28.9.23

दोस्ती

एक जिस्म में मजदूर और कवि दोनो साथ-साथ रहते। काम से लौटकर मजदूर घर आता, रोटी खाते-खाते उसे नींद आने लगती। कवि, मजदूर के बल पर दुनियाँ देखा करता। मजदूर की दर्द भरी दासतां सुनकर, नई कहानियाँ लिखा करता, घर आते ही दोनो साथ खाने पर बैठ जाते। इधर मजदूर का पेट भरता, उधर कवि की कविता की भूख जाग जाती! मजदूर पेट भर खा कर चैन की नींद सोना चाहता लेकिन कविता की भूख का मारा कवि उल्लू की तरह जाग कर मजदूर से अपनी नई कविता सुनने और आज के काम का दर्द बयान करने को कहता।


अमां यार! अभी तो बारह भी नहीं बजा, सुन लो! बड़ी अच्छी कविता है। मजदूर का बस चलता तो कवि की गरदन दबा देता लेकिन बिचारा क्या करता? अपनी गरदन कैसे दबाता? आखिर दोनो एक ही जिस्म में रहते थे।

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13 comments:

  1. कितनी सहजता से मन और.कर्म को परिभाषित किया है आपने। बहुत अच्छी लघुकथा सर।
    सादर
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ सितंबर २०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. वाह, अन्तर्द्वन्द को बखूबी उकेरा है बधाई

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  3. मजदूर और कवि का एक ही जिस्म
    बहुत ही लाजवाब..
    वाह!!!

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  4. क्या बात है, रोचक और सरस कथानक ! कवि यदि मजदूर की पीड़ा समझे तो ही उसकी रचनात्मकता की सार्थकता है और यदि मजदूर कवि हो तो उससे बेहतर भागों का सृजन कौन कर सकता है!

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  5. सुंदर अभिव्यक्ति

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