जब तक मैं जिस्म में था
लहू दौड़ता था
रगो में
रहते थे करीब
पत्नी, बच्चे, रिश्तेदार, दोस्त और ढेर सारे मच्छर।
तामझाम भी खूब था
समाज
धर्म
नैतिकता-अनैतिकता
कहने का मतलब
झूठ के बोझ से
कुचला सच
सच की आड़ में
हंसता झूठ ।
मच्छरों को मारता
जानता कि
ये मेरा खून चूसते हैं
शेष के प्यार में
मारा मारा फिरता
नहीं जानता था
मच्छर भी मुझे वैसे ही प्यार करते थे जैसे...
कभी
कौंधता था सच
पाता था
कुरूक्षेत्र
जागती थी
किंकर्तव्यविमूढ़ता
चाहता था
पलायन
चाहता था
मरना
लेकिन यह आसान नहीं होता
हत्या के लिए
निर्दयी
आत्महत्या के लिए
निर्मोही भी होना होता है
मैं न निर्दयी बन सका
न निर्मोही।
धीरे-धीरे मरा
वैसे ही
जैसे मरते हैं सभी
धीरे-धीरे
दूर होते चले गये सभी
कुछ नहीं रहा शेष
रगो में दौड़ते
लहू
और मच्छरों के सिवा।
जिस दिन
मेरे जिस्म ने अंतिम सांस ली
मैं आजाद हो
देर तक
मंडराता रहा उसके इर्द गिर्द
मैने देखा
मच्छरों ने भी छोड़ दिया था
उसका साथ !
अब आदमी बनकर पैदा होना
कितना मुश्किल काम है !
आप बताइये ?
आप यहाँ क्या कर रहे हैं !
आपकी सज्जनता की बड़ी तारीफ होती है
लोग आपको
भगवान मानते हैं
आपको तो स्वर्ग में होना था !
यहाँ बेचैनी में क्यों भटक रहे हैं ?
मैं फिर आदमी बनने के चक्कर में हूँ !
कई वर्षों से
ऐसे घर की तलाश में हूँ
जहाँ सभी
एक दूसरे से
खूब प्यार करते हैं।
…………………………………..
बहुत खूब भाई --
ReplyDeleteअपलक रचना को देखता रह गया ।
अपूर्व ।
टिप्पणी कला फूस हो गई ।
जबरदस्त --
बहुत सुन्दर रचना है ,मगर ये दूसरी आत्मा को लोग भगवान समझते थे ,वो ज़िंदा में कौंन थे ?
ReplyDeleteअब जितना सुन पाया लिखा। मैं सच्ची मुच्ची में कोई आत्मा थोड़े न हूँ:)
Deleteअक्षर अक्षर पढ़ लिया, होय हिया पैबस्त ।
ReplyDeleteबस इतना ही कह सका, जबरदस्त अति-मस्त ।
जबरदस्त अति-मस्त, नशे में मच्छर घूमें ।
मरता होकर पस्त, नहीं कोई भी चूमे ।
भटक आत्मा मोर, तलाशे इक घर प्यारा ।
हिम्मत रही बटोर, बने आदमी दुबारा ।।
कुंडलिया-विशेषज्ञ हो गए हो भाई !
Deleteवाह!..आभार।
ReplyDeleteआज के ज़माने में ऐसी जगहें अब काहां
ReplyDeleteइसके तलाश आसान नहीं होगी ... युग परिवर्तन पे ही संभव होगा ये सब ...
ReplyDeleteमलेरिया से तो नहीं मरना है।
ReplyDeleteनहीं, बिलकुल नहीं। मच्छरदानी में रहना है।
Deletewaah .....very nice.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति!
ReplyDeleteपरिपूर्ण रचना ...
ReplyDeleteकाश तलाश भी परिपूर्ण हो ..
ये अलग दिशा की उड़ान ले ली आपने आज ....
ReplyDeleteहाँ...आपकी उड़ान तो अलग हो रही है आजकल !
Deleteप्यार ही नहीं मिलता ....
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteआपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 19-03-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ
धन्यवाद।
Deleteबहुत मुश्किल है इस धरती पर ऐसा घर पाना जहाँ सभी एक दूसरे से प्यार करते हों... फिर भी हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं...सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजाने कितने जन्म लेनें पड़ें.....
ReplyDeleteबेहतरीन रचना....
सादर.
ऐसा घर यदि मिल जाए तो यह लोक मृत्यु लोक न कहलाए ।
ReplyDeleteआदमी होना जितना मुश्किल है उससे भी अधिक मुश्किल है एक घर का पा जाना।
ReplyDeleteइस कविता में सामाजिक-पारिवारिक स्थितियों से उपजती विडंबनाओं, बेबसी और असहायता के साथ-साथ मानवीय दुर्बलताओं को भी रेखांकित किया गया है।
गहन भाव लिए.... बढ़िया अभिव्यक्ति .......
