आपके शहर में कितना है यह तो मैं नहीं जानता लेकिन बनारस में छुट्टे पशुओं का भंयकर आतंक है। नींद खुलते ही कानों में चिड़ियों की चहचहाहट नहीं बंदरों की चीख पुकार सुनाई पड़ती है। खिड़की से बाहर सर निकाले नहीं कि "खों...!" की जोरदार आवाज सुनकर ह्रदय दहल उठता हैं। आँख मलते हुए मुँह धोने के लिए उठे तब तक कोई बंदर कुछ खाने की चीज नहीं मिली तो आँगन से कूड़े का थैला ही उठाकर 'खों खों' करता छत पर चढ़कर चारों ओर कूड़ा बिखेरना प्रारंभ कर देता है। टाटा स्काई की छतरी टेढ़ी कर देना, फोन के तार उखाड़ कर फेंक देना या छत की मुंडेर की ईंट से ईंट बजा देना सामान्य बात है। कई बार तो बंदरों के द्वारा गिराई गई ईंट से गली से गुजर रहे राहगीर के सर भी दो टुकड़ों में विभक्त हो चुके हैं। मनुष्यों ने बंदरों का आहार छीना अब बंदर अपने आहार के चक्कर में आम मनुष्यों का जीना हराम कर रहे हैं। वे भी आखिर जांय तो जांय कहाँ? उनके वन, फलदार वृक्ष तो हमने 'जै बजरंग बली' का नारा लगाकर पहले ही लूट लिया है। गर्मी के दिनों में इन बंदरों का जीना मुहाल हो जाता है और ये हमारा जीना मुहाल कर देते हैं। रात में या भरी दोपहरी में तो नहीं दिखाई पड़ते, कहीं छुपे पड़े रहते हैं लेकिन सुबह- शाम भोजन की तलाश में एक छत से दूसरी छत पर कूदते फांदते नजर आ ही जाते हैं। किशोर बच्चों के लिए इनका आना कौतुहल भरा होता है। ले बंदरवा लोय लोय के नारे लगाते ये बच्चे बंदरों को चिढ़ाते-फिरते हैं। बंदर भी बच्चों को खौंखिया कर दौड़ाते हैं। इसी बंदराहट को देखकर बड़े बूढ़ों ने कहा होगा..बच्चे बंदर एक समान। मामला गंभीर हो जाने पर बच्चों के पिता श्री, लाठी लेकर बंदरों को भगाने दौड़ पड़ते हैं। एक बच्चा छत में गहरी नींद सो रहा है। कब भोर हुई उसको पता नहीं। घर के और सदस्य नीचे उतर चुके हैं। उसकी नींद दूसरे घरों की छतों पर होने वाली चीख पुकार सुनकर खुल जाती है। देखता है, उसी के छत की मुंडेर पर बंदरों का लम्बा काफिला पीछे की छत से एक-एक कर आता जा रहा है और सामने वाले की छत पर कूदता फांदता चला जा रहा है। काटो तो खून नहीं। डर के मारे घिघ्घी बंध जाती है। सांस रोके बंदरों के गुजरने की प्रतीक्षा करते हुए मन ही मन हनुमान चालिसा का पाठ करने लगता है...जै हनुमान ज्ञान गुन सागर, जै कपीस तिहुँ लोक उजागर... ! कपि के भय से कपि की आराधना करता बालक तब कपि समान उछल कर नीचे उतर जाता है जब उसे ज्ञान हो जाता है कि अब कपि सेना उसके घर से प्रस्थान कर चुकी है। नीचे उतर कर वह खुशी के मारे जोर से चीखता है..ले बंदरवा लोय लोय।
बंदर पुराण खत्म हुआ। आप नहा धोकर भोजनोपरांत घर से बाहर निकलने को हुए तब तक आपकी निगाह अपने बाइक पर गयी। गली का कुत्ता उसे खंभा समझ कर मुतार चुका है! अब आपके पास इतना समय नहीं है कि आप पाईप लगाकर गाड़ी धो धा कर उसपर चढ़ें। 'मुदहूँ आँख कतो कछु नाहीं' कहते हुए बिना किसी से कुछ शिकायत किये कुक्कुर को आशीर्वचन देते हुए घर से प्रस्थान करते हैं तभी पता चलता है कि आगे सड़क जाम है। पूछने पर पता चलता है कि सांड़ के धक्के से गिरकर एक आदमी बीच सड़क पर बेहोश पड़ा है। माथे से खून बह रहा है। लोग उसे घेर कर खड़े सोंच रहे हैं कि जिंदा है/ उठाया जाय या मर चुका/ उठाना बेकार है। तब तक पुलिस आ जाती है और सड़क/भीड़ साफ होती है। बुदबुदाते हुए बाइक आगे बढ़ाता हूँ..रांड़, सांड़, सीढ़ी, सन्यासी, इनसे बचे तS सेवे काशी। :)
