सुबह ने कहा..
बहुत ठंड है, सो
जाओ।
दिमाग ने कहा…
उठो ! ऑफिस जाओ !!
धूप ने कहा..
यूँ उंगलियाँ न
रगड़ो
आओ ! मजे लो।
दिमाग ने कहा…
बहुत काम है !
शाम ने कहा….
घूमो ! बाजार में बड़ी रौनक है।
दिमाग ने कहा...
घर में पत्नी है,
बच्चे हैं, जल्दी घर जाओ !
रात ने कहा...
मैं तो तुम्हारी
हूँ
ब्लॉग पढ़ो ! कविता लिखो।
दिमाग ने कहा...
थक चुके हो
चुपचाप सो जाओ !
हे भगवान !
तू अपना दिमाग
छीन क्यों नहीं लेता !!
……………………………………….
..............................
हा, हा , बहुत खूब पांडेय जी, अंततः तो लगता है कि आपने अपने दिल की ही मनमानी चलने देते हैं।बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteकविता ...
ReplyDeleteआम आदमी की नियति को रेखांकित करती है ।
आप दिमाग से दुखी हैं, हम दिल से:)
ReplyDeleteईश्वर अकेले दिमाग ही नहीं लेगा,दिल भी लेगा साथ में......
ReplyDeleteदिल की न सुनें ,दिमाग को ही चलने दें !
बढियां मुला ससुरा दिमगवा ही यही बतिया भी खुदै कह रहा है -
ReplyDeleteइस कविता के रचयिया है- श्री दिमाग राम। :)
ReplyDeleteदोस्त कहीं का...!
ReplyDeleteसुबह ने कहा...
उठो जागो जल्दी चलो
दिल ने कहा...
वर्ना वो निकल जायेगी :)
धूप ने कहा...
अंगुलियां रगड़ो
और मजे लो
दिल ने कहा...
यही 'काम' है :)
शाम ने कहा...
घर बैठो !
वेब दुनिया में रौनक है !
दिल ने कहा...
पत्नी बच्चे समझेंगे ये काम पे हैं :)
रात ने कहा...
लिख लिया
अब पढ़ो और टीपो भी
दिल ने कहा...
यही सत्संग है
इस हाथ दे उस हाथ ले :)
हे भगवान !
तू नींद...आफिस
पत्नी और बच्चों का
कोई और इंतजाम कर दे :)
काहे को रुलाये, काहे को सताये,
ReplyDeleteराम करे तुमको, नींद न आये।
majedar prastuti.
ReplyDeleteसंजय जी...
ReplyDeleteदराल साहब के साथ दिल्ली में घूमिये वो ऐसी जगह जानते हैं जहां दिल दुरूस्त हो जाता है। एक मंत्र सभी के लिए..
दराल दिल्ली दिल दुरूस्त च दिमाग हाः हाः
अली सा...
हे भगवान!
तू नींद-ऑफिस
पत्नी और बच्चों का
कोई और इंतजाम कर दे।
...ई कहां संभव है! झूठे सपना ना दिखाइये। जरूरत से ज्यादा मांगने पर अर्जी खारिज हो जाती है:)
dimaag ... rakho apni sahi salah
ReplyDeleteकिसी शायर ने कहा है ---
ReplyDeleteयाद ए माज़ी अज़ाब है यारब
छीन ले मुझ से हाफ़ेज़ा मेरा
और आप तो दिमाग़ ही छीन लेने की बात कर रहे हैं
ऐसा न कहिये वर्ना ऐसी कविताएं कहाँ मिलेंगी पढ़ने के लिये हमें
@ अली साब ,
ReplyDeleteसुबह 'उसको' पकड़ने निकलो,
दोपहर 'काम' पर रहो,
शाम को कम्प्यूटर पर 'निठल्ले' बनो,
रात में कुछ और बचा है
बनने या करने के लिए !
किस किस की सुनें......??
ReplyDeleteबहुत खूब।
बहुत खूब ! हम तो साहब अपना दिमाग सुबह ही बीबी के पास जमा करवा देते है और फिर शाम को घर लौटकर ही वापस लेते है!
ReplyDeletebahut sundar sir...
ReplyDeletekavitayen ho to aisi ho varna naa ho...
भगवान् का भी दिमाग खराब नहीं हो जाएगा . बढ़िया लिखा है .
