3.11.25

अध्यक्ष

क कविता की पुस्तक का लोकार्पण होना था। लोकार्पण का भार प्रकाशक को निभाना था। प्रकाशक ने योजना बनाई, आफत मेरे सर आई! शाम को प्रकाशक महोदय का फोन आया, "बनारस में हैं?" बहुत दिनों बाद हमको फोन करने वाले अक्सर पहला प्रश्न यही करते हैं। जानते हैं कि सेवा निवृत्त होने के बाद यह आदमी घूमता ही रहता है। मैने कहा, "हाँ, अभी तो हैं, नींद लग गई तो पता नहीं कहाँ चले जांय।" प्रकाशक घबड़ा गए, "ट्रेन में हैं? कब आएंगे?" मैने कहा, "नहीं भाई, घर पर हैं, सोने जा रहे हैं। नींद में स्वप्न भी आ सकते हैं, स्वप्न में हम कहीं भी जा सकते हैं। इसीलिए कहा नींद लग गई तो पता नहीं कहाँ चले जांय।"

प्रकाशक हँसने लगे, "मजाक नहीं, ध्यान से सुनिए, कल एक पुस्तक का लोकार्पण है, आपको अध्यक्षता करनी है। गाड़ी आपको ले जाएगी और ले आएगी, चिंता मत कीजिए।"

मैने कहा, "अरे! सभी वरिष्ठ साहित्यकार अत्यधिक व्यस्त हैं क्या? मुझसे बहुत वरिष्ठ साहित्यकार उपलब्ध हैं बनारस में, आपके फोन पर आ भी जाएंगे, मुझे कहाँ फंसाते हैं? कल रविवार है, बच्चों की छुट्टी है, बच्चों का बाहर घूमने का प्रोग्राम है, मुझे बक्श दीजिए।" 


प्रकाशक महोदय भी जिद पर अड़े रहे। कहने लगे, "हमने किसी और को फोन नहीं किया है, हम लोगों के लिए आप ही वरिष्ठ हैं। घर में बात करके कन्फर्म कीजिए। आपको आना है।" 


अब प्रकाशक मेरे मित्र हैं। उनके पास मेरे व्यंग्य संग्रह की पाण्डुलिपि धरी है। मैं अपनी पुस्तक प्रकाशित कराने की जल्दी में हूँ, नाराज करना भी ठीक नहीं। यही सब सोच रहा था कि फिर उनका फोन आ गया, "मैने आपका नाम फाइनल करके प्रेस में भेज दिया, आ रहे हैं न?" मुझे दबी जुबान से कहना पड़ा, "ठीक है।"


अब मेरी नींद उड़ गई! सोचने लगा, "कहाँ फँस गए! अध्यक्ष से निरीह प्राणी कौन होता है भला! किसी भी आयोजन में संचालक द्वारा सबसे पहले बुलाकर, सबके सामने, आसन के बीच में बिठा दिया जाता है। बिठाने के बाद संचालक की ऑंखें ऐसे चमकती हैं मानो सबसे कह रहा हो, "देख लो! आज का उल्लू यही है! माँ सरस्वती की तस्वीर के आगे दीप जलाना, माला पहनाना और पुष्प अर्पित करना तो अच्छा लगता है लेकिन उसके बाद बैठकर दो घण्टे के आयोजन को 5 घण्टे के बाद भी खतम न होते देखकर मन ही मन खूब कलपता है। बस दस मिनट, दस मिनट कहते घंटों बीत जाते हैं और वह हाथों को मलने के सिवा कुछ नहीं कर सकता। अब किससे कहे कि दस मिनट के लिए तुम अध्यक्ष बन जाओ। आयोजक कहेगा, "अच्छा मजाक है, पूरे कार्यक्रम की अध्यक्षता आपने की अब दस मिनट के लिए दूसरा अध्यक्ष कहाँ से लांय? कौन तैयार होगा? "


