9.12.10

मन की गाँठें खोल

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खुल्लम खुल्ला बोल रे पगले
खुल्लम खुल्ला बोल ।
मन की गाँठें खोल रे पगले
मन की गाँठें खोल ।।

मैं अटका श्वेत-स्याम में
दुनियाँ रंग-बिरंगी
कठिन डगर है, साथी वैरी
चाल चलें सतरंजी

गर्जन से क्या घबड़ाना रे
ढोल-ढोल में पोल ।
मन की गाँठें खोल रे पगले
मन की गाँठें खोल ।।

काम, क्रोध, लोभ, मोह से
कभी उबर ना पाया
ओढ़ी तो थी धुली चदरिया
फूहड़, मैली पाया


खुद को धोबी बना रे पगले
सरफ ज्ञान का घोल ।
मन की गाँठें खोल रे पगले
मन की गाँठें खोल ।।

38 comments:

  1. आदरणीय देवेन्द्र पाण्डेय जी
    नमस्कार
    खुद को धोबी बना रे पगले
    सरफ ज्ञान का घोल ।
    xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
    मन की गांठें अगर खुल जाती हैं तो , फिर इंसान खुद को सही मायने में जिन्दगी के करीब पाता है , ज्ञान की तरफ बढ़ पाता है , मन की मैल तभी धुलती है जब हम खुद का निरिक्षण करते रहते हैं .....शुक्रिया

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  2. काम, क्रोध, लोभ, मोह से
    कभी उबर ना पाया
    ओढ़ी तो थी धुली चदरिया
    फूहड़, मैली पाया

    ये कहाँ पहुँच गये देवेन्द्र जी
    बहुत सुन्दर .. वाह

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  3. ग़जब पगले!
    वाह रे पगले!!

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  4. सुन्दर रचना,

    देवेन्द्र जी, इस चदरिया को धो ही लेना चाहिए, वरना एक दिन जब जाने का वक्त आएगा तो सुनने को मिलेगा-

    "अब काहे शरमाये,
    देख मैले चदरिया,
    धोई नहीं पहले,
    बीती तेरी पूरी उमरिया.

    वैसे एक बात है, जब पता चल जाता है कि चदरिया मैली है, आधी तो उसी वक्त ही धुल जाती है.....

    आपका धन्यवाद

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  5. खुद को धोबी बना रे पगले
    सरफ ज्ञान का घोल ।
    इस को धो ही लेना चाहिए,बहुत सुन्दर!

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  6. इस पगलई के क्या कहने :)

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  7. वाह वा वाह वा !

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  8. देवेन्द्र जी,

    वाह.....क्या बात है.....और सादा बोली में बसी इस रचना में गूढ़ ज्ञान की बातें बता दी है आपने.....अपने अलग अंदाज़ में......बहुत सुन्दर

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  9. खुद को धोबी बना रे पगले
    सरफ ज्ञान का घोल ।
    मन की गाँठें खोल रे पगले
    मन की गाँठें खोल ।।

    बेहतरीन भाव !

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  10. खुद को धोबी बना रे पगले
    सरफ ज्ञान का घोल ।
    मन की गाँठें खोल रे पगले
    मन की गाँठें खोल ।। ......vaah ...majedaar ...sundar kavita.

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  11. काम, क्रोध, लोभ, मोह से
    कभी उबर ना पाया
    ओढ़ी तो थी धुली चदरिया
    फूहड़, मैली पाया

    क्या बात है देवेन्द्र जी ,
    अगर हम इन में से किसी एक से भी उबर सकें तो जीवन धन्य हो जाए मनुष्य तो इनके साथ साथ और भी दोषों का भागीदार बन जाता है
    बहुत सुंदर कविता ,बधाई

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  12. खुद को धोबी बना रे पगले
    सरफ ज्ञान का घोल ।

    बहुत सार्थक पंक्तियाँ ....

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  13. सरफ ज्ञान का घोल । >>> बहुत सुन्दर। विशुद्ध ब्लॉगजगतीय कविता। हम जैसे कविता-निरक्षर को भी पसन्द आयी!

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  14. Manki gaanthe khul jayen aur chadariya dhul jaye to jeevan saphal ho jaye!

