बड़े भले लगते हैं
जब करते हैं
हमारे लिए
संघर्ष
दे रहे होते हैं
आश्वासन
बड़े बुरे लगते हैं
जब बैठे होते हैं
कुर्सी पर
दीन हीन लगते हैं
खटखटाते हैं
दरवाजा
मांगते हैं
वोट
राक्षस लगते हैं
जब चलवाते हैं डंडे
करते हैं अत्याचार
सभी जानते हैं
गिरगिट की तरह
बदलते हैं रंग
लगाते हैं
मुखौटे
समय-समय पर
बेनकाब भी हुए हैं
रावणी चेहरे
मगर अफसोस
जितने गहरे होते हैं
जिंदगी के जख्म
उतनी कमजोर होती है
जनता की याददाश्त।
...................
सुबह तक विश्व पर्यावरण की चिंता कर रहा था मगर क्या पता था कि विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का पर्यावरण ही पूरी तरह बिगड़ चुका है !
मगर अफसोस
ReplyDeleteजितने गहरे होते हैं
जिंदगी के जख्म
उतनी कमजोर होती है
जनता की याददाश्त।
सही कहा है आपने ...जितने गहरे जख्म होते जाते हैं उतनी ही जनता की यादाश्त भी कमजोर होती जाती है ..और जनता फिर से उन्हीं को चुनकर संसद में भेजती है ..और यह स्वार्थी राजनेता फिर से अपना रंग दिखाना शुरू कर देते हैं .....आपका आभार
जनता की याददाश्त सच में बहुत कमजोर है, ये भी भुला दिया जायेगा जब वोटों से पहले पेट्रोल की कीमत कर कर दी गई या ऐसा ही कुछ फ़ंडा सरकार अपनायेगी।
ReplyDeleteसामयिक रचना बहुत बढ़िया लिखी है आपने♥3
ReplyDeleteसटीक और सार्थक लेखन
ReplyDeleteजनता की यादाश्त बहुत ही कमजोर होती है इसी का फायदा हमारे राजनेता उठते है अपने कुचक्र रचने के लिए .
ReplyDeleteमन बहुत दुखी है -लगता है सोनियां के इटली वापस जाने के दिन अब आ गए !
ReplyDeleteसोलह आने सच्ची बात देवेन्द्र भाई! सुबह के लिए हमने भी हरियाली सजाने का कार्यक्रम बनाया था..क्या पता था कि कालिख पुत जायेगी उसपर!!!
ReplyDeletelovely and a thoughtful post !!
ReplyDeleteइस धरा ने बडे-बडे दैत्यों को धूल चाटते देखा है, मगर धूल-धूसरित होने तक यह सुधरते नहीं।
ReplyDeleteमगर अफसोस
ReplyDeleteजितने गहरे होते हैं
जिंदगी के जख्म
उतनी कमजोर होती है
जनता की याददाश्त।
पाण्डेय जी डेमोक्रेसी का एक अर्थ है जिसमें जनता की ऐसी तैसी वही हुआ आज ...
सुबह तक विश्व पर्यावरण की चिंता कर रहा था मगर क्या पता था कि विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का पर्यावरण ही पूरी तरह बिगड़ चुका है !
ReplyDeleteअत्यंत सटीक विचारों से परिपूर्ण समसामयिक रचना.......सही कहा है आपने ...
aapse sahmat hun,mool samsya yahi hai ki Janta ki yadast bahut kamjor hai :-(
ReplyDeleteशानदार व्यंग्य है ......जनता की याददाश्त कमज़ोर नहीं है पर वो उन सवालो के आगे इन्हें दरकिनार करती जो उसके सामने मुंह बाये खड़े है.....रोटी,कपडा और मकान....और अब तो इसमें और भी कई चीज़े जुड़ गयी हैं मसलन.....दूध,पेट्रोल, फीस इत्यादि.....बहुत अच्छी लगी पोस्ट |
ReplyDeleteनेता बनने की चाहत में जब कोई अछ्छे काम करना छोड़ राजनीति करने लगता है,तो और भी बुरा लगता है.
ReplyDeleteबहुत ही सही कहा....यही तो विडंबना है....
ReplyDeleteबहुत प्रश्न मुँह बाये खड़े हैं।
ReplyDeleteजितने गहरे होते हैं
ReplyDeleteजिंदगी के जख्म
उतनी कमजोर होती है
जनता की याददाश्त।
यकीनन इसी याददाश्त की कमजोरी ही तो हराती रही है और उन्हें जिताती रही है
जनता की याददाश्त कमजोर होती ही है ...
ReplyDeleteशानदार व्यंग्य !
मगर अफसोस
ReplyDeleteजितने गहरे होते हैं
जिंदगी के जख्म
उतनी कमजोर होती है
जनता की याददाश्त।
-और ये नेता इस बात को भली भाँति जानते हैं, इसलिए फायदा उठाते हैं.
मगर अफसोस
ReplyDeleteजितने गहरे होते हैं
जिंदगी के जख्म
उतनी कमजोर होती है
जनता की याददाश्त...
Indeed it's sad Devendra ji.
.
वाह!
ReplyDeleteबहुत खूब ... देश के वातावरण से न सिर्फ़ पर्यावरण बल्कि सब कुछ प्रभावित होता है .... नेताओं का खाका जो आपने खींचा है शायद इससे भी ज़्यादा चालाक होते हैं .... कोई पार नही पा पाता ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.....
ReplyDeleteसच्चाईपूर्ण व्यंग्य रचना ....
गिरगिटी नेताओं के भिन्न-भिन्न रूपों का बढ़िया चित्रण ...
मगर दोषी तो हम सब ही हैं...यानी जनता
मगर अफसोस
ReplyDeleteजितने गहरे होते हैं
जिंदगी के जख्म
उतनी कमजोर होती है
जनता की याददाश्त।
बहुत सटीक कथन...जनता की इसी कमजोरी का फायदा उठाते हैं हमारे तथाकथित नेता..बहुत सुन्दर और सटीक प्रस्तुति..
मगर अफसोस
ReplyDeleteजितने गहरे होते हैं
जिंदगी के जख्म
उतनी कमजोर होती है
जनता की याददाश्त।
very true.
जनता की याददाश्त कमजोर होती ही है.
ReplyDeleteतीखा कटाक्ष...