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घर की छत पर
बैठे थे
कई सफेद कबूतर
सबने सब मौसम देखे थे
सबके सब
बेदम
भूखे थे
घर में एक कमरा था
कमरे में अन्न की गठरी थी
मगर कमरा
कमरा क्या था
काजल की कोठरी थी
एक से रहा न गया
कमरे में गया
अपनी भूख मिटाई
और लौट आया
सबने देखा तो देखते ही रह गये
आपस में कहने लगे
हम सफेद कबूतरों में यह काला कहाँ से आ गया !
सबने चीखा-
चोर ! चोर !
काला कबूतर
दूर नील गगन में उड़ गया।
कुछ समय पश्चात
दूसरे से भी न रहा गया
वह भी कमरे में गया
अपनी भूख मिटाई
और लौट आया
सबने चीखा-
चोर ! चोर !
काला कबूतर
दूर नील गगन में उड़ गया।
धीरे-धीरे
सफेद कबूतरों का संख्या बल
घट गया
नील गगन
काले कबूतरों से
पट गया।
एक समय ऐसा भी आया
जब काले कबूतर
घर की छत पर
लौट-लौट आने लगे
सफेद कबूतर
या तो कमरे में
या नील गगन में
उड़-उड़ जाने लगे।
जिन्होंने
कमरे में जाना स्वीकार नहीं किया
भागना स्वीकार नहीं किया
वे
कवि, गुरू, या दार्शनिक हो गये
सबको समझाने लगे-
कमरे में अन्न की गठरी है
मगर रूको
कमरा
कमरा नहीं
काजल की कोठरी है।
किसी ने सुना
किसी ने नहीं सुना
किसी किसी ने
सुना अनसुना कर दिया
मगर उनमें
कुछ चालाक ऐसे भी थे
जिन्होंने विशेष परिधान बना लिए
कमरे में जाकर भी
हंस की तरह
उजले के उजले रह गए !
बात मामूली नहीं
संगीन है
उन्हीं की जिन्दगी
बेहद रंगीन है
उनके लिए
हर तरफ मजा ही मजा है
वे ही तय करते हैं
किसकी क्या सजा है !
उनका
बड़ा ऊँचा जज़्बा है
जी हाँ
आज घर में
उन्हीं का कब्जा है।
(....यह कविता हिन्दयुग्म में प्रकाशित है।)
घर की छत पर
बैठे थे
कई सफेद कबूतर
सबने सब मौसम देखे थे
सबके सब
बेदम
भूखे थे
घर में एक कमरा था
कमरे में अन्न की गठरी थी
मगर कमरा
कमरा क्या था
काजल की कोठरी थी
एक से रहा न गया
कमरे में गया
अपनी भूख मिटाई
और लौट आया
सबने देखा तो देखते ही रह गये
आपस में कहने लगे
हम सफेद कबूतरों में यह काला कहाँ से आ गया !
सबने चीखा-
चोर ! चोर !
काला कबूतर
दूर नील गगन में उड़ गया।
कुछ समय पश्चात
दूसरे से भी न रहा गया
वह भी कमरे में गया
अपनी भूख मिटाई
और लौट आया
सबने चीखा-
चोर ! चोर !
काला कबूतर
दूर नील गगन में उड़ गया।
धीरे-धीरे
सफेद कबूतरों का संख्या बल
घट गया
नील गगन
काले कबूतरों से
पट गया।
एक समय ऐसा भी आया
जब काले कबूतर
घर की छत पर
लौट-लौट आने लगे
सफेद कबूतर
या तो कमरे में
या नील गगन में
उड़-उड़ जाने लगे।
जिन्होंने
कमरे में जाना स्वीकार नहीं किया
भागना स्वीकार नहीं किया
वे
कवि, गुरू, या दार्शनिक हो गये
सबको समझाने लगे-
कमरे में अन्न की गठरी है
मगर रूको
कमरा
कमरा नहीं
काजल की कोठरी है।
किसी ने सुना
किसी ने नहीं सुना
किसी किसी ने
सुना अनसुना कर दिया
मगर उनमें
कुछ चालाक ऐसे भी थे
जिन्होंने विशेष परिधान बना लिए
कमरे में जाकर भी
हंस की तरह
उजले के उजले रह गए !
बात मामूली नहीं
संगीन है
उन्हीं की जिन्दगी
बेहद रंगीन है
उनके लिए
हर तरफ मजा ही मजा है
वे ही तय करते हैं
किसकी क्या सजा है !
उनका
बड़ा ऊँचा जज़्बा है
जी हाँ
आज घर में
उन्हीं का कब्जा है।
(....यह कविता हिन्दयुग्म में प्रकाशित है।)
बहुत करारा व्यंग सामाजिक व्यवस्था पर. जागरूक करती सुंदर रचना. देवेन्द्र जी बधाई.
ReplyDelete@आज घर में
ReplyDeleteउन्हीं का कब्जा है...
वाह क्या बात लिखी है,आज पूरे समाज को चित्रित रही है आपकी यह रचना.
वाह, अद्भुत शिल्प इसे कविता कहूं या फिर लघु कथा -या फिर कविता पर लघु कथा भारी है या लघु कथा पर कविता !
