15.10.13

त्योहार और आम आदमी

दशहरा, बकरीद या दिवाली खास आदमी धन से, आम आदमी मन से मनाते हैं। अर्थशास्त्र कहता है-पूँजी के द्वारा अर्जित किये हुए उस पैसे को धन कहते हैं जिसमें निरंतर वृद्धि होती रहती है। समाज शास्त्र कहता है-परिवार के सदस्यों की उस इच्छा को मन कहते हैं जिसकी पूर्ति लिए आम आदमी को कर्ज़ लेना पड़ता है। यही कारण है कि ये त्योहार खास के लिए खुशी, आम के लिए दुःख के कारण बनते हैं। गणित की भाषा में दोनो में एक शब्द कॉमन है-आदमी। हारता यही है, जीतता यही है। मरता यही है, मारता यही है। कलयुग में यही भक्त है, यही भगवान है।

मांसाहारी परेशान हैं। दशहरे और बकरीद ने मछलियों, मुर्गों, बकरों और भी दूसरे खाये जाने वाले जानवरों का भाव बढ़ा दिया है। शाकाहारी भी कम परेशान नहीं। टमाटर चालीस से नीचे नहीं उतर रहा, प्याज साठ पर डटा हुआ है और अब तो गोभी, नयां आलू और मटर भी बाज़ार में आ गया है। सभी त्योहार आम आदमी कर्ज़ लेकर रोते हुए मनायेगा। खास के पास धन है। सभी त्योहार हँसते हुए मनायेगा। रोते हुए मने, चाहे हँसते हुए, त्योहार आयेंगे और मनाये जाते रहेंगे। गरीब यह नहीं समझ पाते कि ये त्योहार खास के द्वारा, खास के लिए, खास के हित में बनाये गये हैं। ये व्यापारियों के लिए आते हैं। मुल्लों, पंडितों के लिए आते हैं। पूँजीपतियों के लिए आते हैं। ये त्योहार सर्वहारा वर्ग की खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को बाज़ार तक ले जाने के लिए आते हैं। इन त्योहारों में गरीब के घर ढिबरी भी कर्ज़ के तेल से जलती है, बाजार लाभ से जगमगाते हैं।  

आम आदमी की परेशानी खास को समझ में नहीं आती। हँसते हुए कहता है-अब भारत में गरीब कहाँ रह गया? रिक्शा चलाने वाले के पास भी मोबाइल है! गरीब आदमी के बच्चों के पास भी लैपटॉप है। नेट पर बैठकर बड़े-बड़ों से चैट करता है! भाड़ में जाये तुम्हारा मोबाइल! भाड़ में जाय तुम्हारा यह जंजाल। तुमने मोबाइल देकर मजदूरों को और 24 घंटे का गुलाम बना दिया। रात में भी चैन से सो नहीं पाता। थका-मांदा रात मे 12 बजे घर आया है। दो रोटी खाकर गहरी नींद सोया है। तुम्हें कोई जरूरी काम याद आ जाता है और तुम उसे भोर में ही घर आने का आदेश सुना देते हो। जब मोबाइल नहीं था, रात तो उसकी अपनी थी। लोटा लेकर निपटने जाता था तो देख पाता था सूरज़ की लाली कैसी होती है! अब तो दोनो जहान से गया। मगर मजे की बात यह कि यह भी नहीं कह पाता- यह लो अपनी लकुटी कमरिया, बहुत ही नाच नचायो।

