हर वर्ष वाराणसी के तुलसी घाट पर ध्रुपद मेला लगता है। इस वर्ष 17 फरवरी से 20 फरवरी तक चलने वाले 37 वें मेले का उद्घाटन कल दिनांक 17 फरवरी को हुआ। दुनियाँ भर में प्रसिद्ध इस मेले के लिए रसिकों की टोली हालैंड, जापान, जर्मनी, अमेरिका, कनाडा आदि देशों से वाराणसी आती है। यह बसंत का बड़ा उत्सव है जो शिवरात्रि के दिन ही समाप्त होता है। उस्ताद वासिफउद्दीन डागर ने ध्रुपद गायकी से मेले की शुरूआत करी। तानपुरा पर उनके दोनो पुत्रों अनीसुद्दीन डागर व नफीसुद्दीन डागर तथा पखावज पर पं मोहन श्याम शर्मा संगत दे रहे थे। देर रात तक लोग झूमते रहे।
सच बात तो यह है कि अपन को न राग का पता न सुरों का ज्ञान। अपन तो सुनने से अधिक यह देखने गये थे कि यह विश्व प्रसिद्ध मेला आखिर है क्या बला ? उस्ताद की गायकी का राग यमन (बगल वाले ने बताया कि राग यमन गा रहे हैं ) भले समझ में न आ रहा हो मगर उनकी जानमारू मेहनत को देख कर मंत्रमुग्ध तो हो ही गया। विदेशियों की भीड़ के द्वारा पिन ड्राप साइलेंस के साथ उनको सुनना एक अलग ही समा बांधे था। मैं बार-बार लोगों का मुखड़ा देखता और यह जानने का प्रयास करता कि वे लोग कैसा महसूस कर रहे हैं। मैं वैसा ही श्रोता था जो किसी महाकवि की कविता के कठिन शब्दों से चमत्कृत हो औरों को ताली बजाते देख ताली बजाते हैं, भले ही कुछ समझ में नहीं आ रहा हो। एक बात समझ में आ रही थी कि जो गा रहे हैं, वे बड़े गायक हैं और जो सुन रहे हैं वे अच्छे रसिक। रात्रि 12 बजे तक सुर संगीत का आनंद लेता रहा और मेहनत से पूरी बैटरी खत्म कर कई वीडियो बनाया मगर किसी मे आवाज की गड़बड़ी तो कोई एकदम से छोटा। यहां लोड करना भी टेढ़ी खीर। मुश्किल से एक लोड हुआ है देखिए जिससे आपको हल्का फुल्का आइडिया लग ही जायेगा।
एक मजेदार बात और हुई। जब मैं वीडियो खींच रहा था तभी 'अली सा' का फोन आया। मैने धीरे से कहा..एक संगीत समारोह में हूँ और फोन काट दिया। काटते-काटते भी एक लाइन मेरे कान में गूँजी..कमाल हो गया !
देर रात घर आया तो सोचता रहा कि आखिर क्या कमाल हो गया ! क्या मैं संगीत नहीं सुन सकता ? डैशबोर्ड खोला तो वहाँ 'अली सा' की एक ताजा पोस्ट नज़र आई..भला क्या चाहता हूँ मैं ! पढ़ा तो जाना कि वाकई कमाल हो गया ! वे संगीत लिख रहे थे और मैं संगीत देख रहा था। एक ही वक्त दोनो संगीत में डूबे थे और दोनो के मन में एक से ही भाव थे! कोई संगीत सुन नहीं रहा था! अली सा के संगीत में गहरा दर्शन छुपा है। देखने से ज्यादा उसे पढ़ने और समझने की आवश्यकता है।
संगीत सुनना, उसको आत्मसात करना और उसमें डूब जाना अलग बात है और संगीत देखना, उसकी रिपोर्टिंग करना, फोटू हींचना, वीडियो फिल्म बनाना एकदम से अलग बात। आज सोचता हूँ कि कुछ नहीं ले जाउंगा। न कैमरा न मोबाइल। आज तो सिर्फ और सिर्फ मैं ही जाऊंगा वहाँ..नहीं ब्लॉगर को भी नहीं।
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समझ आए या ना आए , संगीत तो अपना जादू बखेरता है ।
ReplyDeleteहम भी खो जाते हैं संगीत में ।
अब अली सा का जादू देखते हैं ।
@ फिलहाल तात्कालिक टिप्पणी ,
ReplyDeleteसंयोग तो जबरदस्त है ही ! इधर आपको बगल वाले ने बताया कि राग यमन गाया जा रहा है उधर से फोन पर आवाज आई कि कमाल हो गया :)
उधर फोन वाले अपने आलेख के आखिर आखिर में डगर भटके हुए थे जबकि इधर आप स्वयं डागर बंधुओं पे अटके हुए थे :)
तात्कालिक शब्द विस्तृत का लोभ जगाता है:)
Deleteकमाल संगीत में है और आपके अवलोकन में भी...
