झिंगुरों से पूछते, खेत के मेंढक
बिजली कड़की
बादल गरजे
बरसात हुयी
हमने देखा
तुमने देखा
सबने देखा
मगर जो दिखना चाहिए
वही नहीं दिखता !
यार !
हमें कहीं,
वर्षा का जल ही नहीं दिखता !
एक झिंगुर
अपनी समझदारी दिखाते हुए बोला-
इसमें अचरज की क्या बात है !
कुछ तो
बरगदी वृक्ष पी गए होंगे
कुछ
सापों के बिलों में घुस गया होगा
मैंने
दो पायों को कहते सुना है
सरकारी अनुदान
चकाचक बरसता है
फटाफट सूख जाता है !
हो न हो
वर्षा का जल भी
सरकारी अनुदान हो गया होगा..!
( चित्र गूगल से साभार )
excellent analogy!
ReplyDeleteवर्षा का जल भी
ReplyDeleteसरकारी अनुदान हो गया होगा..!
वाह, क्या तुलना की है।
बहुत अच्छी कविता।
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता....
ReplyDeleteबहुत सुंदर पंक्तियाँ हैं.....
सच्ची ऊंट के मुंह में जीरा माफिक -मगर बनारस में तो वो भी नहीं -हाय कैसा सूरज तप रहा है !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया कटाक्ष है देवेन्द्र जी
ReplyDeleteक्या तुलना है वाह !
प्रकृति को माध्यम बना कर आप वो कह जाते हैं जो दूसरे लोग सोच भी नहीं पाते
बधाई
हो न हो
ReplyDeleteवर्षा का जल भी
सरकारी अनुदान हो गया होगा..!
Kya badhiya kataksh hai!
पानी कहाँ से मिले, बादलों को ही कोई ले उड़ता है!
ReplyDeleteसच्ची कल्पना!!
आपकी बैचेनगी काफी तीखे व्यंग करती है. बरगदी वृक्ष और साँप के बिल के माध्यम से जो आपने व्यंजक अर्थ दिए हैं गजब हैं. 'सरकारी अनुदान' नाम की यह रचना भविष्य में हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा गया तो उसमें इस रचना का उल्लेख किया जाना अवश्य चाहिए. और यदि मैंने लिखा तो अवश्य इस रचना का उल्लेख करूँगा.
ReplyDeleteएक बार फिर,इस दमदार व्यंग के लिए बधाई.
धारदार व्यंग ! तंत्र पर जबरदस्त प्रहार ! गहरी चोट करते हुए शब्द !
ReplyDeleteखूब देवेन्द्र भाई बहुत खूब !
मैंने
ReplyDeleteदो पायों को कहते सुना है....
बढ़िया कटाक्ष.....सटीक
आपकी कविता पढ़ने के बाद तो लगता है कि वृक्ष, कीट, सरीसृप कोई भी नहीं रहा उस तंत्र से जिसके बारे में किसी ने कहा था (शायद जानकी वल्लभ शास्त्री ने) कि
ReplyDeleteऊपर ऊपर पी जाते हैं, जो पीने वाले हैं
कहते ऐसे ही जीते हैं, जो जीने वाले हैं.
देवेंद्र जी, धन्यवाद!
शानदार ,सटीक व्यंग्य ।
ReplyDeleteबहुत बढिया व्यग्य!... सरकारी काम ऐसे ही होते है!
ReplyDeleteआज त अपना बात कहने के लिए दुष्यंत कुमार जी को कोट करने चाहेंगेः
ReplyDeleteयहाँ तक आते आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
हमें मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा.
बहुत सुंदर जी बिलकुल सही कहा आप ने
ReplyDeleteसरकारी अनुदान
ReplyDeleteचकाचक बरसता है
फटाफट सूख जाता है !
हो न हो
वर्षा का जल भी
सरकारी अनुदान हो गया होगा..!
....... तंत्र पर सटीक कटाक्ष...
हो न हो
ReplyDeleteवर्षा का जल भी
सरकारी अनुदान हो गया होगा..!
करारा व्यंग है ... आपका जवाब नही इस कला में ...
वाह आज समझे कि आखिर ये दोनों कहां चले जाते हैं ........बहुत ही बढिया समझाया झिंगुर और बेंग ..दोनों ने मिल कर
ReplyDeleteaajkal chhoti kahaniyan likhana chhod diye kya ?
ReplyDeleteबढ़िया व्यंग ।
ReplyDeleteलेकिन काश कि सारा बरसाती पानी सरकारी अनुदान की तरह लुप्त हो जाता ।
फिर इतनी बाढ़ तो न आती ।
मैंने
ReplyDeleteदो पायों को कहते सुना है
सरकारी अनुदान
चकाचक बरसता है
फटाफट सूख जाता है !
हो न हो
वर्षा का जल भी
सरकारी अनुदान हो गया होगा..!
वाह जी वाह ...
हो न हो
ReplyDeleteवर्षा का जल भी
सरकारी अनुदान हो गया होगा..!
वा....वाह .....क्या बात है ......
क्या सोच है ......आपकी नहीं .......झिगुरों और मेढकों की .....