दफ्तर से लौटते वक्त बाइक जानबूझ कर धीमे चलाता हूँ। शाम के समय दौडती भैंसों की लम्बी रेल से भी सड़क जाम हो जाती है। इनके धक्के से साईकिल सवार कुचले जाते हैं। इन पालतू पशुओं के अतिरिक्त छुट्टे सांड़ का आतंक बनारस में बहुतायत देखा जा सकता है। न जाने कहाँ से कोई सांड़, गैया को दौड़ाते-दौड़ाते अपने ऊपर ही चढ़ जाय !
ज्येष्ठ को दोपहरी में तपते-तपाते घर पहुँचे तो देखा, लड़का रोनी सूरत बनाये बैठा है! पूछने पर पता चला..साइकिल चलाकर स्कूल से घर आ रहा था कि रास्ते में गली के कुत्ते ने दौड़ा कर काट लिया। चलो भैया, लगाओ रैबीज का इंजेक्शन। अब पहले की तरह 14 इंजेक्शन नहीं लगाने पड़ते नहीं तो बेटा गये थे काम से। सरकारी अस्पताल में ट्राई करने पर सूई मिलने की कौन गारंटी? आनन-फानन में जाकर एक घंटे में मरहम पट्टी करा कर इंजेक्शन लगवाकर घर आये तो चाय पीन की इच्छा हुई। पता चला... दूध नहीं है। दूध बिल्ली जुठार गई! अब कौन पूछे की दूध बाहर क्यों रखा था? जब जानती हो कि बिल्ली छत से कूदकर आंगन में आ जाती है। यह पूछना, अपने भीतर नये पशु को जन्म देने के समान है।:) शाम को फिर से घंटा-आध घंटा के लिए बंदरों का वही आंतकी माहौल। जैसे तैसे नाश्ता पानी करके समाचार देखने के लिए टीवी खोला तो पता चला टीवी में सिगनल ही नहीं पकड़ रहा है। ओह! तो फिर बंदर ने टाटा स्काई की छतरी टेढ़ी कर दी!! भाड़ में जाय टीवी, नहीं चढ़ते छत पर। ब्लॉगिंग जिंदाबाद। देखें, ब्रॉडबैण्ड तो ठीक हालत में है। शुक्र है भगवान का। बंदरों ने फोन का तार नहीं तोड़ा।
खा पी कर गहरी नींद सोये ही थे कि रात में बिल्ली के रोने की आवाज को सुनकर नींद फिर उचट गई। आंय! यह बिल्ली फिर आ गई! दरवाजा तो बंद था! बिजली जलाई तो देखा दरवाजा खुला था। ओफ्फ! अब इसे भगाने की महाभारत करनी पड़ेगी। इस कमरे से भगाओ तो उस कमरे की चौकी के नीचे घुस जाती है। हर तरफ जाली लगी है सिवाय घर में प्रवेश करने वाले कमरे और आँगन में खुले छत के। उसके निकलने के लिए एक ही मार्ग बचा है। घर के सभी सदस्य रात में नींद से उठकर बिल्ली भगा रहे हैं! मकान मालिक से कई बार कह चुका हूँ कि भैया इस पर भी जाली लगवा दो लेकिन वह भी बड़का आश्वासन गुरू निकला, "काल पक्का लग जाई...!" बिल्ली जिस छत से घर के आँगन में कूदती है, वहीं से चढ़कर भाग नहीं सकती । इस कमरे से उस कमरे तक दौड़ती फिरेगी। फिर रास्ता न पा किसी के बिस्तर को गीला करते हुए, कहीं कोने बैठ म्याऊँ- म्याऊँ करके रोने लगेगी। बिल्ली न रोये, चुपचाप पड़ी रहे तो भी ठीक। कम से कम रात की नींद में खलल तो न होगी। लेकिन वह भी क्या करे? इस घर में तो दूध-चूहा कुछ मिला नहीं। पेट तो भरा नहीं। दूसरे घर में नहीं तलाशेगी तो जीयेगी कैसे ?