मैं सोचने लगा कि आखिर मुझमे क्या योग्यता है कि मुझे अध्यक्ष बनाया गया? मुझसे वरिष्ठ साहित्यकार और कई पुस्तकों के लेखक बनारस में सहज उपलब्ध हैं। सहज इसलिए की उनकी संख्या बहुत है। कोई न कोई तो मिल ही जाता। प्रखर वक्ता भी मैं नहीं हूँ। बैठे-बैठे पुस्तक पलट कर एक घण्टे भाषण दे सकूँ। इतना शाहखर्च भी नहीं हूँ कि संस्था के लिए 100 रुपिए की रसीद काट सकूँ। ऐसी कोई ख्याति भी नहीं कि मेरे आने की खबर सुनकर श्रोता बढ़ जाएंगे। आखिर मुझे अध्यक्ष बनाया क्यों गया? यही सब सोंचते-सोंचते कब आँख लग गई पता ही नहीं चला। 


सुबह प्रातः भ्रमण के समय पार्क के अपने उल्लुओं को गरदन घुमाए अकड़ कर बैठे देखा तो अचानक ही मुँह से निकल गया, "इतना अकड़ क्यों दिखा रहे हो? कहीं के अध्यक्ष बना दिए गए हो?" उल्लुओं ने तो कुछ नहीं कहा लेकिन मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर मिल गया। मुझे पता चल गया कि मुझे अध्यक्ष क्यों बनाया गया है? दरअसल जो मुझमे अवगुण हैं, वही मेरी योग्यता है। 

पुस्तक के लोकार्पण समारोह में जो बहुत ज्ञानी होता है उसे प्रखर वक्ता बनाया जाता है। उसे पुस्तक दो दिन पहले इस अनुरोध के साथ उपलब्ध करा दी जाती है कि आपको इस पुस्तक के लोकार्पण में बोलना है। या वह इतना ज्ञानी होता है कि वहीं बैठकर, पुस्तक के कुछ पन्ने पलट कर तब तक माइक पर बोलता रहता है, जब तक संचालक इशारे से बैठने का अनुरोध न करे। 


मुख्य अतिथि या वरिष्ठ अतिथि वह बन सकता है जिसका समारोह से कोई स्वार्थ हो या वह संस्था का आर्थिक भला चाहता हो। वह इतना आदरणीय भी हो सकता है जिसको देखकर ही मन में आदर का भाव जगे और चरण वंदन का मन करे। जिसके आने की खबर सुनकर समारोह में चार चाँद लग जाय।


पूरे समारोह में उल्लू की तरह अकड़ के बैठने के सिवा अध्यक्ष का क्या काम? अंत तक सबको सुने और सौभाग्य से जब कार्यक्रम का वास्तविक अंत आए तो उसका नाम बुलाया जाय। सभी नवोदित या वरिष्ठ कवियों को ध्यान से सुनने के बाद सभी की प्रशंसा करते हुए बधाई देना और इतनी शुभकामनाएँ देना कि कवि बैठे-बैठे उड़कर चाँद में पहुँच जाय। आने वाले सभी श्रोताओं को धन्यवाद देते हुए उनके धैर्य की भी प्रशंसा करना कि जो कार्यक्रम छोड़ कर बीच में चले गए उनका बचाव करते हुए कहना कि उनको किसी आवश्यक कार्य से जाना पड़ा लेकिन आप अंत तक डटे रहे इसकी जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है। इससे ज्यादा बोले तो हो सकता है श्रोताओं में वही शेष बचे जिसकी पुस्तक का लोकार्पण होना है। अध्यक्ष को अधिक बोलने वाला नहीं होना चाहिए, सबसे अच्छा अध्यक्ष वही होता है जिसे धन्यवाद के सिवा कुछ बोलने आता ही न हो। उल्लुओं को देखकर मुझे पक्का विश्वास हो गया कि इसी गुण को देखकर मुझे अध्यक्ष बनाया गया है। ये उल्लू सुनते सबकी हैं,पर कभी बोलते नहीं हैं।

.....@देवेन्द्र पाण्डेय।

जीत के लिए...