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  15. काम, क्रोध, लोभ, मोह से
    कभी उबर ना पाया
    ओढ़ी तो थी धुली चदरिया
    फूहड़, मैली पाया ..


    बहुत खूब .. देवेन्द्र जी ... इस लाजवाब रचने में जीवन दर्शन की महक है ...

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  16. गांठ लगाने की जरूरत ही क्‍या है भैया।

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  17. बहुत सुन्दर, गाँठ खोल फिर सीधा बन जा।

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  18. bahut badhiya baat bahut hi rochak lahaje me.

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  19. बहत सुन्दर भजन लिखा है ।

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  20. लगता है किसी ख़ास के लिए यह आम हुआ है ....
    सर्फ़ के बजाय किसी नए डिटर्जेंट की शायद अब जरूरत है

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  21. बहुत सुंदर रचना.

    रामराम.

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  22. देवेंद्र जी! जग बौराना!!मोह लिया आपने!

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  23. वाह, बहुत बढ़िया.
    घुघूती बासूती

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  24. खुद को धोबी बना रे पगले
    सरफ ज्ञान का घोल ।
    मन की गाँठें खोल रे पगले
    मन की गाँठें खोल ।।
    ये सर्फ़ वाला ज्ञान सही लगा पर शायद ये सर्फ़ की कंपनी कंपनी पर भी निर्भर करता होगा की कहाँ कितना ज्ञान छुपा है हा .... हा

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  25. मज़ा आया कएइता पढकर.

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  26. बहुत खुब जी, आप की कविता तो भजन माफ़िक लगी, धन्यवाद

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  27. काम, क्रोध, लोभ, मोह से
    कभी उबर ना पाया
    ओढ़ी तो थी धुली चदरिया
    फूहड़, मैली पाया
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।

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  28. कविता पसंद करने के लिए सभी को धन्यवाद। मेरा नेट खराब है। साइबर में बैठकर कितनी देर ब्ल़ागिंग की जा सकती है भला।

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  29. मन की गांठे खोल रे पगले, मन की गांठें खोल.
    बहुत बढिया कविता, बेहतरीन अंदाज. मजा आया. धन्यवाद...
    मेरी नई पोस्ट 'भ्रष्टाचार पर सशक्त प्रहार' पर आपके सार्थक विचारों की प्रतिक्षा है...
    www.najariya.blogspot.com

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  30. जीवन की राह सुगम हो जाये जो चुनरिया इस सर्फ़ से धुल जाए. सुंदर प्रस्तुति.

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  31. अहा!
    क्या बात है...!!!

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  32. कम्प्यूटर की बेवफाई के चलते यहाँ पहुँचने में इतनी देर हुई कि सारे टिप्पणीकार धुलाई कर के निकल लिए हैं !


    कविता के मूल भाव से सहमत !

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  33. वाह ! मजा आ गया.मन कर रहा है कि ये कविता जोर-जोर से गाते हुये,ढोल बजाते हुये निकल पडूं सड़क पर.

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  34. वाह...वाह...वाह...

    क्या बात कही...

    प्रेरणाप्रद प्रभावशाली प्रवाहमयी मन को छूकर मुग्ध करती अतिसुन्दर रचना...

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  35. @ खुल्लम खुल्ला बोल रे पगले
    खुल्लम खुल्ला बोल ।
    --- का कह रहे हैं , झेलना पड़ता है इही खातिर ! :) कबीर याद आते हैं - '' सांच कही तो मारन धावे , झूठ कहे पतियाना / साधो जग बौराना '' ! , आखिर खुल्लमखुल्ला बोल ही दिए कबीर , नहीं माना फटफटिया !

    @ खुद को धोबी बना रे पगले
    सरफ ज्ञान का घोल ।
    --- इहाँ भी कबीर याद आये , चदरिया झीनी रे झीनी , ऊ जुलहा थे , हम धोबी बन जाएँ . ऊ कहे थे 'जूं की तुं धर दीनी चदरिया' , हम सब तो ऐसा नहीं कह सकते काहे से कि 'चुनरिया में दाग लग गईल' पर धोबी बन साफ़ सूफ कर लिया करें , तो यही क्या कम है !

    देवेन्द्र जी , सुन्दर कविता ! आभार !

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