4.7.10
एक घर वह था
एक दिन वह था
जब मैं
अपने ही घर की छत पर
छोटे-छोटे गढ्ढे बना दिया करता था
हम उम्र साथियों के साथ कंचे खेलने के लिए !
एक दिन यह है
जब मैं
अपने घर की दीवारों में
कील ठोंकते डरता हूँ
एक दिन वह था
जब मैं
बरसात में छत टपकने का मजा लेता था
एक दिन यह है
जब मैं
दीवारों में हलकी सी सीलन देख
चढ़ जाता हूँ छत पर !
एक घर वह था
जो मुझसे डरता रहता था
एक घर यह है
जिससे मैं डरता रहता हूँ
एक घर वह था
जो मुझे संभालता था
एक घर यह है
जिसे मुझे संभालना पड़ता है
एक घर वह था
जहाँ मैं रहता था
एक घर यह है
जो मुझमें रहता है |
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हम्म...वर्तमान और अतीत को पिरोनेवाली एक सुंदर कविता।
ReplyDeleteबहूत सुंदर भाव हैं.
बहुत बढिया।
ReplyDeleteएक घर वह था
ReplyDeleteजहाँ मैं रहता था
एक घर यह है
जो मुझमें रहता है |
वर्तमान मे ही पता चलता है कि बचपन का अतीत कितना सुन्दर था।और फिर जब आत्मा बेचैन होती है तब आदमी ऐसे ही सोचता है। बहुत अच्छी कविता है। बधाई
जी हाँ , बड़े क्या हुए , जिम्मेदारियां समझ में आ गयी ।
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति।
बहुत उत्तम रचना...
ReplyDeleteबचपन कि निष् फ़िक्र ज़िंदगी का अपना मज़ा था..और अब जिम्मेदारियों के बोझ से उन सब बैटन का आनन्द कहाँ..सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत ही फलसफाना कविता!
ReplyDeleteघर घर न रहा प्यार प्यार न रहा मुझे अब किसी पर ऐतबार न रहा .....
ReplyDeleteहां हा ..होता है होता है ...बढियां भाव !
कविता पढ़कर घर को देखने का एक और नजरिया सामने आया। अब आपके घर आया हूं तो दो सुझाव दूंगा। माने न मानें आपका घर है।
ReplyDeleteपहली बात तो सिलन नहीं,सीलन या सीड़न आती है। संभव है यह टायपिंग की गलती हो। ठीक कर लें।
दूसरी बात आपकी इस सकारात्मक कविता में घर से डरने या घर को डराने वाला जो पद है वह समझ तो आया पर यहां जमता नहीं है। उसे घर के बाहर ही कहीं रहने दें तो बेहतर है।
aapkee ye kavita sabko padker sunaaee sabhee ko pasand aaee pooch rahe the ye kulee wale hai?.........
ReplyDeleteवाह ………………गज़ब की प्रस्तुति है।
ReplyDeleteकल के चर्चा मंच पर आपकी पोस्ट होगी।
जी हाँ यही तो फर्क है पापा कहने और पापा कहलवाने में.
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना...बिलकुल सही जमा - घटा का हिसाब लगा है.
राजेश जी,
ReplyDeleteघर का सीलन ठीक कर दिया ...अच्छा लगे या बुरा सत्य तो यही है कि बच्चों को थोड़ा भी कष्ट हो तो पूरा घर डरने लगता है ....घर को थोड़ा भी कष्ट हो तो घर का मुखिया डरने लगता है. इसी भाव को रख कर लिखी हैं ये पंक्तियाँ . मेरा कंप्यूटर ख़राब था फार्मेटिंग में गूगल का हिंदी टूल बार गायब हो गया है.
यूँ ही त्रुटियाँ बताते रहें ...समायाभाव से सदसंगति हो नहीं पाती अब तो जो भी सीखना है इसी ब्लागजगत से ही सीखना है.
...आभार.