ReplyDeleteइस रचना की जितनी प्रशंसा की जाए , कम होगी
ReplyDeleteआत्माओं के संवाद से आज की पारिवारिक स्थिति का सटीक दृश्य खींच दिया है ...
ReplyDeleteवह घर ,जहाँ सब एक दूसरे से प्यार करते हों , से बड़ा स्वर्ग कहीं नहीं है !
ReplyDeleteलगता है इसी दुनिया में हम कोई और दुनिया ढूँढ़ते हैं...!
ReplyDelete@मैं फिर आदमी बनने के चक्कर में हूं।
ReplyDeleteप्यार और सद्भाव की दुनिया की तलाश करती सुंदर रचना।
पहली बार चर्चा मंच के मार्फ़त आपके ब्लॉग पर आया ... और आपका मुरीद हो गया ॥ जय हो ...
ReplyDeleteआज मेरी भी एक लिंक चर्च मंच पर है ... कृपया पधारे " कुछ तो बोलो गोरी '
आपका स्वागत..चर्चा मंच का आभार। अपने ब्लॉग पर आये पाठकों को भरपूर पढ़ने का मन रहता है ताकि मैं उनको जान सकूँ..नियमित नहीं रह पाता, समय और याद रहने पर। कभी एक ही ब्लॉग में भटकता रह जाता हूँ, दूसरे में जाना भूल जाता हूँ। मेरी कामना है कि मेरी अनियमितता के साथ आप जुड़े रह पायें।
Deleteराग-विराग के किनारों को छूती प्रवाहमयी रचना के लिए बधाई..
ReplyDeleteबेहतरीन रचना। बधाई।
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति.............
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteपांडे जी!
ReplyDeleteइस कविता को गीता-सार कहूँ या पृथ्वी पर प्रचलित समस्त धर्मों का निचोड़.. सम्मोहित करती है यह कविता और सम्मोहन से बाहर आने की कोई इच्छा नहीं.. ‘निर्दयी’ और ‘निर्मोही’ के द्वारा जिस प्रकार ह्त्या औरात्म्हात्या के अंतर को रेखांकित किया है आपने वह अद्भुत है!! बस मुग्ध हूँ!!
दिल खुश कर दिया आपने। 'निर्दयी' और 'निर्मोही' पर प्रतिक्रिया जानना चाहता था। ललक थी कि पाठक क्या कहेंगे..संतोष हुआ।..आभार।
Deleteदेवेन्द्र जी ,कविता के साथ सबकी टिप्पणियाँ पढ़ी ! वे सब कह चुके अब मेरे कहने को जो बाकी रहा वह अलग से कहूँगा ! इस अलग वाली बात को कृपया 'ओंकार' पढ़ने के बाद पढ़ें :)
Deleteवाह! बहुत खूब... अद्भुत रचा है आपने...
ReplyDeleteसादर.
सच में बेचैन आत्मा की वेदना ..
ReplyDeleteआदमी बनकर पैदा होना तो फ़िर एक प्रोबेबिलिटी है, आदमी बनकर जीना बहुत दुश्वार।
गहन अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteएक बार इतना आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लिया ,अब दुनिया में दुबारा रहने के लिये अधिक परिपक्व हो गये हैं.ईश्वर करे जैसा आप खोज रहे हैं वैसा घर मिल जाये -और फिर तो इस परिवर्तनशील संसार के अनुसार एडजस्ट कर ही लेंगे .शुभ-कामनाएँ !
ReplyDelete'धीरे धीरे मरा
ReplyDeleteवैसे ही
जैसे सभी मरते हैं
धीरे धीरे'...
वाह, क्या कहने!
बहुत सुन्दर !बहुत कुछ बयाँ करती रचना . बहुत अच्छा लगा पढ़कर
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति है देव बाबू....कहीं गहन आत्मदर्शन की झलक है तो कहीं अंतर में मचा अंतर्द्वंद.....हैट्स ऑफ इसके लिए।
ReplyDeleteकुछ दिनों बाद आना हुआ उसके लिए माफ़ी चाहता हूँ.....दरअसल आपका ब्लॉग मेरे डैशबोर्ड पर दिख ही नहीं रहा था कुछ दिनों से अभी दुबारा से फॉलो किया है अब शायद ठीक हो जाये।
कविता के माध्यम से यथार्थ का काव्यमय सुन्दर वैचारिक प्रस्तुतिकरण...
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें।
बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteलेना देना,
आना जाना,
खिलाना खाना
थोड़ा जीवन थोड़ा समझौता
थोड़ा निर्मम थोड़ी ममता ...