विकट समस्या है। यह समस्या केवल अपनी नहीं है। आम शहरियों की समस्या है। किसी की थोड़ी किसी की अधिक। लाख जतन के बावजूद किसी न किसी समस्या से रोज दो चार होना ही पड़ता है। जरूरी नहीं कि एक ही दिन बंदर, बिल्ली, कुत्ते, सांड़ सभी आक्रमण कर दें लेकिन यह नहीं संभव है कि आप इनसे किसी दिन भी आतंकित होने से बच जांय। आंतक के साये में तो आपको जीना ही है। सावधान रहना ही है। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। मुझे याद है एक बार कई दिन जब फोन ठीक नहीं हुआ तो मैने बी एस एन एल दफ्तर में फोन किया। फोन किसी महिला ने उठाया। मैने उनसे पूछा, "मैडम! मेरे फोन का तार बंदर प्रायः हर महीने तोड़ देता है, इसका कोई परमानेंट इलाज नहीं हो सकता?" उन्होने तपाक से उत्तर दिया.."क्यों नहीं हो सकता? हो सकता है। एक काम कीजिए, आप एक लंगूर पाल लीजिए।" अब इतना बढ़िया आइडिया सरकारी दफ्तर से पाकर तबियत हरी हो गई। मैने सोचा कि इसी तर्ज पर क्यों न हम भी इस समस्या के परमानेंट इलाज के लिए नये-नये आईडियाज की तलाश करें।
बहुत सोचने के बाद एक बात जो मेरी समझ में अच्छे से आ गई कि हम लाख परेशान सही लेकिन हमारी परेशानियों के लिए इन जानवरों का कोई दोष नहीं। जिस किसी जीव ने धरती में जन्म लिया उसे भोजन तो चाहिए ही । अपनी भूख मिटाने के लिए श्रम करना कोई पाप तो है नहीं। अब यह आप को तय करना है कि आप इनसे कैसे बचते हैं? आपको छत में कूदते बंदर, गली में घूमते कुत्ते, बीच सड़क पर दौड़ते सांड़ नहीं चाहिए तो फिर इनके रहने और भोजन के लिए परमानेंट व्यवस्था तो करनी ही पड़गी। आखिर जानवरों को इस तरह दर दर इसीलिए भटकना पड़ रहा है क्योंकि आपने अपने स्वार्थ में इनके वन क्षेत्र को शहरी क्षेत्र में बदल दिया। अंधाधुंध जंगलों की कटाई की और खेती योग्य जमीन में कंकरीट के जंगल उगा दिये। क्यों न हम वृद्धाश्रम की तर्ज पर वानराश्रम, कुक्कुराश्रम, नंदी निवास गृह की स्थापना के बारे में शीघ्रता से अपनी सोच दृढ़ करें और सरकार से प्रार्थना करें कि इन जानवरों के रहने, खाने- पीने की समुचित व्यवस्था करें। भले से इसके लिए हमे अपनी आय का कुछ एकाध प्रतिशत टैक्स के रूप में सरकारी खजाने में जमा कराना पड़े। इस तरह हम सभ्य मानव कहलाकर शांति पूर्वक जीवन यापन कर सकते हैं। आप या तो इस आइडिया पर मुहर लगाइये या दूसरा बढ़िया आइडिया दीजिए ताकि हम कह सकें.."व्हाट एन आइडिया सर जी!"
