धकधक पुर से व्यस्त चौराहा होते हुए
शहर तक जाने वाली
अभागी सड़क
तू ही बता
तू कहाँ से आई है ?
मैं कोई सरकस का बाजीगर तो नहीं
जो मौत के कुएँ में जाकर
मोटर साइकिल के करतब दिखाकर
हँसता हुआ बाहर चला आऊँ...!
पर्वतारोही या खन्दकावरोही भी नहीं
जो चढ़ने - उतरने, दौड़ने-भागने का आदी हो
सामान्य नागरिक हूँ
सीधी-सादी सडक पर ही चलना जानता हूँ
तुम्हारे जख्मों को ठीक नहीं कर सकता
तुम्हारी मरहम पट्टी के लिए
तुम्हारे आशिक की तरह
सड़क जाम कराने के आरोप में
जेल नहीं जा सकता
तो क्या यहाँ बैठकर
दो बूँद आँसू भी नहीं बहा सकता...!
ऐ अभागी सड़क...!
तेरी स्थिति बड़ी दुखदायी है
तू ही बता तू कहाँ से आई है...?
दिल्ली या मुम्बई की तो तू
हो नही सकती
गुजरात के भूकंप की तरह चरमराई
दंगों की तरह शर्माई
दिखती तो है
पर गुजरात की ही हो
यह जरूरी नहीं .
तू कश्मीर की तरह घायल है
मगर तेरे जिस्म से
खून की जगह निकलते
गंदे नाली के पानी को देखकर निश्चित रूप से कहा जा सकता है
कि तू
कश्मीर की भी नहीं है.
नहीं
तू दक्षिण भारत की सुनामी लहरों की बहाई भी नहीं
भ्रष्टाचार की गंगा में डूबी-उतराई है
तेरे जिस्म में कहीं ऊँचे पहाड़ तो कहीं गहरी खाई है
लगता है तू
बिहार से भटककर
बनारस में चली आई है.
अब तुझ पर से होकर नहीं गुजरते
रईसों के इक्के
या फिर
फर्राटे से दौड़ने वाले
गाड़ियों के मनचले चक्के
अब तो इस पर घिसटते हैं
सांड, भैंस, गैये
या फिर
मजदूरी की तलाश में भागते
साइकिल के पहिये .
मैं जानता हूँ कि तू कभी ठीक नहीं हो सकती
क्योंकि तू ही तो
अपने रहनुमा के थाली की
कभी ख़त्म न होने वाली
मलाई है.
ऐ अभागी सड़क
तू
आधुनिक भारत के विकास की सच्चाई है
तू ही बता
बिगड़ी संस्कृति बन
मेरे देश में
कहाँ से चली आई है..!
रचना दिल को छू गयी बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteगहरा व्यंग ! हमेशा की तरह नव चिंतन !
ReplyDeleteचौथे पद से , ज़रा कष्ट कीजिये...
आभागी = अभागी , जिश्म = जिस्म , भ्रस्टाचार = भ्रष्टाचार, रईशों = रईसों , गैए = गाय / गय्ये / गैये !
बिहार की भी नहीं है ये सड़क, वहां की सड़कें तो बहुत पहले ही लालू जी ने किसी के गालों की तरफ़ बनाने की कही थी। सक्षम नेता हैं, जब कहा था तो वादा पूरा भी कर दिया होगा।
ReplyDeleteये सड़क उस भारत की है, जो ’इंडिया’ नहीं है।
देवेन्द्र जी, अच्छी रचना है, बधाई स्वीकार करें।
मैं जानता हूँ कि तू कभी ठीक नहीं हो सकती
ReplyDeleteक्योंकि तू ही तो
अपने रहनुमा के थाली की
कभी ख़त्म न होने वाली
मलाई है.
सारी सच्चाई इन पंक्तियों में सिमट आई है।
बहुत विस्तार से सड़कों की हालत को बड़े मनमोहक अंदाज़ में बयाँ किया है ।
आपकी सोच का दायरा वास्तव में विस्तृत है । बधाई ।
मैं जानता हूँ कि तू कभी ठीक नहीं हो सकती
ReplyDeleteक्योंकि तू ही तो
अपने रहनुमा के थाली की
कभी ख़त्म न होने वाली
मलाई है.
एकदम मारक। सुंदर रचना।
गहरा व्यंग ! हमेशा की तरह नव चिंतन !
