सुबह-शाम
टेशन-टेशन दौड़ते हैं
ट्रेन के
आने-जाने का समय पूछते हैं
कभी ‘पैसिंजर’
कभी सुपरफॉस्ट पकड़ते हैं
‘पैसिंजर’ पकड़कर दुखी
‘सुपरफॉस्ट’ में चढ़कर प्रसन्न होते हैं
रोज़ के यात्री
धीरे-धीरे
जान पाते हैं
कि वे
जिस ट्रेन में सवार हैं
वह ‘पैंसिजर’ नहीं है
‘सुपरफॉस्ट’ भी नहीं
इसकी गति निर्धारित है
इसमें
बस एक बार चढ़ना
इससे
बस एक बार
उतरना होता है
यह किसी स्टेशन पर नहीं रूकती
बस..
खिड़की से देखकर होता है आभास
कि वह ‘बचपन’ था
यह ‘जवानी’
अब आगे ‘बुढ़ौती’ है
कब चढ़े
यह तो
सहयात्रियों से जान जाते हैं
उतरना कहाँ है ?
कुछ नहीं पता।
......................
Ek adbhut saamya!!!
ReplyDeleteZindagi ik safar hai suhana!!
वाह ! कमाल कर दिया आपने.जीवन की यात्रा को ट्रेन की यात्रा, क्या खूबसूरती से बना दिया !
ReplyDeleteकमाल की सुंदर उत्कृष्ट रचना ....!
ReplyDelete==================
नई पोस्ट-: चुनाव आया...
और हम यह ध्यान भी नहीं रखना चाहते कि हमें उतरना भी है !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (05-12-2013) को "जीवन के रंग" चर्चा -1452
पर भी है!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सलिल वर्मा जी के अनूठे अंदाज़ मे आज आप सब के लिए पेश है ब्लॉग बुलेटिन की ७०० वीं बुलेटिन ... तो पढ़िये और आनंद लीजिये |
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन के इस खास संस्करण के अंतर्गत आज की बुलेटिन 700 वीं ब्लॉग-बुलेटिन और रियलिटी शो का जादू मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
धन्यवाद।
Deleteक्या बात है-
ReplyDeleteसभी सवारी कर रहे, सबको है एहसास |
टेशन आयेगा जहाँ, जहाँ समंदर पास ||
जीवन की ट्रेन तो ऐसे ही चलती है ... पर स्टशन भोगते हुए चलती है ... फिर रूकती है बुढापे पे और सांसों के साथ खत्म होती है ...
ReplyDeleteकहाँ उतरना है माना यह तो पता नहीं पर उतरना है, इतना तो याद रहे.. और वहाँ के लिए कुछ विशेष तैयारी भी करनी है क्योंकि उस स्टेशन का नियम कुछ अजीब है..यहाँ का कुछ काम नहीं आता वहाँ...
ReplyDeleteभैया रेलगाड़ी में भी दर्शन क्या बात है देव बाबू |
ReplyDeleteडेली पैसंजर :)
ReplyDeleteएम एस टी :-)
ReplyDeleteकल 07/12/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
वाह क्या बात! बहुत ख़ूब!
ReplyDeleteइसी मोड़ से गुज़रा है फिर कोई नौजवाँ और कुछ नहीं
वाह, जीवन की सच्चाई
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति.रोज के यात्री, उन्हें भी अपनी मंजिल का पता नहीं.कैसी मशीनी जीवन बन जाता है इंसान का जीवन .दौड़, दौड़ और बस दौड़.यही है अर्जुन की आँख.
ReplyDeleteजीवन और रेलगाड़ी में बहुत साम्य है..सुन्दर कविता।
ReplyDelete