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कुत्ता बिल्ली दोनों पाले हैं, आवाज लगा लगा रात भर जगाये रहते थे दोनों..
ReplyDeleteयह तो अपनी पाली हुई समस्या है सर जी। मैं तो छुट्टे पशुओं की बात कर रहा हूँ।:)
Deleteसुन्दर चित्रण...उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteसुंदर कमेंट..त्वरित कमेंट..धन्यवाद कि याद आई।:)
Deleteबहुत खूब ..
ReplyDeleteबनारस में ही नहीं 'छुट्टे' तो हर जगह मौजूद हैं.
:)छुट्टों की छुट्टी होनी चाहिए।
Deleteकाहें सारनाथ से शिफ्ट कर गए ? अब मजा लूटिये :(
ReplyDeleteसारनाथ के घर में हम सुरक्षित हैं लेकिन बकिया बाहर तो यही समस्या है। और फिर यह हमारी अकेले की समस्या तो है नहीं।:)
Deleteसरकारी अस्पतालों में रैबीज के इंजेक्शन के लिए लाइन लगी रहती है। भींड़ जुटती है वहाँ। बजाय मुफ्त में इंजेक्शन बांटने के यह व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती कि किसी को कुत्ते, बंदर काटने ही न पांय?
गाय / भैंस / बिल्ली / कुत्ते और लंगूर में से जो भी पशु पालतू हैं पर अपने मालिक की कृपा से अन्हा घूम रहे हैं , उनके मालिकों के गले में पट्टा बांध के घुमाने की इच्छा हो रही है , बाकी वे पशु जिन्हें अभी तक पाला नहीं गया है कम से कम वे भी तो एक एक नग मालिक के हक़दार हैं ना :)
ReplyDeleteअगर लोग बाइक छोड़ कर भैंस पे सवार होके आफिस जाना शुरू करदें तो समय ज़रूर लगेगा पर एक तो भैंसे अनुशासित हो जायेंगी और दूसरे सड़कों में बाइक की चिल्लपों / भीड़ भाड़ खत्म हो जायेगी ! यानि ट्रेफिक पे बहुत असर पड़ेगा !
हमने सुना था कि आजकल प्योर दूध नहीं मिलता है और आप हैं कि मासूम बिल्लियों को वही दूध पिला रहे हैं आप पर पशुओं पे क्रूरता वाला मामला तो बनता ही है ! और कुत्ते ? क्या पता सड़कों पर अपनी मर्जी के बजाये अपने मालिक का काम करते घूम रहे हों ? मतलब ये कि आप सरकारी दवाखाने जायेंगे नहीं क्योंकि भरोसा नहीं है तो फिर हो सकता है कि प्राइवेट डाक्टर या रेबीज के इंजेक्शन बेचने वाले इंसान ही ट्रेंड कुत्ते सड़कों पे छोड़ कर अपना बिजनेस बढ़ा रहा हो :)
रही बात बानरों की , अगर वे मंदिर का माल खाकर आपकी छत से गुज़र रहे हों और बी.एस.एन.एल. से खुन्नस निकल रहे हों तो ये पक्का जान लीजिए कि अगले जन्म में उन्हें ब्लागर ही बनना है और आज के ब्लागरों को अगले जन्म में बानर ! हिसाब किताब चुकता करने की ईश्वरीय व्यवस्था यही है :)
हा. हा.. हा...:)
Deleteधन्यवाद सर जी।
ReplyDeleteगहन समस्या है, चिंतन की ज़रूरत है।