ReplyDeleteसड़कों के बहाने मुख्य भारत की व्यथा कथा कह दी आप ने। रानी के डण्डे पर आप की अनुपस्थिति खली थी। अब और खल रही है।
@ अली सा,
आश्वस्त हुआ आर्य ! कभी किसी कारण से ब्लॉगरी से रुखसत हुए तो संतोष रहेगा कि वर्तनी ध्वजा फहराता कोई योद्धा मैदान में डटा हुआ है।
वाह,बहुत अच्छी रचना
ReplyDeleteआभार
सड़के विकास की अग्रिम पंक्ति बन हर जगह पहुँचें।
ReplyDeleteWaah kyaa sachchai bayan kiya hai? puri ki puri bakhiy udhed di hai. maan gaye aapke kalam ki takat ko. aise hi jor lagaye rahen hm log bhi ek do khamba jaroor lagayenge yah wada hai. Thanks again.
ReplyDeleteआह क्या लिख डाला आपने ...बहुत अच्छी रचना और एक तीखा प्रहार करती हुई आज की व्यवस्था पर.
ReplyDeletewaah........bahut hi badhiyaa
ReplyDelete"बेहतरीन ...सड़क के माध्यम से सच कहाँ डाला आपने..."
ReplyDeleteबहुत गहरा और सच्चा व्यंग्य
ReplyDeleteआप की कविताओं की सच्चाई पाठक को कविता से नज़रें हटाने ही नहीं देती
बहुत बढ़िया !
इस अंदाज़ से सड़क को माध्यम बना कर व्यवस्था पर चोट करती हुई कविता मेरी नज़र से तो नहीं गुज़री
बधाई !
अब आप सड़क पुराण भी लिख सकते हैं .. इसके पहले गद्य में आप इसकी दुर्दशा को दिखा चुके हैं .. यहाँ व्यंग्यात्मक ढंग से क्या गजब रचा है आपने .. सड़क से आगे तक आप पहुँच गए हैं .. अली जी ध्वजा सम्हाल लिए और गिरिजेश जी खुश हैं , नीक लग रहा है ! .. वैसे ये sadken भी तो अब asmitaa की pahchaan सी hogayee हैं desh की और netaaon की भी ! .. सुन्दर rachnaa !
ReplyDeleteएक अच्छा कटु व्यंग ....सड़क के माद्यम से भ्रष्टाचार पर प्रहार
ReplyDelete@ गिरिजेश राव जी ,
ReplyDeleteप्रभु आप किसी भी कारण से छोड पायेंगे हमें ? ज़रा सोच लीजिये ?
देखिये ध्वजा वाहक तो आप ही हैं मेरे पास तो एक छोटी सी धजी / झंडी है ! जहां अपनापन देखा वहीं गाडनें का रिस्क लिया :)
मुझे लगता तो है कि अमरेन्द्र जी ध्वजा और धजी के मामले में मेरे हमख्याल / हमकदम जरूर होंगे :)
तू ही बता
ReplyDeleteबिगड़ी संस्कृति बन
मेरे देश में
कहाँ से चली आई है..!
सुंदर रचना।
सड़क की पर नित होते अत्याचार… क्षमा करें बलात्कार की व्यथा कथा सुनकर लगा कि आप ने आम आदमी की पीर को अंतस से अनुभव किया है... देवेंद्र जी कविता से अलग आपने बनारसी एक्के और सांढ की याद दिला दी... धन्यवाद!!
ReplyDeleteउम्दा पोस्ट.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया, लिखते रहिये.
धन्यवाद.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
सड़क की बैचेनी को क्या खूबसूरती से बयां किया है। अनवरत मलाई देती योजना। सरकारी लोगो औऱ नेताओं का पेट भरती। खुद बदहाल पर भ्रष्टाचार के पौधे को सिंचती सड़क।
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता।
ReplyDeleteकितनी प्यारी दुर्दशा है???? सड़क की सब कुछ तो कह दिया आपने.मुझे मेरी एक कविता याद दिला दी आपने
ReplyDeleteसड़क
तुमने किसी सड़क को चलते हुए देखा है
ये सड़क कहाँ जायेगी कभी सोचा है
ये सड़कें न तो चलती हैं,न कहीं जाती हैं
ये एक मूक दर्शक की तरह स्थिर हैं
ये सड़कें आजाद हैं
कहीं भी किसी भी सड़क से मिल जाने को
ये आज़ाद हैं किसी को भी
अपने से जुदा कर जाने को
ये काली लम्बी उथली
तो कभी चिकनी लहराती बलखाती
कभी सपाट तो कभी उबड़- खाबड़
असीम अनंत दिशायों तक फैली
अपने सीने पर
इन्सान को बड़े गर्व से उठाने को
कभी मंदिर मार्ग कभी मस्जिद मोड़ जाने को
पर
मंदिर मार्ग पर जाने वाला हर इन्सान मंदिर नहीं जाता
मस्जिद मोड़ पर जाने वाले सिर्फ मस्जिद नहीं जाते
गाँधी रोड पर जाने वाले सब गाँधीवादी नहीं होते
मदर टेरेसा रोड पर जाने वाले सब दयालु नहीं होते
क्यों ऐसे नाम रखते हैं सड़कों के
जहाँ गाँधी रोड पर दारू बिके
मंदिर मार्ग पर गाय कटे
मस्जिद मार्ग पर औरत बिके
मदर टेरेसा मार्ग पर इज्ज़त लुटे
ये सड़कें बड़ी धर्म- निरपेक्ष हैं
इन सड़कों में सर्व-धर्म समभाव है
इन सड़कों को मत बांटो
गाँधीवादियों के लिए
श्रद्धालुओं के लिए
भिखारियों के लिए
इन्हें तो बस रहने दो
आम आदमियों के लिए
लगता है तू
ReplyDeleteबिहार से भटककर
बनारस में चली आई है.
