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खुल्लम खुल्ला बोल रे पगले
खुल्लम खुल्ला बोल ।
मन की गाँठें खोल रे पगले
मन की गाँठें खोल ।।
मैं अटका श्वेत-स्याम में
दुनियाँ रंग-बिरंगी
कठिन डगर है, साथी वैरी
चाल चलें सतरंजी
गर्जन से क्या घबड़ाना रे
ढोल-ढोल में पोल ।
मन की गाँठें खोल रे पगले
मन की गाँठें खोल ।।
काम, क्रोध, लोभ, मोह से
कभी उबर ना पाया
ओढ़ी तो थी धुली चदरिया
फूहड़, मैली पाया
खुद को धोबी बना रे पगले
सरफ ज्ञान का घोल ।
मन की गाँठें खोल रे पगले
मन की गाँठें खोल ।।
आदरणीय देवेन्द्र पाण्डेय जी
ReplyDeleteनमस्कार
खुद को धोबी बना रे पगले
सरफ ज्ञान का घोल ।
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
मन की गांठें अगर खुल जाती हैं तो , फिर इंसान खुद को सही मायने में जिन्दगी के करीब पाता है , ज्ञान की तरफ बढ़ पाता है , मन की मैल तभी धुलती है जब हम खुद का निरिक्षण करते रहते हैं .....शुक्रिया
काम, क्रोध, लोभ, मोह से
ReplyDeleteकभी उबर ना पाया
ओढ़ी तो थी धुली चदरिया
फूहड़, मैली पाया
ये कहाँ पहुँच गये देवेन्द्र जी
बहुत सुन्दर .. वाह
ग़जब पगले!
ReplyDeleteवाह रे पगले!!
सुन्दर रचना,
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी, इस चदरिया को धो ही लेना चाहिए, वरना एक दिन जब जाने का वक्त आएगा तो सुनने को मिलेगा-
"अब काहे शरमाये,
देख मैले चदरिया,
धोई नहीं पहले,
बीती तेरी पूरी उमरिया.
वैसे एक बात है, जब पता चल जाता है कि चदरिया मैली है, आधी तो उसी वक्त ही धुल जाती है.....
आपका धन्यवाद
खुद को धोबी बना रे पगले
ReplyDeleteसरफ ज्ञान का घोल ।
इस को धो ही लेना चाहिए,बहुत सुन्दर!
इस पगलई के क्या कहने :)
ReplyDeleteवाह वा वाह वा !
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी,
ReplyDeleteवाह.....क्या बात है.....और सादा बोली में बसी इस रचना में गूढ़ ज्ञान की बातें बता दी है आपने.....अपने अलग अंदाज़ में......बहुत सुन्दर
खुद को धोबी बना रे पगले
ReplyDeleteसरफ ज्ञान का घोल ।
मन की गाँठें खोल रे पगले
मन की गाँठें खोल ।।
बेहतरीन भाव !
खुद को धोबी बना रे पगले
ReplyDeleteसरफ ज्ञान का घोल ।
मन की गाँठें खोल रे पगले
मन की गाँठें खोल ।। ......vaah ...majedaar ...sundar kavita.
काम, क्रोध, लोभ, मोह से
ReplyDeleteकभी उबर ना पाया
ओढ़ी तो थी धुली चदरिया
फूहड़, मैली पाया
क्या बात है देवेन्द्र जी ,
अगर हम इन में से किसी एक से भी उबर सकें तो जीवन धन्य हो जाए मनुष्य तो इनके साथ साथ और भी दोषों का भागीदार बन जाता है
बहुत सुंदर कविता ,बधाई
खुद को धोबी बना रे पगले
ReplyDeleteसरफ ज्ञान का घोल ।
बहुत सार्थक पंक्तियाँ ....
सरफ ज्ञान का घोल । >>> बहुत सुन्दर। विशुद्ध ब्लॉगजगतीय कविता। हम जैसे कविता-निरक्षर को भी पसन्द आयी!
ReplyDeleteManki gaanthe khul jayen aur chadariya dhul jaye to jeevan saphal ho jaye!
ReplyDeleteकाम, क्रोध, लोभ, मोह से
ReplyDeleteकभी उबर ना पाया
ओढ़ी तो थी धुली चदरिया
फूहड़, मैली पाया ..