ReplyDeleteपीटर्सबर्ग में तो यह समस्या नहीं होगी। वहाँ की सरकार क्या इंतजाम करती है इन पशुओं के लिए ? पैदा तो वहाँ भी होते होंगे अवांछित पशु।
Deleteसच में समस्या विकट ही है। लेकिन ये जानवर किसी न किसी रूप में हर शहर में मौज़ूद हैं।
ReplyDeleteप्रसंग वश तो नहीं पर याद आ गया तो शेयर करता चलता हूं ... मानव तभी तक श्रेष्ठ है, जब तक उसे मनुष्यत्व का दर्जा प्राप्त है। बतौर पशु, मानव किसी भी पशु से अधिक हीन है।
:)
Delete:)
ReplyDeleteबेसिरपैर टिप्पणी है लेकिन याद दिलाया है तो है:
१) तब की बात है जब मैं चौसट्टी घाट पर रहा करता था, बगल के खँडहर पर बंदरों का कब्ज़ा था। और अति हुई तब जब मेरी प्रिय हरी शर्ट एक बन्दर ने कब्जिया ली, आठ साल का लड़का घुस तो गया खँडहर में, लेकिन निकलने के लिए ४ मंजिले मकान से कूदा (गिरा?)।
२) मानमंदिर घाट पर एक दढ़ियल बकरे (आप बकरे कैसे भूल गए?) ने सारी सीढ़ियों पे गुलाटी पड़वा दी।
३) राम नाम लिए स्कूल गया आया हूँ, कि ट्राफिक में बगल में खड़ी भैंस ने पूछ चलायी तो सारी कमीज, बैग, (मुँह?)..... उफ़!
४) एक दोस्त रहता था रानी भवानी गली में, जिसमे अगर सांड बैठ जाए तो उसे कम से कम १ मील और घूमना पड़ता था घर जाने के लिए, लेकिन मजाल है कि सांड महाराज हिलें। :)
पर ईमानदारी से कहूँ, कुत्ते बेचारे शरीफ हैं, गुडगाँव से तुलना करूँ तो हैं ही।
वैसे पशु लिखते तो क्या लिखते? "पशुओं पर छुट्टा आतंक"?
मस्त कमेंट है अविनाश भाई।
Deleteआपके कमेंट से पशुओं के खिलाफ मेरी प्रथम सूचना रिपोर्ट के लिए ब्लॉग जगत में एक अक्षि साक्षी (चश्मदीद गवाह) (क्या करूँ आपको देखते ही कठिन शब्द याद आने लगते हैं।) मिल गया और मेरा आरोप सही सिद्ध हुआ।
बकरों को इसलिए भूल गया कि अब नहीं दिखते बनारस में वैसे छुट्टे, बूढ़े, दढ़ियल बकरे। मार कर खा गये लगता है।:)
पशु लिखते तो कहते....
हत्यारे ये दो पाये,
खा गये सब चौपाये,
हम अब तक जिंदा हैं,
पापी सह नहीं पाये।:)
सर जी मौलिक आइडिया लायें हैं आप भी और तर्ज़े बयान में तो आप व्यंग्य बाण मज़े लेलेके के चलातें हैं .ससुर नेताओं को कैसे भूल गए जिनकी मिलीभगत से पशु जगत के पक्षियों की प्राकृत आवास आज उजाड़ हैं .अब भैया साउथ ब्लोक (नै दिल्ली केन्द्रीय सचिवालय में तो वानरों से बचाव के लिए वास्तव में एक लंगूर रखा हुआ है न्जिसके मालिक को हर माह पगार मिलती है .तिहादियों की फाइलें यहाँ वानर सेना बांचती है .बढ़िया व्यंग्य करुणा का स्पर्श लिए .आंखन देखी सी बयानी है आपकी .छुट्टा पशुओं का आँखों देखा रोज़ नामचा सुना गए पांडे जी .