अब बिहार की सड़कों की भटकन दूर हो गई है।
पर ये भी सच है
आधुनिक भारत के विकास की सच्चाई है
तू ही बता
बिगड़ी संस्कृति बन
मेरे देश में
कहाँ से चली आई है..!
देवेन्द्र जी आपकी भावनाओं को नमन करता हूँ..एक निर्जीव वस्तु का भी सजीव चित्रण कर डाला आपने ..आज की सच्चाई है सड़क की तरफ किसी का ध्यान नही हैं...आदमी रोज देखता है सड़क की दुर्दशा पर कुछ कर नही सकता हैं...संवेदना से पूर्ण एक बढ़िया रचना...आज कल आपके गीत और भी बेहतरीन लग रहे है..मानवीय भावनाओं से भरी खूबसूरत रचना के लिए हार्दिक बधाई
ReplyDeleteसबसे पहले तो बड़े भाई 'अली सा' को कविता के वर्तनी दोष ठीक कराने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद. सुबह सुधारते-सुधारते बिजली चली गई .
ReplyDeleteगिरिजेश जी- आप तो बसंत के बाद भूल ही गए थे इस ब्लॉग को..! सभी की त्रुटियाँ सुधारते थे तो मुझे इर्ष्या थी कि यहाँ क्यों नहीं ? अब आने लगे हैं तो अवश्य ही मेरा भला होगा...'रानी की डंडी' समसामयिक संदर्भो में ग्रामीण बोलचाल की भाषा में लिखा अनूठा व्यग्य है ..लम्बा है ..और अभी कमेन्ट करने लायक पढ़ नहीं सका हूँ. पढूंगा जरूर.
..आजकल मेरा गूगल वाला हिन्दी पैड कहीं गुम हो गया है ..यही कारन है कि वर्तनी दोष अधिक हो जा रही है और दुसरे के ब्लॉग में कमेन्ट भी बहुत कम कर पा रहा हूँ....अत्यधिक व्यस्तता और बिजली की कटौती के साथ-साथ नेट की सुस्त चाल ..उफ़ ! ब्लागिंग हम पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए एक कठिन काम है.
सुबह से पहली बार अभी ब्लाग खोला तो इतने लोगों
का स्नेह देख कर मन प्रफुल्लित हो गया. सभी का बहुत आभारी हूँ.
एक बात और अच्छी हुई है कि मेरी सड़क से एक और सड़क आ कर मिल गई है..! यह सिलसिला यूं ही चलता रहा तो मंजिल मिल ही जाएगी ..रचना जी की भावनाओं का मैं आदर करता हूँ..जिसने उन्हें अपनी प्यारी कविता पोस्ट करने के लिए विवश किया...आभार.
जऊन सड़क का बात आप किए हैं ऊ बनारस का नहीं पूरा देस का सड़क है … एही सड़क से जाते हैं न जाने केतना कोलतार डकार जानेवाले नेता अऊर एही सड़क पर आज भी आपको देखाई दे जाएगी ऊ औरत जिसको कभी निराला जी इलाहाबाद के पथ पर देखे थे, ऊ आज भी ओहीं बईठ कर करम तोड़ रही है… कहीं आपको अश्वत्थामा के माथा जईसा हमेसा बहता हुआ गंदा नाला का मवाद देखाई देगा, कभी फूटा हुआ माथा… केतना लोग को गंतव्य तक पहुँचाने वाला सड़क का किस्मत में पैर से कुचला जाना है... आप जो ब्यथा कविता के हर लाईन में लिखे हैं, ऊनमन जोग है.. हमरा प्रनाम सुईकारिए देवेंद्र बाबू!!
ReplyDeleteमैं जानता हूँ कि तू कभी ठीक नहीं हो सकती
ReplyDeleteक्योंकि तू ही तो
अपने रहनुमा के थाली की
कभी ख़त्म न होने वाली
मलाई है....
कुल जमा एक दो बारिश में उधडी हुई सड़कें देखकर यही ख्याल मन में आता है ...!