ReplyDeleteअली सा के संगीत ही नहीं सगत में भी गहरा दर्शन छुपा है -बनारस में तो रोज ही विश्व मेले लगे रहते हैं कस्मै देखाय कस्मै परित्यागाय ? :)
ReplyDeleteऔर उसके बावजूद भी ब्लोगर को इन्वोल्व कर दिया :)
ReplyDelete:)
ReplyDeleteइस मेले की और पागल दास की बहुत चर्चाएँ सुनी हैं अपने गुरुजनों से.....कई बार इच्छा हुयी कि एक बार जा कर देखा सुना जाय ..पर तब पढ़ाई का भूत ज्यादा ताकतवर हुआ करता था......पढ़ाई पूरी हुयी तो आगे के जीवन व्यापार से फुरसत नहीं मिल पायी ....अब बनारस आ पाना सपना हो गया है ....
ReplyDeleteए हो मरदे ! अपना कैमरा काहे नाहीं बदलत हउआ ?
कैमरा कीने क पैसा नई खे। जउन रोगिया भावे उहै वैद बतावे, काहे लोभ जगावे!:)
Deleteतभी असली आनंद ले सकेंगे ... सिर्फ खुद जाइएगा
ReplyDeleteपांडे जी!
ReplyDeleteसंगीत की समझ और नासमझी के बारे में स्व.पंडित सत्यदेव दुबे जी का एक आलेख याद आता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि असली संगीत वही होता है जिसे सुबह ऑफिस जाने के पहले आप सुनते हैं और उसका मजाक उड़ाते हुए गुनगुनाते हैं, लेकिन जब ऑफिस से शाम को लौटते हैं तो वही गीत आप एन्जॉय करते होते हैं.. और सोचते हैं कि वही गीत आपकी जुबान से सारे दिन चिपका रहा..
अच्छी कवरेज.. अली सा और आपके संगीत समारोह के बाद आज हमारी भी संगीत सभा हो गयी भूल से.. पटना में बेटा फिल्म आनंद देख रहा था और देखते हुए बोला कि इस फिल्म में सलिल वर्मा संगीत बहुत ही मधुर है.. जब लोग हंसाने लगे तब उसे समझ में आया कि वह सलिल चौधरी की जगह सलिल वर्मा बोल रहा था!! (आउट ऑफ कांटेक्स्ट)!
हा हा हा...यह चूक तो होनी ही थी बेटे से।
Deleteसबसे पुराना ये ध्रुपद पता नहीं कितने दिन और सांस लेगा. इसे आक्सीजन की बहुत सख्त ज़रूरत है.
ReplyDeleteसंगीत का आनंद तो तल्लीनता से सुनने पर अपने आप आने लगता है फिर चाहें वह समझ आये या न आये थोड़ी देर में आप किसी और ही दुनिया में होते हैं. काजल जी की चिंता भी जायज़ हैं.
ReplyDeleteकमाल यह भी है पाण्डेय जी, कि हम भी आपकी ही की नाव मैं सवार थे!! कृपया देखे: सुर संध्या - एक आँखों देखी प्रस्तुति (हमारी नई पोस्ट!)। बहरहाल ध्रुपद तो वैसे भी साधारण जन के लिए गणित की बाइनोमियल थ्योरम के पदों जैसा कठिन विषय है!!
ReplyDeleteबहुत सूना है इस समारोह के बारे में, आँखों देखा हाल आज ही सूना. वीडियो क्लिप देखने फिर आऊँगा!
ReplyDeleteसंगीत को कौन सुनता है. शायद सुनने से परे है. महसूस किया जा सकता है और फिर आपने बखूबी महसूस किया है
ReplyDeleteब्लॉगर इत्ता बुरा जीव भी नहीं कि न ले जाया जा सके साथ। जब वह दक्ष हो जाता है तो संगीत का भी आनन्द लेता है और रिपोर्ट भी कर लेता है।
ReplyDeleteकोई अपराध बोध नहीं होना चाहिये।
कमाल हो गया जी...अभी अचानक काजलजी के ब्लॉग पर टहलते हुए इस पोस्ट की सूचना मिली,पता नहीं,फीड क्यों चूक गई ?
ReplyDeleteसंगीत का अपना आनंद है वह भी बिना किसी संगत के.अगली बार मोबाइल और कैमरा मत ले जाना .इससे रसभंग होता है.
आपके विडियो से जितनी आवाज़ सुन पाया हूँ,मधुर लगी.साक्षात् देखना और सुनना अलग ही सुकून और आनंद देता है !
ये जानकार बहुत अछ्छा लगा कि यैसा सुन्दर कार्यक्रम बनारस में होता है.कभी मौक़ा मिला तो मैं भी जाना चाहता हूँ.वैसे मुझे भी शाष्त्रीय संगीत का ज्ञान तो नहीं मगर अछ्छा लगता है शांत होकर सुनने में.
ReplyDeleteसंगीत प्रेम जग रहा है,ये जानकार और भी अछ्छा लगा.
काश हम भी उठा पाते ये आनंद ... राग यमन के साथ एक रात ...
ReplyDeleteकिस्मत वाले हैं आप ... संगीत दिल की भाषा हजी और इसे दिल से ही समझा जाता है जो अप बाखूबी समझते हैं देवेन्द्र जी ....
खुशकिस्मत हैं आप पाण्डेय जी, लाभ उठा पा रहे हैं। वैसे हम भी कम खुशकिस्मत नहीं, आपके माध्यम से कुछ प्रसाद हम तक भी पहुँच ही रहा है।
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