छत्र छाया में रहना किता सुखकर है और छत्र छाया बनना कितना दुष्कर काम है |पर जिम्मेदारिय सुरक्षित आशियाना बन ही देती है |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता |
एक घर वह था
ReplyDeleteजो मुझे संभालता था
एक घर यह है
जिसे मुझे संभालना पड़ता है
वाह जी बहुत ही सुंदर कविता, सब समय समय की बात है
देवेन्द्र भाई ,
ReplyDeleteकहां से आते हैं ऐसे सुघड विचार आपको ! बेहतरीन !
वह घर जेबखर्च देता था
ReplyDeleteयह घर महीने दर महीने खर्च निकाल लेता है -
कभी किश्त के बहाने
कभी राशन के बहाने
लेकिन घर होता तो घर ही है - अद्वितीय ज़गह।
घर की एक नई परिभाषा दी आपने,देखने का एक नया आयाम, घर सी जुड़ी सम्वेदनाओं को एक नया अर्थ. एक बेहतरीनअभिव्यक्ति...देवेंद्र जी, मेरी बधाई!!
ReplyDeletebahut hi sundar kavita
ReplyDelete-
-
is ghar aur us ghar ka fark hi jeevan ke maayne ko samjhaata hai.
-
-
aabhaar
shubh kamnayen
'एक घर वह था
ReplyDeleteजहाँ मैं रहता था
एक घर यह है
जो मुझमें रहता है |'
- अत्यंत रोचक. साधुवाद.
bilkul sateek rachna..sahi likha aapne..
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी ...कितनी खूबसूरती से मन के भाव को पिरोया आपने...एक सच्चाई कहती है जब हम ज़िम्मेदार हो जाते है तो घर के प्रति हमारा रवैया बदल जाता है...अंतिम कड़ी तो बेहतरीन..बधाई चाचा जी
ReplyDeleteकविता समय चक्र के तेज़ घूमते पहिए का चित्रण है। कविता की पंक्तियां बेहद सारगर्भित हैं।
ReplyDeleteएक वो घेर था जो पिता का घर था
ReplyDeleteएक यह घेर है जो मेरा है.
अच्छी पेशकश. उस समय जिमेदारी का एहसान ना था , जो आज है...
मैं भी अक्सर यही सोचता हूँ कि हम बड़े होने के बाद कितने बदल जाते है , कहाँ खो जाती है वह निश्चिंतता ?
ReplyDeleteवो भी एक घर था
ReplyDeleteये भी एक घर है ,
वो घर याद आता है मुझे ,
ये घर याद करेगा मुझे .....
परिस्थितियों के बदलाव को अच्छे से रखा है आपने ...
ReplyDeleteसमय के फर्क-बदलाव को, समय के fer को दर्शाती आपकी ये कविता मन को छू गयी हैं.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया और बेहतरीन कविता के लिए बेहतरीन कवि को हार्दिक बधाई.
धन्यवाद.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
क्योंकि एक दिन मैं अविवाहित था ।
ReplyDeleteक्या बात है बदलते वक्त के साथ बदलता दृष्टिकोण ..बहुत सुन्दर .
ReplyDeleteक्या कहने। वाह। बेहतरीन। शानदार। और क्या कहूं। एक ये घर है जो मुझमें रहता है। वाह। वाह। वाह। मेरी बधाई स्वीकार करें।
ReplyDeleteआपका कबिता का भाव महसूस करके , गुरुजी (गुलज़ार साहब ) का दू चार ठो लाईन याद आ गया...
ReplyDeleteइच्छाओं के भीगे चाबुक, चुपके चुपके सहता हूँ
औरों के घर यूँ लगता है मोज़े पहने रहता हूँ
ख़ाली पाँव कब आँगन में बैठूँगा, कब घर होगा.
देवेंद्र जी,बहुत बहुत धन्यवाद!!
bachpan ki pyari jindagi ko kaise apne itne pyare dhang se prastut kiya hai......:)
ReplyDeleteprashansniya.......:)
jabardast feeling.... bahut andar tak pahunch gayee ye panktiyaan....
ReplyDeleteसुन्दर अहसास..
ReplyDeleteYou have a very good blog specially the header scene image & the main thing a lot of interesting and beautiful! hope u go for this website to increase visitor.
