देर शाम
सब्जियों का भारी झोला उठाये
लौटते हुए घर
चढ़ते हुए
फ्लैट की सीढ़ियाँ
सहसा
कौंध जाती है ज़ेहन में
पत्नी के द्वारा दी गई
सुबह की हिदायतें
और
ज़रूरी सामानो की लम्बी सूची...!
आते ही ख़याल
भक्क से उड़ जाती है
(घर को सामने देख भूले से आ गई)
चेहरे की रंगत
और वह
अगले ही पल
भकुआया
दरवज्जा खटखटाते काँपता
देर तक
हाँफता रहता है।
उस वक्त, वह मुझे
थका कम
मादा अधिक नज़र आता है!
शायद इसीलिये
दफ्तर से देर शाम घर लौटने वाला
थका माँदा नहीं,
थका मादा कहलाता है।
..............................................
पहले तो थोड़ी हैरत हुई शीर्षक देख कर ... अब बात समझ आई ... ;)
ReplyDeleteसही है !
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (30-01-13) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
ReplyDeleteसूचनार्थ |
धन्यवाद।
Delete:):)
ReplyDeleteएक मादा होती है और एक थका मादा होता है ! :-)
ReplyDelete:):) बढ़िया है ...
ReplyDeleteनुक्ते के हेर फेर से ......
ReplyDeleteब्लाग शीर्षक चित्र क्या जबरदस्त लगाया है आपने !!!! मजा आ गया !
ReplyDeleteतो ये मादा के लक्षण माने हैं आपने ?
ReplyDeleteलेबल हास्य-व्यंग्य है । हमारे समाज में डरना, कांपना, हांफना आज भी पुरूषों के लक्षण नहीं माने जाते। जब कि यह अवगुण सभी में पाये जाते हैं।
Delete@ वास्ते रंगत उड़ा / कांपता / हांफता = मादा , कविता 'वर्ग विरोधी' जैसी बन गई है !
ReplyDelete@ वास्ते रंगत उड़ी / कांपती / हांफती = पत्नि की 'हिदायतें' कविता में निहित विरोधाभास जैसा है !
लेबल हास्य-व्यंग्य है । हमारे समाज में डरना, कांपना, हांफना आज भी पुरूषों के लक्षण नहीं माने जाते। जब कि यह अवगुण सभी में पाये जाते हैं। विस्मयादिबोधक चिन्ह तो लगाया हूँ! इससे काम न चले तो बताइये अब क्या करूँ? बन तो गई। :)
Deleteशताब्दियों की मानसिकता है नरों की.आदत एकदम से तो बदलती नहीं.वैसे भी अपनी हिन्दी के हास्य-व्यंग्यकार जब कुछ मौलिक सोच नहीं पाते तो पत्नी(अपनी या परायी कोई भी मादा)को घसीट देते है!बस सचेत रहिये !
Deleteहाँ, यह होता आ रहा है। मैने भी एकाध और ऐसी कविताएं लिखी हैं। लेकिन ध्यान दीजिए, यह मात्र काल्पनिक उपहास नहीं है। एक मध्यमवर्गीय पुरूष की बेचारगी भी झलकती है। ऐसी ही दूसरी कविता भी है इसी ब्लॉग पर..मेरी श्रीमती। लिंक दे रहा हूँ..आप चाहेँ तो उसे भी देख सकती हैं..http://devendra-bechainaatma.blogspot.in/2009/11/blog-post.html..आभार।
Deleteमैंने 'मेरी श्रीमती' पढ़ी.वास्तविकता यह है कि यह 'मादा'शब्द बहुत हीनता-बोधक है.मनुज-जाति अपने विकास ,सुरुचि और बौद्धिकता के कारण अन्य-जीवों से ऊँचे स्तर पर प्रतिष्ठित है.उसके लिये नर-नारी शब्द का विधान है, मानवेतर जीवों के लिये नर-मादा चलता है.कोई भी नर अपनी पत्नी को (क्योंकि वह समान स्तर पर है)मादा कहना पसंद नहीं करेगा.आपकी श्रीमती जी को भी शायद 'मादा' कहलाना न भाये(पूछ देखियेगा).'मादा' से नारी को किस स्तर पर रखा गया इसका बोध होता है. उसके साथवाला नर भी उसी स्तर का द्योतक बन जाता है.