ReplyDeleteकेन्द्रीय सचिवालय में तो वास्तव में एक लंगूर रखा हुआ है! गज़ब!! मैं मूरख इस वास्तविक सलाह को व्यंग्य समझकर हंस रहा था! धन्य हो शासन प्रशासन:)
Deleteदुखियारे प्राणियों की दास्तान चल रही थी। यहाँ नेताओं का क्या काम ? शायद इसीलिए भूल गया। अच्छा ही किया।:)
..बढ़िया कमेंट के लिए आभार।
...छुट्टा जानवर फिर भी एक छुट्टा इंसान से बेहतर हैं...!
ReplyDeleteजानवरों के रहने,खाने के सभी मौलिक अधिकारों पर आदमी का कब्ज़ा हो गया है ऐसे में वे छुट्टा के बजाय 'बेदखली' का शिकार ज़्यादा हैं और इसके जिम्मेदार हम ही हैं |
यह सब तो सही है लेकिन हम ऐसे ही तो जीवन नहीं बिता सकते। आखिर समस्या का हल क्या हो? वे भी सुख से रहें हम भी। यह हमारी बुलाई आफत है तो हमे ही न इसका हल ढूँढना पडेगा।
ReplyDeleteकाशी ....
ReplyDeleteसुंदर पोस्ट. साधुवाद.
धन्यवाद।
Deleteसमस्या विकत है और हल नज़र नहीं आता ... जिस देश में लोग सड़कों पे रह रहे हैं वहां इन बिचारे जानवरों के लिए आश्रम कहां बनेगें ...
ReplyDeleteयह तो और भी कड़ुवा सच है।(:
Deleteab to yeh aapbeeti jag beeti ho gayee .....
ReplyDeletejai baba banaras....
धन्यवाद।
Deleteशुकर है हमारे शहर में ऐसी कोई छुट्टे पशुओं की समस्या नहीं है :}
ReplyDeleteपर यह भी नहीं कह सकते कि,कोई समस्या ही नहीं है
दूसरी बहुत सारी है ...मजेदार आलेख ! आभार .....
कमाल का शहर होगा!
Deleteजब विदेशी फिल्मों में यह सब दिखाते हैं तो मुझे बड़ा गुस्सा आता है..पर हकीकत तो यही है...:(
ReplyDeleteभयंकर समस्या है। कब तक इसकी उपेक्षा करेंगे!
Deleteबहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
बहुत सजीव चित्रण। आपने दुखती राग छू दी। अपने आफिस और मोहल्ले में आवारा कुत्तों के विरुद्ध अभियान छेड़ने का परिणाम भुगत चुका हूँ। आप कुछ करने की सोचिए, बस पशु-प्रेमी आपके खिलाफ मोर्चा खोल लेंगे। आप पशुओं के लिए आश्रय बनवा दीजिये, लेकिन छुट्टे मनुष्यों का क्या करेंगे देवेंद्र जी? एक बार बाइक से आफिस जाते हुए किसी ने बस की खिड़की से मुझ पर पान-पीक की वर्षा की कर दी थी। 20 किलोमीटर से वापिस घर जाना पड़ा था।
ReplyDeleteलेकिन क्या करें, ऐसी ही है हमारी महान भारतीय संस्कृति। हम अपनी इस संस्कृति से बच कर कहाँ जाएंगे?