ReplyDeleteसोच लीजिये दिमाग के साथ बहुत चला जायेगा :-)
ReplyDeleteदिल दिमाग की यह रस्साकसी न रहे तो, न तो आदमी ढंग से कर्तब्य निभा सके और न ही अपनी संवेदनाओं /मन को खुराक दे सके...
ReplyDeleteइसलिए यह तो चलती ही रहनी चाहिए...
वाह ...बहुत बढि़या।
ReplyDeleteपांडे जी! कमाल का फुल सर्किल बनाए हैं.. बस सर्दी में गुनगुना एहसास है!!
ReplyDeleteहा हा हा ! यहाँ भी दिल और दिमाग में द्वंद्ध छिड़ा है ।
ReplyDeleteअब किसकी मानोगे !
सुबह धूप शाम रात --- किसी ने कहा कि पेट कैसे भरोगे? अपना और उनका?
ReplyDeleteBahut khoob. dimag hi samasyayen khadi karta hai.
ReplyDeleteसारा झंझट दिमाग़ का ही है। :)
ReplyDeleteबहुत खूब ... सारा दर्द दिमाग का ही है ... ये दिमाग भी न कभी कभी दिल से काम ले ले तो क्या हो जायगा उसका ...
ReplyDeleteवाह!!!!!खुबशुरत मजेदार रचना,.....
ReplyDeleteनई पोस्ट "काव्यान्जलि".."बेटी और पेड़".. में click करे
लो जी दिमाग के बिना कविता कैसे लिखोगे .....?
ReplyDeleteदिल से ....???
दिल तो पागल है .....:))
मुश्किल तो यही है कि भगवान अपना दिमाग छीनकर बैठा है, आपका तो आपके पास ही है। भगवान से प्रार्थना करें कि वह 'आपका' दिमाग छीन ले 'अपना' नहीं।
ReplyDeleteराजेश जी...
ReplyDeleteसब कुछ भगवान का ही तो है।
फिर तो कोई झंझट ही नहीं। अब भगवान जो चाहे सो कराए। आप तो बस करते जाएं।
ReplyDeleteभई बहुत सुन्दर प्रस्तुति वाह!
ReplyDeleteसारी जिंदगी ही उधेड़बुन में बीत जाती है ,इधर जाऊं या उधर जाऊं मगर आदमी को वही करना पडता है जो किये बगर ज़िंदा रहना ही मुश्किल हो जाये.
ReplyDeleteमहाराज, घूमने से ही तो ये खराबी शुरू हुई थी। वैसे घूम रहे हैं डाक्टर साहबों के आसपास, देखिये कौन दुरस्त होता है:)
ReplyDeleteयही तो मुसीबत है देवेन्द्र भाई कि हमारा कोई एक मालिक नहीं है, बल्कि कई मालिक हैं...सबके अलग-अलग हुक्म हैं! किसकी सुनें, किसकी नहीं
ReplyDeleteयह आपकी अपनी (मेरा मतलब हमारी) सरदर्दी है!!
dil aur dimag ki bahas ko bahut achche se prastut kiya aapne...aabhar
ReplyDeletewelcome to my blog :)
बढ़िया ताल मेल
ReplyDeleteबहुत झंझट है :)
ReplyDeleteबहुत लाजबाब
ReplyDeleteAK ACHHI RACHANA KE LIYE ABHAR PANDEY JI.
ReplyDeleteसही कहा आपने..दिमाग कम्बखत एकदम अन्ना हजारे साब की तरह काम करता है..हर घोटाले पर होने से पहले ही लोकपाल का डर दिखा के चुप करा देता है..दिमाग ना होता तो जिंदगी कितनी चैन से गुजरती (अपना तो खैर वैसे ही कम है..सो थोड़ी-बहुत चैन है लाइफ़ मे)..थोड़ी बहुत घूस देनी पड़ेगी भगवान को..तभी वो दिमाग का पट्टा रद्द करेंगे...मजेदार कविता!! :-)
ReplyDeleteतो क्या दिमाग उसका और दिल आपका है,देवेन्द्र भाई.मेरी समझ में तो दोनों ही उसके हैं.
ReplyDeleteलंबे समय तक और सख्ती से जो दिमाग कहे,दिल भी वही मानने लगता है.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ आपको.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
वीर हनुमान का बुलावा है.
ahahahaha......dimaa ne sbse shi kaha....aakhir jo maj sone me hai kisi me nai hai.....
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