धर्म और अधर्म का अर्थ समझाते हुए तुलसी दास जी लिखते हैं...
परहित सरिस धर्म नहीं भाई। पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।।
परोपकार के बड़ा कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है।
वे यहीं नहीं रुकते। आगे जटायू सन्दर्भ में लिखते हैं..
वे यहीं नहीं रुकते। आगे जटायू सन्दर्भ में लिखते हैं..
परहित बस जिनके मन माहीं।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं।।
दूसरों के हित के लिए जो अपने प्राण भी निछावर कर देते हैं उनके लिए संसार में कुछ भी प्राप्य शेष नहीं रह जाता। और स्पष्ट करते हुए लिखते हैं...
संत विटप सरिता, गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।।
सन्त, वृक्ष, नदियाँ, पर्वत सभी का काम दूसरों पर परोपकार करना है। कोई अपने लिए नहीं जीता।
इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि प्रकृति का स्वभाव ही दूसरों का उपकार करना है। सूर्य, चन्द्र और धरती के समस्त पेड़-पौधे सभी दूसरों की भलाई के लिए बने हैं। स्वार्थ की भावना प्राणियों में ही दिखती है।
मैथिलीशरण गुप्त’ जी ने ठीक ही लिखा है...
“यह पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे ।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।”
रहीम दास जी ने लिखा...
'वो रहीम सुख होत है, उपकारी के संग
बांटने वारे को लगे, ज्यों मेहंदी के रंग।'
वृक्ष कबहूँ नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर !
वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते, नदी जल को कभी अपने लिए संचित नहीं करती, उसी प्रकार सज्जन परोपकार के लिए देह धारण करते हैं !
कबीर दास जी ने लिखा..
स्वारथ सूखा लाकड़ा, छांह बिहूना सूल।
पीपल परमारथ भजो सुख सागर का मूल।।
स्वार्थ सूखी लकड़ी की तरह छाॅंह नहीं देती और राहगीर के कष्ट का कारण है। परमार्थी पीपल वृक्ष की भाॅंति अपने छाया से राहगीरों को सुख पहुॅंचाता है।
कबीर दास जी आगे लिखते हैं..
परमारथ हरि रुप है, करो सदा मन लाये
पर उपकारी जीव जो, सबसे मिलते धाये।
परमार्थ, दूसरों की सहायता करना ईश्वर का ही स्वरुप है।इसे सदा मनोयोग पूर्वक करना चाहिये। जो दूसरों का उपकार, मदद करता है वह उस प्रभु के समान है जो सबसे दौड़कर गले मिलते है।
सन्तों, कवियों ने परमार्थ को पहचान कर सभी को इस राह चलने की सलाह दी। मनुष्यों के हृदय में उपकार की भावना न हो तो संसार में सभी का जीना कठिन हो जाएगा। स्वार्थ जितना बढ़ेगा, जीवन उतना दुरूह होता जाएगा। यही कारण है कि आज के भौतिक युग में नाना प्रकार की विलासिता की वस्तुओं का उपभोग करने में समर्थ होते हुए भी लोग नाना प्रकार की व्याधियों से जकड़े, परेशान हाल घूमते पाये जाते हैं। निजी स्वार्थ में अंधे हो धन संग्रह करके तमाम सुख देने वाले साधनों को प्राप्त करने के बावजूद भी और..और की कामना में डूबे रहते हैं।
ताल, तलैया पी कर जागा
नदी मिली, सागर भी मांगा
इतनी प्यास कहाँ से पाई
हिम से क्यों मरुथल तक भागा?
क्यों खुद को ही रोज छले रे!
तू है कौन? कौन हैं तेरे?
स्वार्थी मनुष्यों की भूख और प्यास तब तक समाप्त नहीं होती जब तक उनके भीतर दूसरों के उपकार की भावना नहीं जगती। परमारथ का भाव मन में न हो तो दूसरों का जीवन तो नर्क बनता ही है, स्वयं स्वार्थी को भी शांति नहीं मिलती। स्वार्थियों की इसी बेचैनी का फायदा ढोंगी बाबा उठाते हैं और भांति-भांति की भ्रांतियाँ फैलाकर लोगों को लूटने और अपना साम्राज्य खड़ा कर सुख भोगने में लगे रहते हैं।
सुख उनको भी नहीं मिलता। जब पाप का घड़ा भर जाता है तो सब झूठ सामने आ जाता है। फर्जी बाबाओं का साम्राज्य ढहते और उन्हें जेल की हवा खाते देखने के बाद भी जिनकी आँखें नहीं खुलतीं उनका तो ईश्वर ही मालिक है
बहुत खूब।
ReplyDeleteसत्य वचन
ReplyDeleteबहुत सुंदर ! सुविचारों से सुसज्जित पोस्ट..
ReplyDeleteपढ़ने और सराहने के लिए आप सभी का आभारी हूँ।
ReplyDeleteसुविचार सराहनीय
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