छेड़छाड़ करने वाले गंदे लड़कों ने प्यार करने वालों का जीना हराम कर दिया है. इतने सख्त क़ानून बनवा दिए कि लड़कों का लड़कियों को लाइन मारना भी मुश्किल हो गया है. पता नहीं कौन किस बात का बुरा मान जाय और शिकायत कर दे! फिलिम में नायक द्वारा नायिका को छेड़ने, छेड़ते-छेड़ते पटा लेने और अंत में विलेन से दो-दो हाथ करने के बाद दोनों के मिलन के सुखांत देख-देख हम बड़े हुए हैं. लड़की का भाई, पिताजी बाद में रिश्तेदार पहले तो हमें विलेन ही लगते थे. अब दृश्य बदल चुके हैं. पति को पत्नी से भी शराफत से बात करनी पड़ती है. छेड़छाड़ करने का मूल अधिकार इधर से उधर सरक गया प्रतीत होता है. कोई गोपी सहेलियों के साथ गर्व से गाना गाये..मोहें पनघट पे नन्द लाल छेड़ गयो रे..तब तो ठीक. लेकिन यदि उसने दुखी होकर यही गाना गाया तो कान्हा गए तीन साल के लिए जेल में.!
जब युवती या महिला के प्रति अश्लील इशारों, टिप्पणियों, गाने या कविता पाठ करना भी अपराध की श्रेणी में आ गया है तो छेड़छाड़ करने वालों के साथ व्यंग्यकारों को इस विषय में लिखने से पहले क़ानून की धाराओं का अध्ययन कर लेना चाहिए. यह कहने से बचा नहीं जा सकेगा कि हमको तो फलाने ने लिखने के लिए चने के झाड़ पर चढ़ाया और हम चढ़ गए. गिरने पर हड्डी तो अपनी ही टूटनी है. चढ़ाने वाला तो यह कह कर निकल जाएगा कि हमने तो ऐसा नहीं कहा था.
पहले की बात अलग थी. स्कूल, कॉलेज से होकर विश्व विद्यायल पहुँचने के बाद ही हम देश भक्ति के फिलिम देखने के बाद बॉबी जैसी एकाध फिलिम देख पाते थे. शोले की बसन्ती जब तक ड्रीम गर्ल बनी विश्व विद्यालय से निकल कर घर/बाहर के आचार संहिता के घेरे में कैद हो गए. विश्व विद्यालय में लड़कों की तुलना में लड़कियां भी इतनी कम होती थीं कि अपने जैसे फटेहाल साइकिल सवार को कौन घास डाले? कहने का मतलब छिड़ने या छेड़ने के अवसर बेहद कम होते थे. आज के दौर के बुजुर्गों पर जो कामुक होने के आरोप लगते हैं कहीं यह इन्ही कुंठा ग्रस्त जीवन शैली अभिशाप तो नहीं? यह शोध का विषय है. इस पर समाज शास्त्री चिंतन मनन करें.
अब तो पैदा होते ही हाथों में स्मार्ट फोन लेकर बड़े हो रहे हैं बच्चे. स्कूल, कॉलेज से विश्विद्यालय पहुंचते-पहुंचते कितने बॉय फ्रेंड/गर्लफ्रेड और कितने गठबंधन/ब्रेक अप! जितने प्यार करने वाले उतने विलेन. जितने विलेन उतने शोषण. इधर नहीं मिला तो उधर हाथ मारो. लड़कियों के स्कूल के बाहर लड़कों की भीड़. जब लड़कियां पढ़ेंगी तो जाहिर है नौकरी भी करेंगी. कामकाजी महिलाओं की सख्या भी पढेगी. शोषण करने की पुरुषवादी मानसिकता बदलते-बदलते बदलेगी. पीढी दर पीढी सुधार होगा मगर यह जो दौर है वह खतरनाक है.
सरकार को सख्त क़ानून तो बनाना ही पड़ेगा. अब क़ानून को लागू करने वालों के लिए समस्या यह जान पाना है कि कौन लड़की पार्क में अपनी मर्जी से राजी खुशी छिड़ी जाने के लिए आई है और कौन बहला फुसला कर लायी गयी है? शादीशुदा लड़कियां भी अब गाढ़ा सिन्दूर या घूंघट डाल कर तो आती नहीं कि पुलिस देखे और झट से पहचान ले कि यह तो विवाहित जोड़े हैं. इनके मौज मस्ती में छेड़छाड़ करी तो नौकरी गई. कौन जोड़ा कितना ताकतवर है? कहीं ऐसा न हो कि इधर पकड़े, उधर फोन आ जाय! कोई सीधा सादा कमजोर हैसियत का जोड़ा मिले तो उसे पकड़ कर बंद किया जा सकता है. अब पुलिस भी उन्हीं मामलों में हाथ डाल सकती है जब कोई महिला शिकायत करे. आम आदमी के घरों की लड़कियां तो तभी शिकायत करेंगी जब पानी सर से ऊपर बहने लगे. बुरी नीयत से केवल टच करने, छू जाने या मात्र अश्लील बातों पर शिकायत करने वाली महिलाऐं आम नहीं कोई खास ही होगी. अब सरकार क्या करे? कानून बना दिया. अब? लागू कैसे करे?