आपकी ये सड़क हमारे दिल में उतर गई।
ReplyDeleteमैं जानता हूँ कि तू कभी ठीक नहीं हो सकती
ReplyDeleteक्योंकि तू ही तो
अपने रहनुमा के थाली की
कभी ख़त्म न होने वाली
मलाई है....
..........गहरा व्यंग .
वाह,बहुत अच्छी रचना...
ReplyDeleteसड़क बैचेन है....
गहरा व्यंग्य .....
बहुत बढ़िया, लिखते रहिये.
ऐ अभागी सड़क
ReplyDeleteतू
आधुनिक भारत के विकास की सच्चाई है
तू ही बता
बिगड़ी संस्कृति बन
मेरे देश में
कहाँ से चली आई है..!
बेहतरीन ... लाजवाब व्यंग है ये भारत के ताज़ा हालात पर ... पर बेजवाब सड़क क्या बताएगी जब इन पर चलने वाले ही इसको चल जाते हैं ... फिर विकास की तस्वीर बना कर दिखाते हैं .....
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.....भावना प्रधान कविता....
ReplyDeleteऐ अभागी सड़क
ReplyDeleteतू
आधुनिक भारत के विकास की सच्चाई है
और फिर
यह एक कड़वी सच्चाई है
सुन्दर रचना
ऐ अभागी सड़क...!
ReplyDeleteतेरी स्थिति बड़ी दुखदायी है
तू ही बता तू कहाँ से आई है...?
सड़क की ये व्यथा सच में मन को व्यथित कर गयी...
regards
क्या कविता बुनी है देवेन्द्र जी...अकदम हट के, अछूता विषय लिये हुये।
ReplyDeleteबड़े दिनों बाद आ पाया हूँ इस जानिब। कैसे हैं?
सचमुच दुखदायी हो गयी हैं बनारस की सड़कें
ReplyDeleteक्योंकि तू ही तो
ReplyDeleteअपने रहनुमा के थाली की
कभी ख़त्म न होने वाली
मलाई है.
क्या करारा व्यंग किया है...भाई वाह...शब्द शब्द दर शब्द भ्रस्टाचार में लिप्त राजनीती का पर्दाफाश करती आपकी ये रचना अद्भुत है...बधाई स्वीकार करें...
नीरज
देवेन्द्र जी
ReplyDeleteसड़क के बहाने देश की असली पोल खोल दी आपने....प्रभावशाली कविता है...विगत कुछ दिनों से आपके ब्लॉग पर नियमित नहीं हो सका था सो आज सारी छूटी हुयी कवितायेँ भी पढ़ डाली....! इस शानदार रचना की प्रस्तुति का आभार !
ye sadak kahin baahar se nahin aayii hai,dosh apanaa hii hai.ham hii yek-doosare se ladate rahate hain aur wiikaash nahin ho paataa aur malaaii khaane kaa chaska hamane khud lagaaii hai.
ReplyDeleteइस अभागी सडक ने कितने लोगो के भाग्य बना दिए ?बदल डाले ?
ReplyDeleteसडक के माध्यम से सभी प्राक्रतिक विपदाए यद् दिला दी कितु सडक तो सडक है विपदाए तो कभी कभी आती है सडक तो विकास की प्रथम सीढ़ी है जिसे निरंतर चलते रहना है भले ही अभागी हो ?
अपनत्व के ब्लॉग पर आपके कमेन्ट में बाबा विश्वनाथ का नाम देखकर लगा की बनारस से कुछ कनेक्शन है......और आपकी कवितायेँ देखकर दिल खुश हो गया !!
ReplyDeleteकवितायेँ व्यथा व्यक्त करती है पर रचनात्मकता खुश कर देती है....
बनारस की सडको ने बहुत दिल दुखाया है पर दिल्ली की सड़के भी सभी चिकनी नहीं, पुरानी दिल्ली बनारस से बदतर लगती है !!
आपकी सभी कवितायेँ पढूंगी इत्मीनान से !!
मुझे तो लगता है कि सड़क के प्रतीक मे आपने बहुत सारी सामयिक चीजें समेट लेने की कोशिश की है..और कविता उन्हे ले कर आगे बढती है..यह अभागी सड़क मुझे अपने देश की किस्मत सी लगती है..जो लुहलुहान हो कर भी कर्णधारों की थाली की मलाई है..सबको जगह देते हुए भी अपनी जगह से बेघर है...और सडको की बात करें तो सारे शहर एक समान है...फिर बारिश भी....देश मे समाजवाद का सबसे बड़ा सबूत यहाँ की सड़कें ही हैं...ऐसा लगता है..
ReplyDeleteankalji mera bhi blog denkhen aur aashirwad dijiye
ReplyDeleteउफ़... क्या कहूँ....निशब्द कर दिया आपने...
ReplyDeleteकोई शब्द नहीं मेरे पास की प्रशंशा में कह सकूँ...
लाजवाब...लाजवाब...लाजवाब...