन की याद आपने दिलाई थी , मन मसोस रहा था कि कैसे पूर्ण हो , आपको पढ़कर बहुत कुछ मिल गया | अपूर्व भाई ने सही कहा कि ऐसा विश्लेषण स्थान - सामीप्य की सहज संगति को बतलाता है , पर जब आपके जवाब को देखा तो लगा - ' जहां न पहुंचे रवि / वहाँ पहुंचे कवि ' , ऐसे ही नहीं कहा गया है | बनारस की तपती गर्मी में भी काव्योचित सहजता का निर्वाह हो रहा है , इस कविकर्म पर कहना ही पड़ रहा है कि आप जहां हैं वह वाकही बना-रस है !
काश मुझे भी कोई घसियारिन 'ग्रासोफर' बना देती , यही कहता - ' बलि बलि जाऊं मैं तोरे रंग-रेजवा ' ! एक चीटी की जीवटता से दोस्ती हो जाती ! कुदरती - फितरत ! हम तो बस उस घसियारिन का हंसिया ताड़ रहे हैं जिसने घास के साथ - साथ आपके नाम को भी चरों तरफ से काट कर खुद पर ला दिया ! 'वज्रादपि कठोराणि' में उद्भूत 'मृदूनी कुसुमादपि' से किसका चित्त नहीं खिंचा ! तब तो और जब श्रम-वारी अपनी सार्थक उपस्थिति से पूरे माहौल को उद्यम-सन्देश दे रही हो ! ऐसे स्थलों पर प्रगतिशील कवियों के श्रम-सौन्दर्य-निरूपण का भान हो जाना स्वाभाविक है ! एक अन्य चीज ने मेरा ध्यान खींचा जिसमें आप उच्चासीन पर्वतों से मैदानों तक आये और फिर दक्षिण के 'वेणु-वन' तक भी गए | एक समग्र भारतीयता का सहज ही आ जाना | काबिले-तारीफ़ ! और , अंत में नदी की धारा में गिरने वाला श्रम-सीकर ! सब साक्षात करता !
सुन्दर प्रविष्टि ! आभार !
बहुत ही सुन्दरता से आपने प्रस्तुत किया है! बेहद पसंद आया! इस उम्दा पोस्ट के लिए बहुत बहुत बधाई!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया...अवलोकन तथा वर्णन दोनों !
ReplyDeleteLajawaab kanvas kheencha hai aapne ... sundar prastuti ..
ReplyDeleteबस एक झलक और उस पर इतना जीवंत वृतांत!!! अद्भुत! अति सुन्दर.
ReplyDeleteएक अच्छी रचना .मगर सौंदर्य एक अलग चीज है और परिश्रम एक सुन्दर गुण है.
ReplyDeletesabkuch aankhon ke aage jivant ho utha
ReplyDelete@ मेरी पूर्व की टीप में / @ ... आपके नाम को भी चरों ....
ReplyDelete------ यहाँ नाम की जगह 'मन' होगा और चरों की जगह 'चारों'
और
श्रम - वारी गलत है , 'श्रम - वारि' होगा |
क्षमा चाहूंगा , हुजूर !
सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteमेरा ब्लॉग -
http://qsba.blogspot.com/
मेरे बेटे का ब्लॉग -
http://madhavrai.blogspot.com/
बहुत बढ़िया लिखा हैं आपने.
ReplyDeleteक्या आप मुझे "घसियारिन" का अर्थ बता सकते हैं??
धन्यवाद.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
drishya aur alfaazz...dono hi sarahniya hai :)
ReplyDeletehttp://liberalflorence.blogspot.com/
http://sparkledaroma.blogspot.com/
Mantra mugdh kar deti hai aapki kalam
ReplyDeleteअप्रतिम रिपोर्ताज ।
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ और आपकी इस खुबसूरत रचना को पढ़कर अभिभूत हूँ \पहाड़ी स्त्री का निस्वार्थ श्रम ही उसका अनुपम सौंदर्य है मै भी जब जब पहाड़ पर गई हूँ वहाँ की महिलाओ के कठिन जीवन को देखकर कई विचार आते थे आज उनको आपके शब्दों में पढ़कर बहुत अच्छा लगा |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर चित्रण उत्क्रष्ट रचना |
सुन्दर प्रविष्टि ! आभार !
ReplyDelete"मुझे लगा कि पहाड़ों का असली सौंदर्य तो इन पहाड़ी स्त्रियों के जिस्म से निकलने वाली पसीने की उन नन्ही-नन्ही बूदों में ही छुपा है जो पुल पर से गुजरते वक्त नदी की धारा में मिलकर कहीं गुम हो जाती हैं."
ReplyDeleteवाह लेख कहूं कि कहानी......अंत बहुत प्यारा है......जीवन का सत्य भी यही है दोस्त.....! तस्वीर लाजवाब है.....! खुद ली है क्या....?
उम्दा पोस्ट...
ReplyDeleteबहुत खूब! प्यारा लेख और सुन्दर टिप्पणियां। घासकीड़ा बनने की तमन्ना पूरी हो लेकिन जरा देर के लिये। फ़िर आकर पोस्ट लिखा जाये। :)
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