छेड़छाड़ रोकना मात्र सरकार का काम नहीं है. इसके लिए समाज को भी मानसिक रूप से तैयार होना होगा. यह संभव है कि सरकारें बलात्कारी को यथाशीघ्र कड़ी से कड़ी सजा दे जिससे कोई बलात्कार करने की सोच भी न सके लेकिन मात्र सरकार के भरोसे छेड़छाड़ रुकने से रहा. जितने प्यार करने वाले बढ़ेंगे, उतने विलेन भी पैदा होंगे और उतनी छेड़छाड़ की घटनाएँ भी बढ़ेगी. समाज में बदतमीजी रुक जाए तो समझो गंगा नहा लिए. प्यार करना तो प्राणी मात्र का प्राकृतिक स्वभाव है, यह कैसे रुकेगा? और यह रुकना भी नहीं चाहिए. वैसे तो यह मां-बाप के लिए भी कठिन हो चला है लेकिन फिर भी अब लड़कियों के साथ घर के लड़कों को भी नसीहत देने की जरूरत है. जब तक आपने उनके हाथों में स्मार्ट फोन नहीं पकड़ाया है शायद आपके दबाव में आ ही जांय! और बात मान लें कि हमें किसी लडकी से बदतमीजी नहीं करनी है. मतलब वो काम नहीं करना है जो करने से लडकी मना कर दे.
जमाना बदल रहा है. यह बदलाव का दंश है. इस दंश से बचने के लिए सभी को मिल बैठ कर सोचना पड़ेगा. समाज को सही दिसा में ले चलने की जिम्मेदारी जितनी घर के अभिभावकों की है उतना ही आज के युवाओं की भी है. आज नहीं तो कल वे भी बड़े होंगे और उनके बोए बबूल के कांटे उन्हें ही अधिक चुभेंगे. अपने राम का क्या है! जैसे वो दौर देखे वैसे ये दौर भी झेल लेंगे. अब आज के दौर में यह तय कर पाना मुश्किल है कि सुपर्नखा छेड़ी गई थी कि राम/लक्ष्मण को छेड़ने पर उसे उसके कर्मों का फल मिला था! जय राम जी की.
ये व्यंग है ? 🦉🦉
ReplyDeleteनिबन्ध लग रहा है । आप जो लिखते हैं अच्छा लिखते है। वही लिखिए।
ReplyDeleteअच्छा भविष्य में विचार करेंगे सलाह पर। वैसे विषय ही ऐसा था कि युवाओं के उपदेश देना पड़ा।:) इसी उपदेश के कारण यह निबन्ध लग रहा होगा। .. धन्यवाद।
Deleteखूब छेड़छाड़ की ! :)
ReplyDeleteयहाँ आकर पढ़ने के लिए धन्यवाद। कृपया यह बताइए कि यह व्यंग्य की श्रेणी में रखा जाएगा या नहीं? यदि नहीं तो इसमें क्या कमी रह गयी? इसमें हास्य नहीं है। तो क्या हास्य जरूरी है व्यंग्य के साथ?
Deleteकानून बना तो दिया..अब लागू कैसे करें की जहमत में तो सारे कानून टंगे पड़े है...वाकई उम्दा ऑबजरवेशन!!
ReplyDeleteशानदार लेखन!!
धन्यवाद यहाँ आकर पढ़ने के लिए।
Deleteव्यंग्य का पुट तो है इसमें,मगर पूरा व्यंग्य नहीं लग रहा,व्यंग्य किसे कहते हैं ये भी ठीक से नहीं मालूम,सो !😊लेकिन बहुत कुछ समेटा और बहुत बेहतर तरीके से ...मजा आया पढ़कर,आभार यहाँ तक खींच लाने का 😊
ReplyDeleteआभार आपका। मन की बात लिखने के लिए।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (19-12-2017) को "ढकी ढोल की पोल" (चर्चा अंक-2822) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Akhiri teen paragraph me aap sudhar vadi aur shiksha shastri ho gaye....yahan na gudgudi rahi, na chot!!(hamari samajh se)
ReplyDeleteBaki aap jo karte hain, kamaal karte hain isme kisi ko koi shaq nahi!!
जी, उपदेशात्मक हो गया। सब विषय का दोष है। :)
Deleteधन्यवाद।
ReplyDeleteजी पहली बार अपको पढने का मौका मिला.. व्यंग्य के साथ साथ कुंठा भी कहीं कहीं सिर उठाए निर्देश दे रही है..ऐसा प्रतीत हो रहा है.. आपने वर्तमान और भुतकाल के मध्य वैचारिक परिस्थितियों का हल्के व्यंग्य के माध्यम से बेहतरीन प्रस्तुति पेश कि.एक तरह से कहुं तो तमाम बातों को समेटकर वर्तमान पर कटाक्ष करती रचना... बधाई एवं शुभकामनाएं आपको.!!
ReplyDeleteबढ़िया कमेंट के लिए साधुवाद।
Deleteबहुत उम्दा
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteबहुत खूब....
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteसामाजिक व्यवहार में बदलाव पर विश्लेषन को सामने रखता व्यंगात्मक आलेख. सच तो यह है कि युवा पीढी में शर्म नहीं रही. युवाओं में स्त्री के प्रति सहज सम्मान का आग्रह न होकर वासनात्मक भाव प्रभावी है. इन्ही कारणों और अनुभवों के चलते महिला उत्पीड़न निषेध के सख़्त क़ानून अस्तित्व में आये जोकि पुरुष की ना-जाएज़ हरकतों पर प्रतिबंध लगाते हैं .
ReplyDeleteबहरहाल आपकी लेखन शैली बड़ी रोचक है. लिखते रहिये. बधाई एवं शुभकामनायें.
धन्यवाद।
Deleteसच में आपबीती की झाल झेले मन से प्रेरित उपदेशों में ,अनुभवों की तीव्रता जान डाल देती है -ऐसा ही है यह लेखन देवेन्द्रजी .
ReplyDeleteआभार आपका.
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