बहुत खूब .. देवेन्द्र जी ... इस लाजवाब रचने में जीवन दर्शन की महक है ...
... bahut khoob !!!
ReplyDeleteगांठ लगाने की जरूरत ही क्या है भैया।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, गाँठ खोल फिर सीधा बन जा।
ReplyDeleteAamin ! sandesatmak post hetu abhaar.....
ReplyDeletebahut badhiya baat bahut hi rochak lahaje me.
ReplyDeleteबहत सुन्दर भजन लिखा है ।
ReplyDeleteलगता है किसी ख़ास के लिए यह आम हुआ है ....
ReplyDeleteसर्फ़ के बजाय किसी नए डिटर्जेंट की शायद अब जरूरत है
बहुत सुंदर रचना.
ReplyDeleteरामराम.
देवेंद्र जी! जग बौराना!!मोह लिया आपने!
ReplyDeleteवाह, बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteघुघूती बासूती
खुद को धोबी बना रे पगले
ReplyDeleteसरफ ज्ञान का घोल ।
मन की गाँठें खोल रे पगले
मन की गाँठें खोल ।।
ये सर्फ़ वाला ज्ञान सही लगा पर शायद ये सर्फ़ की कंपनी कंपनी पर भी निर्भर करता होगा की कहाँ कितना ज्ञान छुपा है हा .... हा
मज़ा आया कएइता पढकर.
ReplyDeleteबहुत खुब जी, आप की कविता तो भजन माफ़िक लगी, धन्यवाद
ReplyDeleteकाम, क्रोध, लोभ, मोह से
ReplyDeleteकभी उबर ना पाया
ओढ़ी तो थी धुली चदरिया
फूहड़, मैली पाया
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
कविता पसंद करने के लिए सभी को धन्यवाद। मेरा नेट खराब है। साइबर में बैठकर कितनी देर ब्ल़ागिंग की जा सकती है भला।
ReplyDeleteमन की गांठे खोल रे पगले, मन की गांठें खोल.
ReplyDeleteबहुत बढिया कविता, बेहतरीन अंदाज. मजा आया. धन्यवाद...
मेरी नई पोस्ट 'भ्रष्टाचार पर सशक्त प्रहार' पर आपके सार्थक विचारों की प्रतिक्षा है...
www.najariya.blogspot.com
waah!
ReplyDeleteजीवन की राह सुगम हो जाये जो चुनरिया इस सर्फ़ से धुल जाए. सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteअहा!
ReplyDeleteक्या बात है...!!!
कम्प्यूटर की बेवफाई के चलते यहाँ पहुँचने में इतनी देर हुई कि सारे टिप्पणीकार धुलाई कर के निकल लिए हैं !
ReplyDeleteकविता के मूल भाव से सहमत !
वाह ! मजा आ गया.मन कर रहा है कि ये कविता जोर-जोर से गाते हुये,ढोल बजाते हुये निकल पडूं सड़क पर.
ReplyDeleteवाह...वाह...वाह...
ReplyDeleteक्या बात कही...
प्रेरणाप्रद प्रभावशाली प्रवाहमयी मन को छूकर मुग्ध करती अतिसुन्दर रचना...
@ खुल्लम खुल्ला बोल रे पगले
ReplyDeleteखुल्लम खुल्ला बोल ।
--- का कह रहे हैं , झेलना पड़ता है इही खातिर ! :) कबीर याद आते हैं - '' सांच कही तो मारन धावे , झूठ कहे पतियाना / साधो जग बौराना '' ! , आखिर खुल्लमखुल्ला बोल ही दिए कबीर , नहीं माना फटफटिया !
@ खुद को धोबी बना रे पगले
सरफ ज्ञान का घोल ।
--- इहाँ भी कबीर याद आये , चदरिया झीनी रे झीनी , ऊ जुलहा थे , हम धोबी बन जाएँ . ऊ कहे थे 'जूं की तुं धर दीनी चदरिया' , हम सब तो ऐसा नहीं कह सकते काहे से कि 'चुनरिया में दाग लग गईल' पर धोबी बन साफ़ सूफ कर लिया करें , तो यही क्या कम है !
देवेन्द्र जी , सुन्दर कविता ! आभार !