ReplyDeleteकाले होते सफ़ेद कबूतर और जो सफ़ेद हैं वो कैसे हैं...इस पर बढ़िया कटाक्ष ....अच्छी प्रस्तुति ...कहीं कहीं यह रचना लघुकथा का स आभास कराती है ...तो कहीं काव्य लगने लगता है ...
ReplyDeleteरचना का कथ्य बहुत अच्छा है। पर थोड़ी कसावट की दरकार है।
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी,
ReplyDeleteआज की इस पोस्ट के लिए मेरा सैल्यूट है आपको.......वाह......वाह....वाह.....
जीवन का सारा दर्शन इतने सुन्दर बिम्बों के साथ......इस पोस्ट ने आज आपकी गरिमा को मेरी नज़रों में और ऊँचा कर दिया........बधाई है आपको....
ईश्वर से प्राथना है आप ऐसे ही लिखते रहें ......मेरी शुभकामनायें
सामाजिक व्यवस्था पर कड़ी चोट करती है आपकी रचना ... सत्य की कितने करीब बैठ कर लिखा है इसे देवेन्द्र जी .... मज़ा आ गया ...
ReplyDeleteनिश्बद कर दिया आपने पांडेय जी , शब्द नहीं मिल रहें कि कमेंट क्या करुं । लाजवाब रचना लगी , बधाई आपको ।
ReplyDeleteनिश्बद कर दिया आपने पांडेय जी , शब्द नहीं मिल रहें कि कमेंट क्या करुं । लाजवाब रचना लगी , बधाई आपको ।
ReplyDeleteइन्ही को तो सफेदपोश कहते हैं ।
ReplyDeleteसुन्दर कटाक्ष ।
भूख मिटाना काजल की कोठरी से कम नहीं।
ReplyDeleteयही तो मुखोटे वाले हे बहुरुपिये, बहुत खुब जी धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत दिन बाद एक अच्छी विचारणीय रचना पढ़ी ...
ReplyDeleteबहुत देर तक सोंचता रह गया !
आप अपना सन्देश देने में कामयाब रहे देवेन्द्र भाई !
हार्दिक शुभकामनायें आपके संवेदनशील मन को !
जो उड़ गए उनसे नील गगन के काले हो जाने का खतरा है ठीक वैसे ही जैसे सफ़ेद परिधान वालों का कमरे पे कब्ज़ा है ! बेहतर प्रतीकों का इस्तेमाल ,बेहतर विचार ,बेहतर कविता ,अगर आप यूंहीं लिखते रहे तो गुरु या दार्शनिकों में गिने जायेंगे !
ReplyDeleteदेवेंद्र जी!अब वे विशेष पर्धान वाले कबूतर भी ढीठ हो गये हैं.. खुले आम घूमते हैं और शब्दकोष में से काले और सफेद का भेद भी समाप्त कर दिया है.. कहते हैं मोतिया का ऑपरेशन करवाओ, तुम्हें सफेद भी काले दिखते हैं!!
ReplyDeletedevendra ji behad pol-khol di.wish you a happy republic day.
ReplyDeletebahut hi adbhut kathya hai is rachna ka.... ek kahaani kee nabz pakdi hai aapne aur aaaj ke saare samaaj kee beemrai bata di aapne...bahut hi sundar.. badhai....
ReplyDeleteक्या बात कही है आपने...वाह...वाह...वाह...
ReplyDeleteसटीक करारा प्रहार...
विद्रूप सत्य और विसंगतियों को प्रभावशाली अभिव्यक्ति दी है आपने...
अतिसुन्दर रचना.वो विशेष परिधान वाले मंत्री हो गए,बड़े-बड़े ऑफिसर हो गए.क्या किजीयेगा,ये टेक्नोलोजी का ज़माना है?
ReplyDeleteबात मामूली नहीं
ReplyDeleteसंगीन है
उन्हीं की जिन्दगी
बेहद रंगीन है
उनके लिए
हर तरफ मजा ही मजा है
वे ही तय करते हैं
किसकी क्या सजा है !
उनका
बड़ा ऊँचा जज़्बा है
जी हाँ
आज घर में
उन्हीं का कब्जा है...
बेहतरीन...देवेन्द्र जी, बधाई.
बात मामूली नहीं
ReplyDeleteसंगीन है
उन्हीं की जिन्दगी
बेहद रंगीन है
उनके लिए
हर तरफ मजा ही मजा है
वे ही तय करते हैं
किसकी क्या सजा है !
बेहतरीन है ...शुक्रिया
वाह देवेन्द्र जी क्या बात कही है आपने .... बेचारे जो लाचार थे चोर कहलाये .. और जो चालक थे वो कब्ज़ा जमाये बैठे हैं ... धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत जोर का लगा भी साहब....झटका....
ReplyDeleteउन्हीं का कब्ज़ा है.....सही बात है....
चुनरिया में दाग लग गइल !!
ReplyDeleteपर यह तो सहज सा रहा और स्वीकार के भाव के साथ !
परन्तु ..
जो कोठरी से भी युक्तिपूर्ण ढंग से निकल आये वे सबसे हुसियार रहे जो सबको चकमा दे रहे , काला अन्दर में व्यापा ! सभ्य - सुशिक्षित ..और जाने का का !! सुन्दर !
sahi hai
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