ReplyDeleteएक घर वह था
ReplyDeleteजहाँ मैं रहता था
एक घर यह है
जो मुझमें रहता है |
यूं तो इस रचना की हर पंक्ति अपने आप में बहुत कुछ कह रही है, गहरे भावों को बहुत ही सुन्दरता से आपने प्रस्तुत किया है।
अति-सुन्दर रचना.जीवनमे आदमीमे कितने परिवर्तन होते हैं,बूढ़े हो जाने पर न जाने आदमी और घर के बीच कैसा रिश्ता बने !
ReplyDeletebehatareen rachna hai... jeevan ke do padavon ke madhya antar ka bahut hi sahaj dhang se chitran kiya hai.. aapka blog achchha laga...
ReplyDeletekabhi yahan bhi aayen... www.anshuja.blogspot.com
regards---
ANSHUJA CHARVI PANDEY
एक दिन यह है
ReplyDeleteजब मैं
दीवारों में हलकी सी सीलन देख
चढ़ जाता हूँ छत पर !
bahut hi achchi abhivayakti........
हुज़ूर किन एहसासों से गुज़र कर यह कविता बनी होगी समझ सकता हूँ....घर को लेकर जिस भावुकता के साथ आपने लिखा है जितनी तारीफ़ की जाए कम है.......!
ReplyDeleteआपने तो घर-घर की कहानी कह डाली..बेचैन जी!... पहले घर हमारे लिए हुआ करता था; अब हम घर के लिए रह गए है!... सटिक आलेख, धन्यवाद!
ReplyDeleteअब जाकर घर की परिभाषा और कीमत पता चली न
ReplyDeleteयही एक टीस है जो हर पांचवे इंसान को सालती है
Samkaleen trasdiyon ka sundar ankan.
ReplyDeleteकवि के संवदेना में घुल के घर एक रूपक बन जाता हैं.
ReplyDeleteकवि के संवदेना में घुल के घर एक रूपक बन जाता हैं.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया अनुभव वर्तमान और भूत के , आपको शुभकामनायें
ReplyDeleteजब आप सुन्दर कवितायें पोस्ट कर रहे थे तो हम गद्य-समर में जूझ रहे थे ..
ReplyDeleteकविता में 'व्यू-प्वाइंट' अच्छा है .. बचपन में घर का हम लुत्फ़ जैसा लेते हैं जबकि बाद में औरों के लुत्फ़ के लिए घर की 'केयरिंग' करते रहते हैं .. सुन्दर कविता है ! आभार !
Badlaav Prakriti ka niyam hai..Change is the only thing which is constant.
ReplyDeleteSundar rachna.
बहुत ही सही बात कही है। अब घर भी सजावट का सामान से हो गए हैं। न अब उनमें उतने सारे कोने , छिपने खेलने की जगहें होती हैं, वे हर समय हमें अपने महत्व के तले दबाए रहते हैं।
ReplyDeleteकृपया अपने ब्लॉग के हैडर के चितचर को छोटा कर लीजिए। जितना बड़ा होगा उतना ही अधिक समय ब्लॉग खुलने में लगेगा।
घुघूती बासूती
एक घर वह था
ReplyDeleteजहाँ मैं रहता था
एक घर यह है
जो मुझमें रहता है |
घरों में हम नहीं हममें घर रहता है
एक घर वह था
ReplyDeleteजहाँ मैं रहता था
एक घर यह है
जो मुझमें रहता है |
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सुन्दर रचना!
अभिषेक कुशवाहा ने इ-मेल से यह प्रतिक्रिया भेजी है ...
ReplyDelete"फिक्र -ए-दुनिया में सर खपाता हूँ ....मै कहा और ये वबाल कहा ......"
बेहतरीन रचना ... बचपन कि बातें अलग होती है ... उस समय न तो ज़िम्मेदारी होती है न ही किसी बात का डर ...
ReplyDeleteham bade hote hain aur bachpan ki wo masoomiyat aur nishchalta furr...kaash! inhe sahej paate
ReplyDeleteबहुत सुंदर तरीके से घर का वर्णन किया है....!!
ReplyDeleteअब देवेन्द्र जी इत्ता बड़ा घर बनायेंगे तो यही होगा न .....
ReplyDeleteवैसे इस घर की तारीफ सुन हमें तो देखने की लालसा हो गयी .....!!