जीवन की रेसिपी में काफी मसाला है
अब आये हैं तो बिना टिप्पणी दिये कैसे जायें ...भले ही कितना भी पूछो कि आप यहाँ क्या कर रहे हैं!!! :)
ReplyDeletewah kya baat hai
ReplyDeleteकमाल कर दिया देवेन्द्र जी! ये आत्मायें भी बहुत सयानी और होशियार बंदी होतीं हैं ! जो खुद नहीं कह सकतीं वो आपके मुखश्री /करकमल और श्रीमान कीबोर्ड जी से कहलवा दिया ! शरीर बेचारे ने किया ही क्या है ? उस निरीह का इस्तेमाल तो आत्मा जी कर गुज़री ! जब तक शरीर 'काम' के लायक था आत्मा ने उसका भरपूर दोहन किया ! वो सब सुख लुटे जो उसकी अपनी दम पे संभव ही ना थे ! मच्छरों की कटान भी उसने खुद कहां भोगी !
ReplyDeleteविश्वास कीजिये शरीर अपने मन से खुद कहां कुछ भी करता / भुगतता / भोगता है ! अव्वल तो शरीर का अपना कोई मन ही नहीं होता ! वो तो उसी दुष्टा का एजेंट है जो शरीर को अपनी सुविधानुसार नचाती है !
पत्नी /बच्चे /काम /क्रोध/ लोभ/ मोह/ नैतिकता/ अनैतिकता / धर्म/ अधर्म / ईश्वर / अनीश्वर वगैरह वगैरह के बारे में शरीर बेचारा जानता ही क्या है ?
हत्या / आत्महत्या / मृत्यु भी शरीर की भिज्ञता के विषय नहीं हैं ये तो आत्मा है जो उसे अपनी सुविधानुसार निपटा गई :)
शरीर ने जो भी किया वो सब आत्मा का किया धरा / किया कराया है ! अतः शरीर पर कोई भी दोषारोपण उचित प्रतीत नहीं होता :)
यह सही है कि जिस्म नश्वर है। कष्ट उठाता है, मौज करता है, अंत में मिट्टी में मिल जाता है। वह जो कुछ भी करता है वह आत्मा से प्रेरित हो लेकिन आत्मा की भी मजबूरी होती है। एक बार जिस्म का, घर का या फिर वातावरण का चुनाव करने के बाद आत्मा भी जिस्म के साथ बंध जाती है। जिस्म की इच्छा, ताकत के अनुरूप कार्य करने पड़ते हैं। देखने में ऐसी प्रतीति होती है कि जिस्म का क्या दोष, सब किया धरा तो आत्मा का ही है लेकिन ऐसा होता नहीं। जिस्म पर घर-परिवार और आसपास के वातावरण का भी फर्क पड़ता है।
Deleteसभी आत्माएं चुनाव कर भी नहीं पातीं। जो कर पाती हैं वे जानतीं हैं कि हमे कहाँ जाना है, हमे क्या करना है। सभी में अच्छा ही करने की इच्छा हो ऐसा भी नहीं है। ऐसा होता तो भी संसार सुखमय हो जाता है। दुष्ट आत्माएं दुष्ट का घर ही तलाशती हैं। जो साधू हैं वे सज्जन को तलाशते हैं।
यह सही है कि जिस्म नश्वर है। कष्ट उठाता है या मौज करता है लेकिन अंत में मिट्टी में मिल जाता है। वह जो कुछ भी करता है वह आत्मा से प्रेरित हो लेकिन आत्मा की भी मजबूरी होती है।
अली साहब की प्रतिक्रिया के बाद.....
Deleteहम अपने शरीर के द्वारा आत्मा को बंधक बना लेते हैं (कुछ समय के लिए) और जैसे ही शरीर के पुर्जे कमज़ोर पड़ते हैं हम आत्मा के हवाले हो जाते हैं.इसीलिए आखिरी वक्त में इंसान अपने गुनाह भी कबूलता है और अपने को सही पहचान पाता है.
...बकिया अली साब का कहना दुरुस्त भी है कि शरीर तो एजेंट है जो अपने लालच में कृत्रिम सुखों का भोग करता है पर 'बिल' अदा करती है आत्मा !
बहुत सुन्दर ...दो आत्माओं के माध्यम से कहा ऐसा सच ...जिसे मनुष्य कुबूलना नहीं चाहता...या यों कहे की छेड़ना नहीं चाहता ....क्योंकि फिर सच के इतने कंकाल खड़े हो जायेंगे जिनसे निबटना मुश्किल हो जायेगा .....बहुत सच्ची रचना !
ReplyDeleteमैं फिर से आदमी बन -ना चाहता हूँ ....
ReplyDeleteस्थूल रूप को निहारता सूक्ष्म शरीर .खुद से गुफ्तु गु एक बार फिर कर ले .बन आदमी ज़रूर बन ..
कहां कहां भटकाते रहते हैं जी। इधरिच रहिये। प्यार-स्यार की कौनौ कमी है क्या आपको?
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