Delete*
हो सकता है मेरा यह विवेचन सब को सही न लगे(मुंडे-मुंडे मतिर्भिनः),किसी के लिये बाध्यता भी नहीं .सबको अपने अनुसार चलने का अधिकार है.और आप पर कोई आक्षेप नहीं मेरा -विवेचन प्रयुक्त शब्द का है.बुरा लगे तो स्पष्ट बता दें जिससे ब्लाग-जगत में आगे सावधान रहा जाय.
ओह...! सहमत। शब्द कहाँ-कहाँ मार करते हैं!!! आपको या किसी को भी इस शब्द से कोई कष्ट पहुँचा हो तो मुझे इसका खेद है।..समझाने के लिए आपका पुनः आभारी हुआ।
Deleteशाहजहांपुर के कवि अजय गुप्त ने लिखा है:
Deleteसूर्य जब-जब थका-हारा ताल के तट पर मिला,
सच कहूं मुझे वो बेटियों के बाप सा लगा।
लेवेल हास्य-व्यंग्य है! इस पर परसाई जी के विचार देखियेगा:
तो क्या पत्नी,साला,नौकर,नौकरानी आदि को हास्य का विषय बनाना अशिष्टता है?
-’वल्गर’ है। इतने व्यापक सामाजिक जीवन में इतनी विसंगतियाँ हैं। उन्हें न देखकर बीबी की मूर्खता बयान करना बडी़ संकीर्णता है।
परसाई जी ने एकदम सही कहा है। ...बीबी की मूर्खता बयान करना बड़ी संकीर्णता है।
Deleteशब्दों से किसी को धोना, संभवतः आपकी इस रचना को ही कहते हैं।
ReplyDeleteआज की मादा सौरी नारी थकी हुई नहीं है!!:)
ReplyDeleteरचना सुबह की लाली की तरह होठों पर स्मित भाव अंकित करती है.. वैसे शीर्षक देखकर
मुझे लग गया था कि लिफ़ाफ़े में मजमून क्या होने वाला है!! जय हो!!
बढ़ियाँ हास्य व्यंग ...
ReplyDelete:-)
वाह-
ReplyDeleteमादा मांदा
नर-मादा
हा....हा....हा......
ReplyDeleteक्या बात है...
ReplyDeleteयह अपनी थ्योरी है ? :)
ReplyDeleteha ha ha :-)
ReplyDeleteएक थका-माँदा खुद को थका-मादा कहे, कम से कम इतना मादा तो नज़र आया, वर्ना मादा को मादा समझने की मादा भी कहाँ है अब !!!
ReplyDeleteशानदार प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार। कविता को आपने वैसा ही समझा जैसा लिखा गया है।
Deleteजी हाँ देवेन्द्र जी, आपने जो लिखा है वही मैंने समझा है, अब आप ही देखिये न डर और मादा एक दुसरे के कितने पूरक लगते हैं।
Deleteगब्बर ने एक डाइलाग कहा था 'जो डर गया समझो मर गया' ..यहाँ बात ज़रा सी अलग है ...जो डर गया वो मादा बन गया' या फिर जो प्राकृतिक मादा है, डरे रहना उसका गहना है,
और हम सोचते हैं, मादा के पास मादा है :)
मैं पहले ही समझ गया था कि आप क्या कहना चाहती हैं। आपने विस्तार से समझाया आपका पुनः आभार। ..आप बेहतर सोचती हैं। :)
Deleteबताईये भला, हम हैं हीं इतने पारदर्शी, कि आप भी समझ गए थे :)
Deleteऔर सोच का क्या है, कभी बेहतर तो कभी न-बेहतर।
अपनी-अपनी जगह से हरेक को एक ही चीज़ अलग-अलग नज़र आती है ...वो क्या कहते हैं, कभी गिलास आधा भरा तो कभी आधा खाली :)
अब सब एक जैसा सोचने लगे, तो दुनिया कितनी नीरस हो जायेगी, है कि नहीं :)
और नहीं तो क्या! अब सोच नहीं मिलेगी तब कब मिलेगी? जब आपने इस प्रमेय को 'इति सिद्धम!'..कर दिया। :)
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