इस ब्लॉग की कविताओं को फेसबुक में खूब साझा किया। कभी-कभी फेसबुक में स्टेटस लिखने का शौक भी दे देती हैं कविताएँ..। दो दिन पहले फेसबुक पर लिखी इस कविता को बहुत से मित्रों ने खूब पसंद किया तो सोचा चलो इसे ब्लॉग को समर्पित कर दें।
सांप और बांसुरी
माँ कहती थीं..
'बारिश का मौसम है
सांप बहुत निकलते हैं
शाम के समय
बांसुरी मत बजाओ!'
मैं कहता था..
"सांप के
कान नहीं होते।'
माँ कहती थीं..
'तुम ज्यादा जानते हो!
सांप के कान नहीं होते तो
कैसे नाचता
सपेरे की बीन पर
क्या वह
देख-देख कर मुड़ी हिलाता है?'
मैं कहता था..
'साँप के
आँख भी नहीं होते।'
माँ कहती थीं..
'मैने कह दिया ना
बस्स...
बांसुरी मत बजाओ!'
और मैं
रख देता था
ताखे पर
बांसुरी।
अब माँ नहीं हैं
बारिश का मौसम है
लेकिन मन भी
नहीं रह गया
चंदन-सा।
अब तो पढ़ता हूँ
आज
किसने
कितना जहर उगला!
............
'बारिश का मौसम है
सांप बहुत निकलते हैं
शाम के समय
बांसुरी मत बजाओ!'
मैं कहता था..
"सांप के
कान नहीं होते।'
माँ कहती थीं..
'तुम ज्यादा जानते हो!
सांप के कान नहीं होते तो
कैसे नाचता
सपेरे की बीन पर
क्या वह
देख-देख कर मुड़ी हिलाता है?'
मैं कहता था..
'साँप के
आँख भी नहीं होते।'
माँ कहती थीं..
'मैने कह दिया ना
बस्स...
बांसुरी मत बजाओ!'
और मैं
रख देता था
ताखे पर
बांसुरी।
अब माँ नहीं हैं
बारिश का मौसम है
लेकिन मन भी
नहीं रह गया
चंदन-सा।
अब तो पढ़ता हूँ
आज
किसने
कितना जहर उगला!
............
उम्र के साथ वह मन बदल गया - और माँ भी नहीं जो पहलेवाला मन जगा दें ,
ReplyDeleteअब समय का फेर जो दिखाए !
अब तो इंसान सांप से भी जहरीला हो गया है... माँ होती तो शायद वे भी यही कहती...
ReplyDeleteमन चंदन ह्रोने पर तो साँप भी जहर नहीं उगलते।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [22.07.2013]
ReplyDeleteचर्चामंच 1314 पर
कृपया पधार कर अनुग्रहित करें
सादर
सरिता भाटिया
धन्यवाद।
Deleteयथार्थ
ReplyDeleteबजाओ बांसुरी -चन्दन विष व्यापत नहीं
ReplyDeleteये अच्छा किया आपने..वरना हम इस खूबसूरत कविता को पढने से रह जाते..
ReplyDeleteहमने फेसबुक पर इस कविता को नहीं पढ़ा....जाने कैसे नज़र में नहीं आई ये कविता!
सुन्दर काव्य रचना।।
ReplyDeleteनये लेख : आखिर किसने कराया कुतुबमीनार का निर्माण?
"भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक" पर जारी 5 रुपये का सिक्का मिल ही गया!!
धन्यवाद।
ReplyDeleteजहाँ खुशी देखते हैं, साँप निकल आते हैं,
ReplyDeleteआजकल वंशी बजाते डर जाता हूँ।
किसने कितना ज़हर उगला ... और आज तो मौसम का भी इंतज़ार नहीं ... सारा साल जहर निकलता है ...
ReplyDeleteAah!
ReplyDeleteआज तो जहर उगलते भी हैं और दूसरों को खिला भी देते हैं किसी न किसी रूप में .... गहन भाव लिए अच्छी रचना ।
ReplyDeleteजहर के सामान बदल गए हैं , तीव्रता वही है !
ReplyDeleteआज 22/07/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
धन्यवाद।
Deleteआजकल सांप इंसानों के पास नही फ़टकते, सांप के काटे का इलाज संभव है पर आदमी के काटे का इलाज नही होता.
ReplyDeleteरामराम.
फ़ौइस्बॊक पर भी पढ़ी थी..........बहुत ही शानदार लगी।
ReplyDeleteसचमुच अब तो यही सुनने देखने रह गया है । अच्छी कविता ।
ReplyDeleteआज का यथार्थ...बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteभावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....
ReplyDeleteसुन्दर!
ReplyDeletebahut sundar ...
ReplyDeleteसच में सब जहरीले लोगों से घिरे हुए हैं अब
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