आपको अपने ब्लॉग में देखकर आपके बारे में जानने की इच्छा हुई। जानकर बेहत खुशी हुई कि आप जैसे खोजी तपस्वी यहाँ पधारे। ..आभार।
Deleteमैं छुट्टे पशुओं के लिए ही आश्रय की बात कर रहा हूँ। पालतू तो पाले हुए हैं ही। संभावित दुर्घटना के लिए उनके मालिक को आगाह किया जा सकता है। यह तो बड़ी आसानी से प्रशासन द्वारा ठीक किया जा सकता है। असली समस्या तो छुट्टे पशुओं की ही है।
आप पर पीक थूका जाना पशुवत आचरण ही है। यह आचरण भी लोगों में छुट्टे पशुओं के संसर्ग से आया होगा।:) भारतीय संस्कृति तो अद्भुत है जिसकी आप खोज कर ही रहे हैं। ये तो बिगड़े हुए मनुष्य हैं, इन्हें ठीक किया जा सकता है। नहीं तो एक दिन मर खप जायेंगे। हमारी नई पीढ़ी अधिस सभ्य आ रही है।
आपके पास कोई उपाय होता तो हम लोग इस व्यंग्य से वंचित रह जाते। यह सही है कि हमारे अतिक्रमण के कारण ही पशु हमारे जीवन में हस्तक्षेप के लिये विवश हुये हैं (..उन्हें इस दोपाये के करीब आना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता, बेचारों की मज़बूरी है)।
ReplyDeleteआपने चाराखोर दोपायों को चौपायों के लिये आश्रम खोलने का एक नायाब आइडिया देकर अच्छा नहीं किया पाण्डेय जी!अब अगर देश के बोझ तले दबेकुचले बेचारे किसी जनसेवक ने यह नुस्खा पेटेंट करवा लिया और वानराश्रम,श्वानाश्रम आदि खोलकर उनके हिस्से का भोजन डकार गया तो पक्का मानिये हम आपको ही दोषी ठहरायेंगे।
विशेष ध्यातव्य:- मेरा हिस्सा दिलवादोगे तो हम अपना विचार बदल भी सकते हैं। अरबों के वारे-न्यारे होने वाले हैं पाण्डेय जी! मूक पशु कम्प्लेन करने तो जायेंगे नहीं, अपनी पीढ़ियाँ तर जायेंगी।
:)
Deleteभलाई के हरेक नुस्खे से लोग आपना भला करने का उपाय पहले ढूँढ लेते हैं। :(
राजेन्द्र गुप्ता जी की टिप्पणी से एक चेतावनी याद आ गयी। भाइयो-बहनो! आपको यह चेतावनी देते हुये हमें अत्यंत हर्ष का अनुभव हो रहा है कि जब भी कभी आपका बस्तर आना हो तो कृपया किसी भी चलायमान या विश्रामावस्था में खड़ी बस के बगल से न गुज़रें कोई भी आपके ऊपर तम्बाखू, गुटखा,पान,गुड़ाखू की पीक या फिर अपनी आंतों के अर्धपक्व भोजन की बौछार से आपको सराबोर कर सकता है। बस, अतीके चेतावनी रहे, बाकी सब बने हावे, बस्तर मां आबे ज़रूर, हम मन तोर सुआगत करबो।
ReplyDeleteसही पोस्ट है देव बाबू...इन रोज़मर्रा की समस्याओं की और कोई जल्दी ध्यान नहीं देता.....इनमे चूहे, काक्रोच, छछूंदर और मेंडक भी शामिल है और सबसे बढकर ये कमबख्त मछार जीना हराम किये हैं दो पायों का :-)
ReplyDeleteमेरे द्वारा बताये गये और आप द्वारा बताये गये सभी जीव हमारा जीना हराम किये हैं लेकिन मजे की बात है कि हम बिरादरी के लोगों(लेखकों) के लिए उर्जा के श्रोत हैं।:)
Deleteसब शहर वालों की पीड़ा उजागर कर दिया है आपने.मगर इतने से काम नहीं बनने वाला.आपको चाहिये की इसे आंदोलन का रूप देनेका प्रयास करें.किसी बड़े से मैदान में येक विशाल सभा की आयोजना करें,उसके पुर्व सभा का प्रचार करना पड़ेगा,किसी नेता को ही पकडना पडेगा.
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