लगता है खुली खिड़कियाँ बंद करनी पडेंगी .......सारी की सारी हवा उधर ही बह जाती है .......!!
बहुत अच्छा और करारा व्यंग्य किया हैं आपने.
ReplyDeleteइस व्यंग्य से आपने कटु-सत्य भी उजागर किया हैं.
बहुत बढ़िया.
धन्यवाद.
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"हो न हो
ReplyDeleteवर्षा का जल भी
सरकारी अनुदान हो गया होगा..!"
करारा व्यंग,गजब की सोच, बेहतरीन अभिव्यक्ति.
भाई देवेन्द्र जी आपकी कविता में जो लोगों को देखना चाहिए था वह सचमुच नहीं दिखा मुझे ऐसा लगता है। मतलब-मगर- नहीं दिखा। अरे भैया ये मगरमच्छ ही तो असली अनुदान डकार जाते हैं सो वर्षा का जल भी डकार गए होंगे।
ReplyDeleteसरकारी अनुदान और वर्षा, दोनों ही जिनके लिये ज्यादा जरूरी है बस उन तक नहीं पहुंचते। जहां जरूरत नहीं है वहां जरूर और जरूरत से ज्यादा पहुंचते हैं।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती से तुलना की है।
बरगदी वृक्ष और साँपों के बिल । सरल शब्दों में गहरी बात - श्रेष्ठ कविता की पहचान है। कहना नहीं होगा कि यह कविता एकदम खरी है।
ReplyDeleteएक और तरह के बिल होते हैं जो विधायिका में प्रस्तुत किए जाते हैं। यकीन मानिए अनुदान को साँपों के बिल में ठेलने की प्रस्तावना इन्हीं बिलों में लिखी होती है।
वर्षा का जल है या सरकारी अनुदान ...
ReplyDeleteजबरदस्त कटाक्ष ...!
वाह देवेन्द्र जी....ये भी बेहतरीन...सुंदर भाव ..रचना के लिए बधाई हो...
ReplyDeleteवर्षा का जल भी
ReplyDeleteसरकारी अनुदान हो गया होगा..!
क्या कटाक्ष है
वाह
हो न हो
ReplyDeleteवर्षा का जल भी
सरकारी अनुदान हो गया होगा..!
जी हाँ सरकारी अनुदान का भी यही हाल है या यूँ कहें कि वर्षा के जल का हाल सरकारी अनुदान जैसा है.
सामयिक और सुन्दर रचना
सरकारी अनुदान
ReplyDeleteचकाचक बरसता है
फटाफट सूख जाता है !
..ha..ha..ha. teekha vyangya.
वाह! क्या बात है! लाजवाब प्रस्तुती!
ReplyDeleteअच्छा कटाक्ष.
ReplyDeleteकविता आपकी ही एक सूखे से संबंधित खूबसूरत कविता की याद दिलाती है..हमेशा की तरह कविता मे लोकगीत सी सरलता और नुक्कड़ नाटकों सी मारकता है...नैसर्गिक प्रतीकों के बहाने व्यवस्था पर व्यंग्य वैसे भी आपकी विशेषता है..जिस जंगल मे हम रहते हैं..वहाँ बरगदी वृक्षों और साँप के बिलों की भरमार है..सरकारी अनुदान की बारिश इस वृक्षों को हरा और बिलों को आबाद रखती है...भ्रष्टाचार की जमीन सारी बारिशों को कितनी जल्दी सोख जाती है..पता भी नही लगता...कविता अपने उद्देश्य मे पूर्णतया सफ़ल है...
ReplyDeleteबहुत ही सटीक कटाक्ष. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
Jis baat ko kehne me kai page rangne hote use kitni asani se kah diya.badhai.
ReplyDeleteलाज़वाब...ऐसे ही होते है सरकारी अनुदान...सटीक प्रस्तुति...रचना अच्छी लगी..प्रणाम देवेन्द्र जी
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आप ने.............
ReplyDeleteबहुत अच्छा व्यंग्य किया हैं आपने.....
ओह !!! क्या बात कही.....लाजवाब....
ReplyDeleteएकदम सटीक तुलना की है आपने....
लाजवाब रचना....वाह !!!
आपकी सादगी की तो मैं फैन हूँ...
ReplyDeleteसरकारी अनुदान
चकाचक बरसता है
फटाफट सूख जाता है !
हो न हो
वर्षा का जल भी
सरकारी अनुदान हो गया होगा..!
क्या व्यंग्य है !!!! लाजवाब !
इधर बहुत दिनों बाद आ पायी आपके ब्लॉग पर. आज से अनुसरण कर लेती हूँ फिर कोई पोस्ट नहीं छूटेगी
bahut achchi baat .
ReplyDeleteअभी अभी सावन की बरसात में भीग कर आया हूँ और यह कविता पढ़ रहा हूँ ..पारम्परिक कविता से हटकर अनूठे व्यंग्य के साथ बहुत अच्छी लगी यह कविता .. इस तरह के सामाजिक सरोकार आज की कविता की मांग है ।
ReplyDeleteवाह! चकाचक कविता।
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