आम आदमी को तो श्रम के बदले पेट भर भोजन चाहिए। पहनने के लिए कपड़ा चाहिए। बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा चाहिए। रहने के घर चाहिए, घर में बिजली-पानी चाहिए। चलने के लिए सड़क चाहिए। बीमार पड़े तो अस्पताल चाहिए। इतना सब मिल जाय तब जाकर धन्यवाद देने के लिए भगवान चाहिए। उत्सव मनाने के लिए त्योहार चाहिए। मगर यहाँ सब उल्टा-पुल्टा हो रहा है। घर में खाने के लिए रोटी नहीं मगर त्योहार मनाना जरूरी है। पैसा नहीं है तो कर्ज़ लेकर ही सही, मनाना जरूरी है। दौड़ लगा रहे हैं मंदिरों में..हे ईश्वर! चमत्कार कर दो। भाग रहे हैं भीड़ में। भगदड़ मची तो खास एक भी नहीं, सबके सब आम ही मरे। चालाक नहीं जाते भीड़ में। कर्ज़ दे सकते हैं ब्याज़ पर। जाओ! मनाओ भगवान, मनाओ त्योहार, काटो बकरे, चढ़ाओ परसाद। तरह-तरह के ऑफर, तरह-तरह के प्रलोभन।

कहाँ जायेगा भागकर आम आदमी? कर्ज़ ले लो कर्ज़। सस्ते दर पर ले लो। सिम भराओ..बतियाओ सढ़ुआइन से। ऐ बहिनी, फोन लगाय द जरा मौसी के! दशहरा ऑफर है, दीवाली ऑफर है..ले लो, ले लो, कर्ज़ ले लो। कर्ज लेकर नई टीवी ले आओ, फ़्रिज ले आओ, जिसकी जितनी हैसियत उससे बढ़कर चीजें ले आओ। पेट्रोल भराने की ताकत नहीं, साइकिल छोड़कर मोटर साइकिल ले आओ। रखने लायक घर नहीं, कार ले आओ। शामिल हो जाओ दौड़ में। रोटी से दूर, दवा से दूर, अच्छी शिक्षा से दूर जिये जा रहे हैं झूठे भ्रम जाल में। भले छत चू रहा हो, मोबाइल भरा होना चाहिए, केबिल चालू रहना चाहिए। देखना है सीरियल...आनंदी, बिग बॉस, महाभारत। ललचते जाना है देख-देखकर तरह-तरह के विज्ञापन। सब देखकर भी सुख नहीं हैं। भरनी है आह! करना है क्रंदन। नौ दिन व्रत रखो, माई खुश होंगी तो मिल जायेगा सब कुछ। लक्ष्मी की पूजा करो, घर धन से भर जायेगा। 

उच्च शिक्षा पर खास का कब्जा है। अच्छे इलाज खास के ही वश में हैं। आम आदमी को रहना ही है भगवान भरोसे। इस जाल से निकल पाना अब तो असंभव लगता है। यह और कुछ नहीं अपराधियों, पूँजीपतियों, धर्मगुरूओं का एक सम्मिलित चमत्कार है। इस चमत्कार को नमस्कार है।
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16 comments:

  1. सुन्दर , मार्मिक , भयावह...।

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  2. sach likha hai aapne

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  3. आम आदमी का दर्द बखूबी वर्णित है...

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  4. कल 17/10/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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  5. इन सबका बाप एक सेकुलर है। जिसका सब पर कब्जा है। अमीर गरीब दोनों पर।

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  6. बेचारा आम आदमी ….

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  7. व्यवस्था ने तो दम तोड़ दिया है, लोग त्योहारों में ही चमत्कार की आस लगाये बैठे हैं।

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  8. सम्मलित चमत्कार ... सच कहा है .... आम आदमी को इन्होने दो जमा चार के फेर में लगा रखा है ओर खुद मलाई साफ़ करते रहते हैं ...
    बेचारा आदमी ... गरीब का गरीब ही है ...

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  9. आज के हालात का सही चित्रण !

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  10. आम आदमी की जिंदगी दिन बा दिन कितनी मुश्किल होती जा रही है। ……. उसकी परेशानी को जुबान देते शब्द |

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  11. आम आदमी हलाकान परेशान, खास की बढती दिन दूनी रात चौगुनी शान … सटीक

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  12. ये संसार है भाई ,दूसरों को दिखाने कि लिये लोन लेने वाला ही बुद्धू है.

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  13. इतनी समस्याओं के बीच खुश रहने के बहाने ढूढंता आम आदमी , त्यौहार में ही खुशियाँ ढूंढ लेता है !

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